नजरिया: मजबूरी का नाम चंद्रबाबू-गांधी !

punjabkesari.in Friday, Nov 02, 2018 - 05:44 PM (IST)

नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा):  कहावत है कि दुर्गम राहों के पथिक आपस में दोस्त होते हैं। बिना किसी शक के यह दोस्ती महत्वाकांक्षाओं की नहीं, बल्कि मजबूरी की होती है, क्योंकि ऐसी राह पर किसी में भी आगे जाने की होड़ या लालसा के बजाए पीछे छूट जाने का डर ज्यादा हावी रहता है। चंद्रबाबू नायडू को राज्य के बाद अब अपने सियासी रसूख के अपभ्रंश का डर सता रहा है, तो 130 साल से अधिक पुरानी कांग्रेस के सामने लोकसभा में चालीस से ऊपर उठने की चुनौती है। और यही कारण है कि कांग्रेस को जहां भी जिसमें भी जरा-सी उम्मीद नज़र आती है, वो उसका चालीसा पढ़ना शुरू कर देती है। चंद्रबाबू नायडू से उसकी दोस्ती की नींव तो लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान ही पड़ गई थी। जब टीडीपी ने अविश्वास प्रस्ताव लाया था तो सबसे ज्यादा उत्साह और मुखरता कांग्रेस ने ही दिखाई थी। सोनिया गांधी का नंबर गेम वाला बयन तो आपको स्मरण ही होगा। खैर, लब्बोलुआब यह कि इस दोस्ती से ज्यादा अचंभित होने की फिलवक्त जरूरत नहीं है। यह विशुद्ध रूप से वक़्ती दोस्ती है। 

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चंद्रबाबू नायडू टीआरएस और चन्द्रशेखर राव की बढ़ती लोकप्रियता से चिंतित हैं। राव राज्य ले जाने के बाद अब आंध्र प्रदेश में भी घुसपैठ की पूरी योजना पाले हुए हैं। वैसे भी चंद्रशेखर राव एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिनका काफिला समय गुजरने के साथ-साथ बढ़ता ही गया है। वे जीतकर जब आए थे तो 65 पर थे और अब जब चुनाव में उतरे हैं तो 119 में से उनके पास 90 सीटें हैं। हालांकि, कांग्रेस वहां दूसरे नंबर पर है, लेकिन अब राव रही-सही कसर पूरी करने के मूड में हैं। यही वजह है कि उन्होंने समय पूर्व विधानसभा भंग कराकर चुनाव में जाने का फैसला लिया है। शेष चुनावी नतीजे बताएंगे। उधर, आंध्र प्रदेश में 125 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस शून्य पर है। 25 लोकसभा सीटों में से टीडीपी के पास 16 हैं। ऐसे में, चंद्रबाबू जहां अपना गढ़ बचाने की मजबूरी में कांग्रेस की तरफ आए हैं, वहीं कांग्रेस की नीति साफ़ है कि कुछ नहीं से कुछ बेहतर।  

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असली गेम प्लेयर तो ये हैं 
इस सारे मामले में जो लोग अभी भी नेपथ्य में हैं, वे हैं एनसीपी और एनसी के सुप्रीमो। शरद पवार और उमर अब्दुल्ला ही वो खिलाड़ी हैं, जो चंद्रबाबू को कांग्रेस के पाले में लाए हैं। राहुल और नायडू की मुलाकात से पहले दोनों ने चंद्रबाबू को साथ लेकर साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। दिलचस्प ढंग से यहां भी उनकी निजी मजबूरियां उन्हें ऐसा करने को मजबूर किए हुए हैं, अलबत्ता आपको याद ही होगा की पवार तो मोदी के खिलाफ नहीं बोलते थे। तब तक जब तक उन्हें शिवसेना और बीजेपी की दोस्ती टूटने की आस थी। उनकी नीति यही थी कि शिवसेना से गठबंधन टूटते ही बीजेपी को लपक लिया जाए, ताकि महाराष्ट्र में उनका बरसों का सियासी सूखा समाप्त हो। ऐसा जब नहीं हुआ, तब पवार ने पलटी मारी। वे भी महाराष्ट्र में कांग्रेस के वोट शेयर के सहारे आगे बढ़ने के जुगाड़ में हैं।
 

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उधर, एनडीए और यूपीए सरकारों में मलाई खाने वाले अब्दुल्ला परिवार की जम्मू-कश्मीर के ताज़ा सियासी समीकरणों ने सांसें रोक दी हैं। पंचायती राज चुनावों में हालांकि एनसी ने हिस्सा नहीं लिया, लेकिन इन्हीं चुनावों में कांग्रेस को मिले समर्थन से उसे परेशानी हुई है। बीजेपी कोई भाव नहीं देगी, इसलिए समय के संकेत भांप अब अब्दुल्ला परिवार भी कांग्रेस से गांठ बांधने को आतुर हैं। लेकिन यह सब सुविधाओं का विवाह मात्र है। अभी इस मामले में कई मोड़ आएंगे। और फिर शारद पवार के उस बयान को कैसे भूला जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि महागठबंधन  को 1977 की तरह बिना किसी नेता के आगे बढ़ना चाहिए। क्या बढ़ पायेगा ? ये तो वक्त बताएगा, फिलवक्त स्थितियां वही हैं... राम मिलाए जोड़ी। इक अंधा दूजा कोढ़ी। 
 


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Anil dev

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