अाखिर कब तक ''अन'' का ''दाता'' होता रहेगा कुर्बान

punjabkesari.in Friday, Apr 24, 2015 - 03:53 PM (IST)

नई दिल्लीः इसे कहानी कहें, व्यथा कहें, या त्रासदी, मगर शब्दों के हेर-फेर से कोई हकीकत तो बदलेगी नहीं। भारतवर्ष जिसे कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था, और जिसे  कृषिप्रधान देश का दर्जा प्राप्त था, उसी भारत में आज किसान  आत्महत्या करने को विवश हैं। 

कभी कर्ज तो कभी फसलों पर मार,हमी क्यों होते हैं शिकार। ये हाल है अन्नदाता कहे जानें वाले किसान का । कुदरत की मार तो उन्हें मार ही रही है लेकिन अब राजनीति की अाग भी उन्हें अपनी चपेट में लेने से बाज नहीं अा रही। उन्हें मुअावजा तो दूर की बात मौत के बाद परिवार का जो हाल होता है वो सुर्खियां बन कर रह जाता है।

हाल ही में गजेंद्र नामक किसान की रैली दौरान की गई अात्माहत्या की कहानी राजनीतिक मुद्दा बन गया है जिसकी अाग में सभी पार्टियां रोटियां सेकने में लगी हैं। कभी मोदी तो कभी केजरीवाल सरकार के नेता अपने बयानों से पब्लिसिटी हासिल करने में जुटे हैं।

ज्ञात हो भारत में 1990 के बाद किसान आत्महत्या की स्थिति  पैदा हुई जिसमें प्रतिवर्ष दस हजार से अधिक किसानों  द्वारा आत्महत्या की रिपोर्ट दर्ज की जाती है। 1997 से 2006 के बीच 1,66,304 किसान आत्महत्या कर चुके है। भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याअों का मुख्य कारण माना जाता रहा है।

मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएं की है। 

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2012 में 13,754 किसानों ने आत्महत्या की  ।  सबसे अधिक संख्या  2004 में  ये अाकड़ां यानि18,241 किसानों ने आत्महत्या का दर्ज किया गया।  

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, 46 किसान भारत में हर दिन आत्महत्या करते है। 1995  से 2013 तक 296,438 किसानों ने अात्महत्या की है।


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