भारतीय संस्कृति के पुरोधा ऋषि अगस्त्यार

punjabkesari.in Friday, Feb 14, 2025 - 08:20 AM (IST)

भारतीय संस्कृति के पुरोधा ऋषि अगस्त्यार
आचार्य राघवेंद्र पी. तिवारी
कुलपति, पंजाब केटीय विश्वविद्‌यालय बठिंडा

भारतीय संस्कृति को सर्व मंगलकारी एवं नित नूतन चिर पुरातन होने का श्रेय ऋषियों, मुनियों एवं तपस्वियों को है। ऋषियों द्वारा सृजित वेद, उपनिषद, पुराण सहित अन्यान्य ज्ञान सम्पदा इसके प्रमाण हैं। श्रेष्ठ ऋषियों की सुदीर्घ परंपरा में ऋषि अगस्त्य (तमिल में अगस्तयार) का उल्लेखनीय स्थान है। उनके जीवन का मुख्य ध्येय सामाजिक जागरुकता, आध्यात्मिक चेतना का उत्कर्ष एवं धर्म और विज्ञान को समृद्ध करना था।

अगस्त्य ऋषि ने भाषा, समाज, धर्म, विज्ञान, दर्शन एवं संस्कृति को नई दिशाएं दी। हमारे ग्रंथों में वे समाज सुधारक, भाषा प्रवर्तक, वैज्ञानिक, दार्शनिक, कृषिवेत्ता, चिकित्सक एवं संस्कृति के उपासक के रूप में वर्णिल है। कथानुसार एक दिव्य कलश से अगस्त्य ऋषि का जन्म हुआ था। इसीलिए इन्हें 'कुंभज भी कहते है। उनकी पत्नी लोपामुद्रा विदुषी एवं वेदमर्मज थीं।
देश की एकता और अखंडता को पुनः परिभाषित करने में ऋषि अगस्त्य ने अतुलनीय योगदान दिया। संभवतः वे पहले ऋषि थे जिन्होंने उत्तर भारत से दक्षिण भारत का भ्रमण किया और वहाँ वेद, संस्कृत और संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। स्कंद पुराण के अनुसार शिव पार्वती के शुभ विवाह के अलौकिक दृश्य का साक्षी बनने हेतु पूरी दुनिया हिमालय में आई थी। फलस्वरूप भार की अधिकता से पृथ्वी एक ओर झुक गई थी। तब शिव के कहने पर अगस्त्य ऋषि संतुलन स्थापित करने के निमित्त काशी से दक्षिण की ओर चले गए थे।
 
तमिल भाषा एवं साहित्य के विकास में विशिष्ट योगदान हेतु अगस्त्य ऋषि की पहचान तमिल संस्कृति नायक के रूप में है। उन्हें तमिल व्याकरण, काव्यशास्त्र एवं साहित्य का जनक माना जाता है। 'अगस्त्य व्याकरणम् उनकी प्रसिद्ध रचना है, जिसमें तमिल भाषा के व्याकरण और साहित्यिक परंपराओं का उल्लेख है। उनके प्रयासों से तमिल भाषा, साहित्य, कृषि व्यवस्था एवं सिंचाई को नई पहचान मिली। इसके इतर अगस्त्य ऋषि को आयुर्वेद और चिकित्सा शास्त्र का प्रणेता भी माना जाता है। उन्होंने औषधीय पौधों एवं उनके उपयोग के ज्ञान का प्रसार भी दक्षिण भारत में किया।

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कल्याणकारी कार्यों को स्थिरता एवं गति प्रदान करने हेतु उन्होंने दक्षिण भारत में कई आश्रम स्थापित कर लोगों को वेद, आयुर्वेद और धर्मशास्त्र की शिक्षा दी। उनके प्रयासों से दक्षिण भारत में वैदिक परंपराओं की नींव पड़ी और उत्तर-दक्षिण का भेद भी मिटा। पौराणिक मान्यता के अनुसार, विंध्य पर्वत अपनी ऊंचाई बढ़ाकर सूर्य देव का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था। इस समस्या से चिंतित देवताओं ने अगस्त्य ऋषि से सहायता मांगी। अगस्त्य ऋषि ने तपोबल से विंध्य पर्वत को झुकने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पर्वत से वचन लिया कि वह तब तक झुका रहेगा जब तक वे दक्षिण से वापस न आएँ। किन्तु ऋषि दक्षिण भारत के पोथिगई पहाड़ों में स्थायी रूप से बस गए एवं उनकी प्रतीक्षा में विंध्य पर्वत आज भी झुका हुआ है। आशय है कि यदि विंध्य की ऊंचाई न कम होती तो दक्षिण एवं उत्तर भारत के मध्य मार्ग अवरुद्ध हो जाता। विंध्य पर्वत को झुकाकर अगस्त्य ऋषि ने ही यह मार्ग सुगम बनाया और दोनों क्षेत्रों के मध्यdows आपसी जुड़ाव को बढ़ावा दिया। तमिल परंपराओं में अगस्त्य को दार्शनिक और व्यावहारिक ज्ञान के दोनों पक्षों में सबसे पहला एवं महत्वपूर्ण सिद्धर यानि ज्ञान को पूरा करने एवं सिद्ध होने वाला माना जाता है।

