96 वीर सैनिकों के शव मिले-जिस्म ठंड से अकड़ चुके थे... आखिरी सांस तक हाथ में थामें रही बंदूकें, गड़रिए की पड़ी थी पहली नज़र
punjabkesari.in Friday, Nov 21, 2025 - 02:23 PM (IST)
History Rezang Battle : जनवरी 1963 की एक सुबह, लद्दाख की पहाड़ियों में भटकता एक गड़रिया अचानक ऐसी जगह पहुंच गया, जहां का नजारा देखकर उसके कदम ठिठक गए। सफेद बर्फ में ढके निर्जन क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के निर्जीव शरीर पड़े थे-ऐसे, मानो वे आखिरी सांस तक लड़ते रहे हों। उनके हथियार अब भी उसी दिशा में ताने हुए थे, जिस ओर से दुश्मन आए थे। कई बंदूकों की मैगज़ीन खाली पड़ चुकी थी। देश को इस वीरता का पता अभी तक नहीं था।
कुछ ही दिन बाद ब्रिगेडियर TS रैना के नेतृत्व में भारतीय सेना का दल वहां पहुंचा। उन्हें 96 वीर सैनिकों के शव मिले-जिस्म ठंड से अकड़ चुके थे, पर हाथों में हथियार आज भी क़ायम थे। इन दृश्यों को सैन्य दस्ते ने इतिहास में दर्ज कर लिया। वही कहानी आज फिल्म ‘120 बहादुर’ में दिखाई गई है।
मेजर शैतान सिंह-जो आखिरी सांस तक मोर्चे पर डटे रहे
मेजर शैतान सिंह का पार्थिव शरीर वहीं मिला, जहाँ दो जवान उन्हें छोड़कर मदद लाने गए थे। बाकी सैनिकों का अंतिम संस्कार चुसुल में किया गया, जबकि मेजर शैतान सिंह को तिरंगे में लपेटकर उनके गांव ले जाया गया। उनके अमर साहस के लिए उन्हें परम वीर चक्र मिला। अन्य सैनिकों को वीर चक्र और सेना मेडल प्रदान किए गए। 13 कुमाऊं रेजिमेंट को “रेजांग ला” का युद्ध सम्मान आज भी गौरव से दिया जाता है।

लड़ाई कैसे शुरू हुई – भारी बर्फ और दुश्मन की हलचल
17–18 नवंबर 1962 की रात अचानक तेज़ बर्फीला तूफान उठा। लगभग दो घंटे बाद मौसम साफ हुआ, तो भारतीय पोस्ट ने दुश्मन की बड़ी टुकड़ियों को घाटी से आगे बढ़ते हुए देख लिया। लांस नायक बृज लाल ने तुरंत खबर पहुंचाई और हर मोर्चे पर सैनिक चौकस कर दिए गए। मेजर शैतान सिंह ने सभी प्लाटूनों को वायरलेस पर तैयार रहने का आदेश दिया। खराब मौसम की आड़ लेकर चीनी सैनिकों ने काफी संख्या में खुद को घाटियों में छिपा लिया था, मगर भारतीय जवान उनकी हर हरकत भांप चुके थे।
The battle behind the battle. Meet the team behind 120 Bahadur and see how its world was brought to life. 7 days to go. #TheBahadurDiaries
