मांस की बिक्री पर पाबंदी का उद्देश्य भाजपा के ‘राजनीतिक एजैंडे’ को आगे बढ़ाना

punjabkesari.in Thursday, Oct 08, 2015 - 12:22 AM (IST)

(अरुण श्रीवास्तव): आखिर बिल्ली बोरे से बाहर आ ही गई। मोदी सरकार भारत के सैकुलर चरित्र को बदलने और इसे हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित करने के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के एजैंडे को साकार कर रही है। आर.एस.एस. जल्दी में है लेकिन साथ ही किसी को इस हड़बड़ी का आभास नहीं होने देना चाहता। यह काफी फूंक-फूक कर कदम रख रहा है। 
 
यह इस तथ्य से वाकिफ है कि अपने एजैंडे को तेजी से आगे बढ़ाने के फलस्वरूप भारत की विशाल जनता (जोकि यदि सैकुलर नहीं तो मूल रूप में मध्यमार्गी प्रवृत्ति वाली है।) इससे दूर हट जाएगी जिसके फलस्वरूप न केवल मोदी सरकार का काम-काज अवरुद्ध होगा बल्कि 2019 में इसके दोबारा सत्तासीन होने की संभावनाएं भी आहत होंगी। आर.एस.एस. का एजैंडा पूरा करने के लिए भाजपा का सत्ता में रहना और सावधानी व दृढ़ता से काम करते रहना जरूरी है। 
 
शिक्षा की हिंदू प्रणाली के प्रस्तुतिकरण से जो प्रक्रिया शुरू हुई थी वह काफी फासला तय कर चुकी है। 8 भाजपा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को गौमांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का सपना अचानक ही नहीं आ गया। इन प्रदेशों की सरकारों ने पशुओं के प्रति दयाभाव व्यक्त करने तथा अहिंसा के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में लागू करने के बहाने यह प्रतिबंध लागू करने का प्रयोग किया है। 
 
भाजपा की महाराष्ट्र सरकार ने गौमांस की बिक्री प्रतिबंधित करके इस मामले में पहल की थी। किसी प्रकार के सार्वजनिक विवाद से बचने के लिए इसने इस प्रतिबंध के बहाने अन्य जानवरों के मांस की बिक्री पर भी रोक लगाने की चालाकी खेली। इस बात में अब तनिक भी संदेह नहीं रहा कि इस सरकार के तर्क दुराग्रहपूर्ण हैं।  
 
भाजपा सरकार की असल नीयत को समझना होगा : यह भारत के सैकुलर चरित्र को बदलने की दिशा में पहला बड़ा कदम है और साथ ही सरकार की मंशा का एक तरह से घोषणापत्र भी। असल में यह कदम इस तरह से उठाया गया है जिससे हिंदू मत को छोड़कर अन्य सभी मजहबों के प्रति गहरे असम्मान की भावना को प्रोत्साहन मिले। 
 
मुम्बई में कई दशकों से मांस की बिक्री होती आई है। श्री तपगढिय़ा आत्मा कमल लब्धिसूरीश्वर जी ज्ञानमंदिर ट्रस्ट तो मांस की बिक्री पर पाबंदी लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गया था। शीर्षस्थ अदालत ने पर्युषण उत्सव के दौरान मुम्बई में जानवरों की हत्या और मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की राज्य सरकार की अधिसूचना पर बाम्बे हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से इन्कार कर दिया। अपनी रूलिंग में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मांस पर पाबंदियां दूसरों के मुंह में जबरदस्ती नहीं ठूंसी जा सकतीं। याचिका को रद्द करते हुए न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर और कुरियन जोसेफ की खंडपीठ ने कहा कि ‘‘जीवों पर दया भाव कोई ऐसी चीज नहीं जो केवल उत्सव के दिनों में ही अपनाई जानी चाहिए।’’
 
न्यायमूर्ति ठाकुर ने चुटकी लेते हुए कहा : ‘‘भक्त कबीर ने कहा है-‘कबीरा तेरी झोंपड़ी गल कटियन के पास, करनगे सो भरनगे तू क्यों भयो उदास।’...यानी कि अन्य समुदायों के प्रति भी सहिष्णुता और संवेदना की भावना किसी न किसी हद तक होनी ही चाहिए। अहिंसा का भाव जगाने का तरीका यह नहीं कि मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। अहिंसा लोगों पर जबरदस्ती लादी नहीं जा सकती ...’’ 
 