महर्षि अगस्त्य को तमिलनाडु की भारतीय मार्शल आर्ट सिलंबम एवं विभिन्न रोगों के लिए वर्मम बिंदुओं का उपयोग करके उपचार करने हेतु प्राचीन विज्ञान बर्मम का अन्वेषक माना जाता है। इनका उपयोग केरल की एक भारतीय मार्शल आर्ट कलरीपयट्ट्र चिकित्सकों ‌द्वारा भी किया जाता है। मान्यता है कि शिव के पुत्र कार्तिकेय ने अगस्त्य ऋषि को वर्मम सिखाया था, जिन्होंने फिर इप्स पर गंध लिखे एवं अन्य सिद्धी को दिया। भारतीय आट्य ऋषि परंपरा में अगस्त्य ऋषि ऐसे महान तपस्वी के रूप में उल्लिखित है जिन्होंने संस्कृत एवं तमिल दोनों भाषाओं को अपनी जान मीमांसा से समृद्ध करते हुए लोकप्रिय बनाया। उन्होंने इन दोनों प्राचीन भाषाओं के एकीकरण एवं सद‌भावना में महनीय योगदान दिया।
उनके दवारा रचित 'अगस्त्य संहिता में वर्णित विज्ञान वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित करता है। इसमें यंत्र निर्माण, विद्युत उत्पादन एवं अन्य तकनीकी विधियों का उल्लेख है। इसमें एक "जल बैटरी" का वर्णन मिलता है, जिसमें लांबा एवं जस्ता धातु का उपयोग कर विद्युत उत्पादन की विधि दी गई है, जो प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उन्नति को दर्शाता है। इसलिए अगस्त्य ऋषि की बैटरी बोन' भी कहते हैं। महर्षि अगस्त्य ने गुब्बारों को आकाश में उड़ाना और विमान संचालित करने की तकनीकी का भी उल्लेख किया है। वे पानी के विखंडन की विधि से भी सुपरिचित थे। उनके विषय में ऐसी जनश्रुति है कि वे अपनी मंत्र शक्ति से सारे समुद्र का जल पी गए थे।

जल-जंगल-जमीन के संरक्षण में अगस्त्य ऋषि प्राचीन काल में ही कार्य कर रहे थे। अगस्त्य ऋषि ने प्रकृति संरक्षण एवं औषधीय पौधों के उपयोग का संदेश दिया। उनके कार्यों की स्मृतियों को सजोने के लिए दक्षिण भारत के प्रसिद्ध पर्वतीय क्षेत्र को 'अगस्त्य माला' कहा जाता है। दक्षिण भारत में यह भी मान्यता है कि उन्होंने दद्वारका से अठारह वेलिर जनजातियों के दक्षिण की ओर प्रस्थान का नेतृत्व भी किया था।

तात्पर्य है कि उत्तर भारत में वैदिक परंपरा एवं संस्कृत के प्रचार-प्रसार एवं दक्षिणी भारत में सिंचाई, कृषि, स्वाध्य, विज्ञान एवं तमिल आषा के संवर्धन में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। उन्होंने धार्मिक जान को विज्ञान, भाषा एवं संस्कृति के साथ जोड़कर विशेषतः दक्षिणी समाज को नई दशा-दिशा दी। सांस्कृतिक संबंधों को पुनर्स्थापित कर दो क्षेों के मध्य काल्पनिक दूरी को मिटाने की शिक्षा हमें उनसे मिलती है। वे भारतीय संस्कृति की ऐसी अमूल्य धरोहर है, जिनके व्यक्तिव एवं कर्तृत्व से हमें राष्ट्रीय एकता तथा मानव कल्याणार्थ कृतसंकल्पित होकर सद्‌कार्य करने की प्रेरणा सदैव मिलती रहेगी। काशी-तमिल संगमम के तृतीय संस्करण में अगस्त्य ऋषि के दक्षिण भारत में चिकित्सा, दर्शन, भाषाई एवं सांस्कृतिक योगदान को केन्द्रीय भूमिका में रखने का भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय का निर्णय अत्यंत प्रासंगिक है।


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Content Writer

Anu Malhotra

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