— Farhan Akhtar (@FarOutAkhtar) November 14, 2025
120 Bahadur, in cinemas 21st Nov.
लड़ाई के पीछे की लड़ाई।
120 बहादुर की टीम से मिलिए।
रिलीज़ में 7 दिन बाकी। #TheBahadurDiaries
१२๐ बहादुर,… pic.twitter.com/yqSLNjwlfI
पहली किरण के साथ शुरू हुआ भीषण संघर्ष
सुबह 5 बजे जब धुंध छंटी, तो भारतीय जवानों ने चीन की पहली लहर को आगे बढ़ते देखा। जैसे ही वे रेंज में आए, भारतीय LMG, MMG और मोर्टार ने आग उगलनी शुरू कर दी। देखते ही देखते गलियां चीनी सैनिकों के शवों से भरने लगीं। एक के बाद एक चार बड़े हमले दुश्मन ने किए, लेकिन हर बार भारतीय सैनिकों ने उन्हें धूल चटा दी।
नायक चांदी राम-जो अकेले कई दुश्मनों पर भारी पड़े
5वें हमले में जब गोला-बारूद लगभग खत्म होने लगा, तब नायक चांदी राम-जो एक मशहूर पहलवान भी थे-अपने साथियों के साथ दुश्मन पर टूट पड़े। उन्होंने अकेले कई चीनी सैनिकों को ढेर कर दिया और अंतिम सांस तक लड़ते रहे। इसी हमले में दुश्मन ने बटालियन हेडक्वार्टर से जुड़ी फोन लाइन को भी काट दिया।
तोपों की मार-जहां भारतीयों के पास जवाब नहीं था
चीनी सेना ने जब देखा कि रेजांग ला को पार करना आसान नहीं, तो उन्होंने भारी तोपखाने का इस्तेमाल शुरू कर दिया। भारतीय सैनिकों के पास न तो तोपें थीं, न ही पक्के बंकर। कई मोर्चे इसी बमबारी में ध्वस्त हो गए। फरवरी 1963 में जब सेनाधिकारी वहां पहुंचे, तो पहाड़ियों पर अब भी गोलों के बने गहरे गड्ढे साफ दिखाई दे रहे थे।

एक-एक कर सभी मोर्चे चुप होते गए
7वीं प्लाटून लगभग पूरी तरह शहीद हो चुकी थी। केवल नायक सही राम जीवित बचे थे। उन्होंने अपने अकेले हथियार से कई दुश्मनों को रोक लिया, लेकिन अंततः वे भी दुश्मन की भारी फायरिंग में वीरगति को प्राप्त हुए।
मेजर शैतान सिंह की अंतिम लड़ाई
बमबारी के बीच मेजर शैतान सिंह अपने जवानों का हौसला बढ़ाते हुए एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे तक जाते रहे। पहले उनकी बांह में, फिर पेट में गोली लगी। साथी हरफूल सिंह और जयनारायण उन्हें खींचकर एक सुरक्षित चट्टान के पीछे ले गए। उन्होंने पट्टियाँ बांधीं पर रेडियो खत्म हो चुका था। मेजर ने आदेश दिया कि उन्हें वहीं छोड़कर बाकी सैनिक मुख्यालय जाकर सूचना दें। उस कड़ाके की ठंड में वे वहीं वीरगति को प्राप्त हुए।
कुछ भी दुश्मन को नहीं मिलेगा – आखिरी संकल्प
हवलदार हरफूल सिंह और उनके साथी आखिरी क्षण तक लड़ते रहे। मोर्टार गोले खत्म होने के बाद हथियारों को तोड़कर नष्ट कर दिया गया ताकि वे दुश्मन के हाथ न लग सकें। रामकुमार, मोर्टार सेक्शन कमांडर, घायल होने के बाद भी अपनी पोस्ट से नहीं हटे। जैसे ही दुश्मन पास आया, उन्होंने अपनी 303 राइफल से कई सैनिकों को मार गिराया। घंटों खून बहने के बाद वे किसी तरह घिसटते हुए बटालियन मुख्यालय पहुंचे और लड़ाई की पूरी कहानी सुनाई।
कुछ सैनिक बंधक बने
पांच भारतीय सैनिकों को चीनी सेना ने बंदी बना लिया था। इनमें से बलबीर सिंह ने कैद में ही दम तोड़ दिया। रेजांग ला - जीत नहीं, लेकिन एक ऐसी शहादत जिसने लद्दाख बचा लिया 18 नवंबर 1962 की यह लड़ाई भले सेना की सबसे कठिन लड़ाइयों में गिनी जाती है, लेकिन इन 120 बहादुर सैनिकों ने लगभग 3,000 चीनी सैनिकों को आगे बढ़ने से रोक दिया। अगर वे न लड़ते, तो आज पूरा लद्दाख और लेह शायद भारत का हिस्सा न होता। इनमें से अधिकांश जवान हरियाणा के रेवाड़ी जिले के एक ही गांव से थे। आज वहां 60 से अधिक शहीदों का स्मारक खड़ा है। कई जवान तो मुश्किल से 20 साल के थे—जिन्हें युद्ध शुरू होने के ठीक पहले भर्ती किया गया था।
