पति और दो बच्चों को खो चुकी हैं मुर्मू, नई राष्ट्रपति की जिंदगी के दर्द, संघर्ष और जज्बे की कहानी

punjabkesari.in Monday, Jul 25, 2022 - 11:09 AM (IST)

नेशनल डेस्क: आजाद भारत के 75 साल के इतिहास में पिछले डेढ़ दशक को महिलाओं के लिए खास तौर से विशिष्ट माना जा सकता है। जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने वाली महिलाएं इस दौरान देश के शीर्ष संवैधानिक पद तक पहुंचने में कामयाब रहीं और 2007 में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनने का गौरव हासिल करने के बाद अब द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना देश की लोकतांत्रिक परंपरा की एक सुंदर मिसाल है। क्या कभी किसी ने सोचा था कि दिल्ली से दो हजार किलोमीटर के फासले पर स्थित ओडिशा के मयूरभंज जिले की कुसुमी तहसील के छोटे से गांव उपरबेड़ा के एक बेहद साधारण स्कूल से शिक्षा ग्रहण करने वाली द्रौपदी मुर्मू एक दिन असाधारण उपलब्धि हासिल करके देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर विराजमान होंगी और देश ही नहीं दुनिया की बेहतरीन इमारतों में शुमार किया जाने वाला राष्ट्रपति भवन उनका सरकारी आवास होगा। 

 द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति है। महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने के साथ साथ वह देश की कुल आबादी के साढ़े आठ फीसदी से कुछ ज्यादा आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं, लेकिन जनजाति की बात करें तो वह संथाल जनजाति से ताल्लुक रखती हैं। भील और गोंड के बाद संथाल जनजाति की आबादी आदिवासियों में सबसे ज़्यादा है। पारिवारिक जीवन की बात करें तो द्रौपदी मुर्मू का जन्म 20 जून 1958 को ओडिशा के मयूरभंज जिले के बैदापोसी गांव में एक संथाल परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बिरंचि नारायण टुडु है।

उनके दादा और उनके पिता दोनों ही उनके गांव के प्रधान रहे। मुर्मू मयूरभंज जिले की कुसुमी तहसील के गांव उपरबेड़ा में स्थित एक स्कूल से पढ़ी हैं। यह गांव दिल्ली से लगभग 2000 किमी और ओडिशा के भुवनेश्वर से 313 किमी दूर है। उन्होंने श्याम चरण मुर्मू से विवाह किया था। अपने पति और दो बेटों के निधन के बाद द्रौपदी मुर्मू ने अपने घर में ही स्कूल खोल दिया, जहां वह बच्चों को पढ़ाती थीं। उस बोर्डिंग स्कूल में आज भी बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं। उनकी एकमात्र जीवित संतान उनकी पुत्री विवाहिता हैं और भुवनेश्वर में रहती हैं। द्रौपदी मुर्मू ने एक अध्यापिका के रूप में अपना व्यावसायिक जीवन शुरू किया और उसके बाद धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति में कदम रखा। साल 1997 में उन्होंने रायरंगपुर नगर पंचायत के पार्षद चुनाव में जीत दर्ज कर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। 

आपको बता दें कि यहां तक पहुंचना द्रौपदी मुर्मू के लिए रास्ता आसान नहीं था उनके जीवन में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए लेकिन इसके बावजूद वह जनता की सेवा में जुटी रही। ओडिशा के मयूरभंज जिला स्थित एक आदिवासी गांव में पैदा हुईं 64 साल की मुर्मू की जिंदगी में कई हादसे हुए जिन्हें सह पाना किसी आम महिला के लिए आसान नहीं था। लेकिन द्रौपदी ने इन हादसों का डट कर मुकाबला किया। आपको बता दें कि भरे-पूरे परिवार के बाद वह अब अकेली अपनी एक बेटी के साथ है। दरअसल, साल 2009 द्रौपदी के जिंदगी का भयावह साल था जब उनके पुत्र की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। अभी वह इस हादसे से उभरी भी नहीं थी कि तीन साल बाद 2012 में सड़क हादसे के कारण उनके दूसरे बेटे की भी मौत हो गई जिदंगी में आए इस तुफान में भी द्रौपदी ने बड़े ही साहस के साथ मुकाबला किया लेकिन प्रकृत्ति को शायद कुछ और ही मंजूर था और इससे पहले हार्ट अटैक के चलते मुर्मू के पति का भी देहांत हो चुका था। इतना सब होने बावजूद वह डटी रही और अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हटी अभी द्रौपदी मुर्मू की एक विवाहित पुत्री हैं जो भुवनेश्वर में रहती हैं।  

