रूस से सस्ता तेल खरीदने के बावजूद आम जनता को फायदा क्यों नहीं मिला?
punjabkesari.in Wednesday, Oct 08, 2025 - 10:15 AM (IST)

नेशनल डेस्क (आदिल आजमी) : भारत ने रूस से सस्ता कच्चा तेल खरीदने भारत का जो साहसिक कदम उठाया, उसे रणनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक दूरदर्शिता के प्रतीक के रूप में पेश किया गया। सरकार ने कहा था कि यह कदम वैश्विक तेल कीमतों में उतार-चढ़ाव का असर भारतीय उपभोक्ताओं पर कम करेगा। लेकिन आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब भारत ने इतने बड़े कूटनीतिक और आर्थिक जोखिम उठाकर सस्ता तेल खरीदा, तो आम जनता को उसका लाभ क्यों नहीं मिला?
कूटनीतिक जोखिम और आर्थिक असरः यूक्रेन युद्ध के बाद अमरीका और यूरोपीय देशों ने रूस पर कठोर प्रतिबंध लगाए। अधिकांश पश्चिमी देशों ने रूस से तेल खरीदना बंद कर दिया। इसी स्थिति में भारत ने अवसर देखकर रूस से रिकॉर्ड स्तर पर सस्ता तेल खरीदना शुरू किया लेकिन इस रणनीतिक फैसले की आर्थिक और कूटनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी। अमरीका ने भारत पर व्यापारिक दबाव बढ़ाया-कई उत्पादों पर टैरिफ में वृद्धि की और कुछ प्राथमिकता व्यापार लाभ (जी.एस.पी.) वापस ले लिए।
अमरीकी टैरिफ का भारतीय निर्यात और फार्मा पर असर : अमरीका भारत के सबसे बड़े निर्यात बाजारों में से एक है, विशेषकर फार्मा, इंजीनियरिंग, टैक्सटाइल, कृषि और आई.टी. सेवाओं के लिए। रूस से सस्ता तेल खरीदने के फैसले के बाद अमरीका ने कुछ क्षेत्रों में भारत पर सख्ती दिखाई, जिसका असर निम्न रूप में पड़ा :
- फार्मा क्षेत्र पर दबाव अमरीका ने जैनरिक दवाओं पर गुणवत्ता और मूल्य नियंत्रण को लेकर सख्त नियम लागू किए। कई भारतीय कंपनियों को एफ.डी.ए. की जांचों और अनुमति में देरी का सामना करना पड़ा।
-टैरिफ में वृद्धि: अमरीका ने कई भारतीय उत्पादों (जैसे स्टील, एल्युमिनियम, कुछ कृषि उत्पादों) पर अतिरिक्त आयात शुल्क लगाया।
- जी.एस.पी. लाभ की वापसी रूस से बढ़ते आयात के संदर्भ में जी. एस. पी. बहाली में कोई प्रगति नहीं हुई, जिससे करीब 6 बिलियन डॉलर मूल्य के भारतीय निर्यात पर अतिरिक्त शुल्क का बोझ पड़ा। -कुल प्रभाव : कुछ उद्योग संगठनों के अनुमानों के अनुसार, अमरीकी सख्ती और टैरिफ बढ़ौतरी से भारत को अरबों डॉलर का निर्यात नुकसान झेलना पड़ा।
रूस बनाम ओपेक देशों से तेल की कीमत का अंतर : भारत परंपरागत रूप से ओपेक देशों (सऊदी अरब, ईराक, कुवैत आदि) से तेल आयात करता था। 2021-22 में इनसे आयातित कच्चे तेल की औसत कीमत 80-90 अमरीकी डॉलर प्रति बैरल थी। रूस से तेल खरीदने के बाद औसत कीमत 60-70 डॉलर प्रति बैरल तक आ गई, यानी 20 30 डॉलर प्रति बैरल की छूट। कई महीनों तक यह अंतर बना रहा, जिससे सरकार और तेल कंपनियों को हजारों करोड़ रुपए की अतिरिक्त बचत हुई।
खुदरा कीमतों में समानांतर कमी क्यों नहीं दिखी: कच्चे तेल की खरीद लागत घटने के बावजूद उपभोक्ता कीमतों में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ।
- मई 2022 में दिल्ली में पैट्रोल की कीमत लगभग 96-97 रुपए प्रति लीटर थी और 2023-24 में भी यही स्तर बना रहा।
- डीजल की कीमतें 86-90 रुपए प्रति लीटर के बीच रहीं।
अगर रूस से सस्ते तेल का लाभ उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता, तो पैट्रोल-डीजल के दामों में कम से कम 8-10 रुपए प्रति लीटर की स्थायी कमी संभव थी।
ईंधन मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता की कमी:
भारत में ईंधन कीमतें तकनीकी रूप से डी-कंट्रोल कही जाती हैं, लेकिन व्यवहार में करें, उपकरों और तेल कंपनियों की नीतियों से इन पर मजबूत नियंत्रण बना रहता है। रूस से सस्ता तेल खरीदने के बावजूद खुदरा कीमतों को ऊंचा रखना दर्शाता है कि सरकार और तेल कंपनियों ने सस्ती खरीद से हुए लाभ को राजस्व और मुनाफे में समाहित कर लिया, न कि उपभोक्ताओं को राहत देने में।
जन-हित में राहत देने का मौका चूक गया : महंगाई और बेरोजगारी के दौर में सस्ता ईंधन आम नागरिकों को राहत और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का एक अहम साधन हो सकता था लेकिन सरकार ने इस अवसर को राजकोषीय संतुलन साधने के लिए इस्तेमाल किया, न कि जन-हित के लिए।
नीतिगत जवाबदेही के गंभीर सवाल: रूस से सस्ता तेल खरीदना विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण कदम था। लेकिन इसका उद्देश्य केवल सस्ती खरीद तक सीमित नहीं होना चाहिए था, उस लाभ को समाज में व्यापक रूप से पहुंचाना जरूरी था। अब समय है कुछ स्पष्ट सवाल उठाने का :
- सस्ते रूसी तेल का वास्तविक लाभ किसे मिला ?
- जब प्रति बैरल खरीद लागत 20-30 डॉलर घट गई, तो पैट्रोल-डीजल की कीमतों में कोई
स्थायी राहत क्यों नहीं दी गई ? -क्या अमरीका के साथ व्यापारिक संबंधों में नुकसान और टैरिफ वृद्धि को देखते हुए यह नीति वाकई जन-हित में थी ?
- क्या विदेश नीति के रणनीतिक निर्णयों का मूल्यांकन जनता पर उनके ठोस आर्थिक प्रभाव के आधार पर नहीं होना चाहिए ?
निष्कर्ष : रूस से तेल खरीदने का निर्णय भारत के लिए रणनीतिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से एक बड़ा अवसर था लेकिन इससे न तो आम जनता को राहत मिली, न ही भारत ने व्यापारिक मोर्चे पर नुकसान से बचाव किया। आज यह फैसला एक नीतिगत विरोधाभास बन चुका है-उच्च जोखिम वाला कदम, जिसके लाभसीमित वर्गों तक सिमट गए और लागत का बोझ आम जनता और उद्योग जगत को उठाना पड़ा। जब तक सरकार ईंधन मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता नहीं लाती और जन-हित को नीति के केंद्र में नहीं रखती, यह एक खोया हुआ अवसर ही रहेगा।