आर.एस.एस. नेतृत्व जानता है कि व्यक्तिगत आजादी का गला घोंटकर सैकुलरवाद की वास्तविक भावना को सदा के लिए समाप्त नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद आर.एस.एस. ने गौरक्षा के लिए अलग से एक निकाय गठित किया है। यह बात अब किसी से छिपी हुई नहीं कि भाजपा शासित राज्य मांस पर प्रतिबंध लगाने के बहाने खोजते रहते हैं।  
 
महाराष्ट्र में सरकार ने गौमांस पर पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है। सभी प्रकार के मांस की बिक्री पर प्रतिबंध को इसलिए हिंदुत्व एजैंडे के विस्तार के रूप में ही देखा जाना चाहिए। गौमांस और अन्य प्रकार के मांस पर प्रतिबंध मुस्लिमों को सीधी चेतावनी है। अतीत में हुई दंगों की घटनाओं का चीर-फाड़ करने से पता चलेगा कि राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए हुए इन हिंसक टकरावों की जड़ में गौ-हत्या का मुद्दा ही था। 
 
सैकुलर विचारधारा अपना चुके देश में साम्प्रदायिक दंगों का होना न केवल एक घृणित बात है बल्कि ङ्क्षचता का विषय भी है। ऐसे दंगे होते हैं तो सैकुलर शक्तियों पर यह दोष लगेगा कि वे लोगों के अंदर सैकुलर जीवन मूल्यों को प्रफुल्लित नहीं कर पाए हैं। स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आर.एस.एस. से दिशा-निर्देश मिलते हैं। अल्पसंख्यक लगातार भय में दिन काट रहे हैं। मोदी सरकार ने देश की सामाजिक व सांस्कृतिक मर्यादाओं व जीवन शैली को बहुत-सा नुक्सान पहुंचाया है। 
 
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने देश के जीवन मूल्यों से छेड़छाड़ करने का प्रयास नहीं किया था। यही मुख्य कारण था कि आर.एस.एस. वाजपेयी और उनकी सरकार का दुश्मन बन गया। बेशक वाजपेयी भी कभी आर.एस.एस. के प्रचारक हुआ करते थे लेकिन इस तथ्य के प्रति सजग थे कि भारत की अनेकता में ही इसकी शक्ति समाई हुई है और किसी भी एक मजहब को बढ़ावा देने से देश की आत्मा बर्बाद हो जाएगी। दुर्भाग्यवश मोदी अभी भी आर.एस.एस. के जीवन दर्शन से खुद को नत्थी किए हुए हैं। 
 
मोदी सरकार के सत्तासीन होते ही आर.एस.एस. ने परिस्थितियों की टोह लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। दीनानाथ बत्तरा को शिक्षा सुधारक के रूप में प्रस्तुत करना आर.एस.एस. का एक महत्वाकांक्षी कदम था। वह संघ से सम्बद्ध ‘शिक्षा बचाओ अभियान समिति’ तथा ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ का नेतृत्व करते रहे हैं। 
 
सैकुलर शक्तियों के उस समय तो हाथों के तोते ही उड़ गए जब बत्तरा विश्व के सबसे बड़े प्रकाशक ‘पैंग्विन’ को मजबूर करके वैंडी डोनिजर की विद्वतापूर्ण पुस्तक ‘द हिंदूज : एन आल्टर्नेटिव हिस्ट्री’ को न केवल बाजार से वापस लेने बल्कि सभी पुस्तकों का मशीन से कचरा करवाने में सफल हो गए। 
 
सैकुलर शक्तियों के विरुद्ध बत्तरा का अभियान यहीं पर समाप्त नहीं हुआ बल्कि उन्होंने पूर्णकालिक लेखक का रूप धारण कर लिया और शिक्षा के संबंध में आर.एस.एस. के विचारों को प्रतिपादित करते हुए 9 पुस्तकों का एक सैट तैयार कर दिया। वरिष्ठ भाजपा नेता वेंकैया नायडू ने तो मोदी सरकार के सत्तासीन होने से बहुत पहले 23 जून 2013 को ही कह दिया था कि ‘‘सत्ता में आने पर भाजपा पाठ्य पुस्तकों का विषय-वस्तु बदल देगी।’’ इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए बत्तरा ने कहा : ‘‘देश की जरूरतों के अनुरूप राष्ट्रवादी शिक्षा पद्धति को विकसित करना और इसके माध्यम से ऐसी युवा पीढ़ी का विकास करना जरूरी है जो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के लिए प्रतिबद्ध हो।’’
 
जहां मोदी सरकार ने शिक्षा जैसे अति महत्वपूर्ण क्षेत्र के वित्त पोषण में निरंकुशता से कटौती की है, वहीं इसका सम्पूर्ण रवैया शैक्षणिक संस्थाओं की स्वायतत्ता, रचनाशीलता व अनेकता के काफी विपरीत है। मोदी सरकार के गत डेढ़ वर्ष के शासन दौरान सरकार के लिए शिक्षा प्रणाली एक ऐसे प्राणी जैसी बनकर रह गई है जिस पर नए-नए प्रयोग किए जाते हैं।
 
शिक्षा के प्रति मोदी सरकार की उदासीनता इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि इसने उच्च शिक्षा के संकट के प्रति कोई उचित नीति नहीं अपनाई है। यहां तक कि केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में दे दिया गया है जिसके पास मूलभूत योग्यता भी नहीं है और जो शिक्षा क्षेत्र में नवीनतम घटनाक्रमों से अनभिज्ञ है। सितम की बात यह है कि शिक्षा के प्रति न्यूनतम सम्मान की भावना व्यक्त करने वाला संघ परिवार आधुनिक शिक्षा का राग अलापता है।           
 

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