वहीं द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति हैं, तो ऐसे में झारखंड के आदिवासियों के बीच काफी उम्मीदें और आकांक्षाएं हैं और वे ‘‘सदियों की उपेक्षा'' के बाद अपने सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त होने को लेकर आशांवित हैं। वे इस बात के लिए भी आशान्वित हैं कि राज्य की पूर्व राज्यपाल मुर्मू आदिवासियों की इस पुरानी मांग को पूरा करने के लिए कदम उठाएंगी कि केंद्र उनके धर्म को 'सरना' के तौर पर मान्यता दे और अगली जनगणना में इस श्रेणी के तहत उनकी गणना सुनिश्चित करे। पांच राज्यों (झारखंड, ओडिशा, बिहार, असम और पश्चिम बंगाल) के 250 जिलों में 'आदिवासी सेंगल अभियान' (आदिवासी सशक्तिकरण अभियान) की अगुवाई कर रहे सालखन मुर्मू से कहा, ‘‘जैसा कि बंगाली 'सोनार बांग्ला' को अपनी पहचान और केंद्र मानते हैं, आदिवासी झारखंड को अपना केंद्र मानते हैं। वे चाहते हैं कि उनसे जुड़ी संस्कृति और परंपराओं को यहां संरक्षित किया जाए। हमें विश्वास है कि द्रौपदी मुर्मू 'सरना संहिता' की स्थापना की दिशा में कदम उठाएंगी।'' 

सालखन मुर्मू ने याद किया कि कैसे झारखंड की तत्कालीन राज्यपाल के रूप में निर्वाचित मुर्मू ने कई मौकों पर कड़ा रुख अपनाया था, जब "आदिवासी मुद्दों से समझौता किया गया था" - पिछली भाजपा सरकार के दौरान एक विधेयक लौटा दिया था जिसका उद्देश्य भूमि कानूनों में संशोधन करना था, साथ ही जब झामुमो के नेतृत्व वाली हेमंत सोरेन सरकार द्वारा जनजातीय सलाहकार परिषद में बदलाव का प्रस्ताव रखा गया था। सालखन मुर्मू ने कहा, ‘‘हम आदिवासी प्रकृति पूजक हैं। 'सरना संहिता' को न मानने का मतलब होगा आदिवासियों को दूसरे धर्म अपनाने के लिए मजबूर करना। हम समय मांगेंगे और राष्ट्रपति भवन में उनसे मुलाकात करेंगे।'' 

झारखंड की केंद्रीय सरना समिति के अध्यक्ष बबलू मुंडा ने कहा कि आदिवासी उम्मीद कर रहे हैं कि राष्ट्रपति भवन के दरवाजे आदिवासियों के लिए हमेशा खुले रहेंगे। आदिवासी सेंगेल अभियान की राष्ट्रीय संयोजक सुमित्रा मुर्मू ने कहा, ‘‘आदिवासियों और पूरे देश की बेहतरी का समय आ गया है।'' इससे पहले, झारखंड विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करके जनगणना में 'सरना' को एक अलग धर्म के रूप में शामिल करने की बात कही थी। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पिछले महीने एक ट्वीट में कहा था, "हमने विधानसभा में सरना आदिवासी धर्म संहिता पारित किया है और इसे केंद्र को भेज दिया है।''


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Content Writer

Anil dev

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