मौत को मात देने वाले सेना के इन बहादुर जवानों काे सलाम!(Pics)

punjabkesari.in Wednesday, Nov 09, 2016 - 12:40 PM (IST)

नई दिल्लीः सरहद पर हर वक़्त डटे रहने वाले सेना के जवान हमारे असली हीरो हैं। ज़िन्दगी को अपने अंदाज़ में जीने वाले इन जवानों से हमें जो प्रेरणा मिलती है, वो शायद ही किसी और से मिले। आज हम आपको सेना के ऐसे तीन बहादुर जवानों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने मौत को मात देकर जिंदगी को नया आयाम दिया। इन जवानों ने साबित किया कि वे सरहद पर ही नहीं, निजी ज़िन्दगी में भी असली सैनिक हैं। 

1. फ्लाइट लेफ्टिनेंट परीक्षित हस्तेकर
भारतीय वायुसेना में फ्लाइट लेफ्टिनेंट परीक्षित 8 नवंबर 2010 को सियाचिन में चीता हेलिकॉप्टर के जरिए भारतीय सैनिकों तक रसद पहुंचाने जा रहे थे। लेकिन टेकऑफ के तुरंत बाद ही हेलिकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया और वे 22000 फीट की ऊंचाई से नीचे जा गिरे। सिर में गंभीर चोट लगने की वजह से वह कोमा में चले गए। करीब 30 दिन बाद कोमा से बाहर आने पर वह दिमागी चोट के कारण शारीरिक-मानसिक तालमेल खो चुके थे। इसके बावजूद परिवार की मदद से वह अपने हालात से लड़े और इसका नतीजा यह हुअा कि जल्द ही उनकी रिकवरी के संकेत मिलने लगे। करीब 8 महीने में उन्हाेंने सपोर्ट से खड़े होने की कोशिश की। 2 साल पूरे होते-होते उन्होंने सारा निजी काम करना शुरू कर दिया था। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने हाल में एक समारोह में हस्तेकर के हौसले की तारीफ की थी।

2. ब्लेड रनर बने मेजर डी.पी. सिंह
1999 में कारगिल की लड़ाई में मोर्टार लगने के बाद मेजर डी.पी. सिंह बुरी तरह घायल हो गए, जहां अस्पताल में डॉक्टरों ने पहले तो उन्हें मृत घोषित कर दिया, लेकिन बाद में पता चला कि उन्होंने दायां पैर खो दिया है। बावजूद इसके वह हार नहीं माने और जिंदगी की कड़ियों को दोबारा जोड़ना शुरू किया। उन्होंने तीन मैराथन में हिस्सा लिया, फिर उन्हें साउथ अफ्रीका के ब्लेड रनर ऑस्कर पिस्टोरियस से फाइबर ब्लेड से बने कृत्रिम पैर की जानकारी मिली। सेना ने मेजर डी.पी. सिंह को यह ब्लेड मुहैया कराया। इस ब्लेड से हाफ मैराथन दौड़ने वाले वह पहले भारतीय बने। अपने हौसले की बदौलत उन्हें 'भारत का ब्लेड रनर' कहा गया। 

3. फ्लाइंग अफसर एम.पी. अनिल कुमार
फ्लाइंग अफसर एम.पी. अनिल कुमार भारतीय वायुसेना में मिग 21 के पायलट थे। 1988 में 24 साल की उम्र के दाैरान मोटरसाइकिल से हुए हादसे में उनके शरीर में गर्दन से नीचे के हिस्से को लकवा मार गया, जिसके बाद उन्हें पूरी जिंदगी व्हील चेयर पर बितानी थी। मगर उन्होंने इससे लड़ने का फैसला किया। उन्होंने नई ज़िन्दगी मीडिया में कमेंटेटर के तौर पर शुरू की। मुंह में पेंसिल रखकर वह लिखने की कोशिश करने लगे। उनका पहला निबंध एयरबॉर्न टू चेयरबॉर्न था, जिसे काफी सराहा गया। 26 साल वीलचेयर पर बिताने के बाद अनिल कुमार का 2014 में निधन हो गया। 


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