आज बावा लाल दयाल जी की जयंती: हिन्दू और मुसलमान हैं उनके मुरीद

punjabkesari.in Wednesday, Feb 10, 2016 - 08:11 AM (IST)

भारत भर में तमाम वैष्णव पूज्य स्थानों में दरबार ध्यानपुर का विशेष पूज्य स्थान माना जाता है। न केवल हिन्दुओं अपितु अफगानिस्तान के मुसलमान पठानों में भी यह पूर्ण आदर भाव पाता रहा है। अंग्रेज शासकों की कूटनीति के कारण देश के बंटवारे के परिणामस्वरूप आज हिन्दू और मुसलमान आपस में उलझ रहे हैं। आज से 660 वर्ष पूर्व हालांकि वैष्णव हिन्दू संत बावा लाल दयाल जी महाराज तथा अन्य कई महापुरुषों ने लगातार एकता के लिए प्रयत्न जारी रखे जिनमें उस समय के मुस्लिम हुक्मरानों ने भी अपना योगदान दिया है। इसमें विशेष कर ताजमहल के निर्माता मुगल शहंशाह शाहजहां और उसके बड़े बेटे राजकुमार दारा शिकोह पेश रहे। दारा शिकोह ने अपनी पुस्तक हसनत-उल-आरिफिन में लिखा है कि बावा लाल जी एक महान योगी हैं। इनके समान प्रभावशाली और उच्च कोटि का कोई महात्मा हिन्दुओं में मैंने नहीं देखा है। 
 
 
जीवन चरित्र 
विक्रमी सम्वत 1412 सन 1356 माघ शुक्ला द्वितीया सोमवार को पिता भोला राम कुलीन क्षत्री और माता कृष्ण देवी जी के घर बावा लाल दयाल जी ने जन्म लिया। आठ वर्ष की आयु में ही धर्म ग्रंथ पढ़ डाले। पिता जी ने उन्हें अपनी गाय और भैंस चराने के लिए जंगल में भेजा। नदी किनारे एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। इतने में साधुओं का एक झुंड उधर आ निकला और उनके प्रमुख संत ने देखा कि कड़कती धूप में भी वृक्ष की छाया में कोई अंतर नहीं पड़ा जबकि दूसरे वृक्षों की छाया अपने स्थान से दूर हो गई है। उनके और निकट आने पर उन्होंने देखा कि बालक के सिर पर शेष नाग ने छाया कर रखी है, इतने में बालक ने उठ कर बड़े महात्मा जी को प्रणाम किया जिनका नाम चैतन्य स्वामी था। उन्होंने बावा लाल को कहा कि बेटा हरिओम तत सत ब्रह्म सच्चिदानंद कहो’ और भक्ति में हर समय मग्न रहो।
 
 
इतने में एक शिष्य ने कहा कि सबको भूख सता रही है। इस पर स्वामी चैतन्य जी ने कुछ चावल ले कर मिट्टी के बर्तन में डाले और अपने पांवों का चूल्हा बना कर योग अग्नि से उन्हें पकाया। पल भर में चावल बन गए और सबने खाए। बाद में हांडी को फोड़ दिया और तीन दाने बावा लाल दयाल को भी दिए जिससे उनकी अंतदृष्टि खुल गई और घर आकर माता-पिता से स्वामी चैतन्य जी को अपना गुरु बनाने की अनुमति लेकर उनकी मंडली में शामिल हो गए। 
 
 
कुछ समय उन्हें अपने साथ रखने के बाद उन्होंने बावा लाल जी को स्वतंत्र रूप से भ्रमण की आज्ञा दे दी और उन्होंने धर्म प्रचार जोर-शोर से शुरू कर दिया जिससे दिल्ली, नेपाल, यू.पी.सी.पी. पंजाब में आपके प्रति लोगों का श्रद्धा भाव बढ़ा, इतना ही नहीं काबुल के बहुत से पठानों ने अपना गुरु माना है। सिंध में भी बहुत से मुसलमानों ने उन्हें अपना पीर माना है और उन्होंने उनकी कब्र भी बना रखी है।
 
 
बावा लाल जी लाहौर से हरिद्वार पहुंचे। गंगा किनारे हिमालय में कई वर्षों तक रह कर तपस्या करने के पश्चात वह गांव सहारनपुर आ गए और उन्होंने गांव के उत्तर की ओर एक गुफा में तप करना प्रारंभ कर दिया। एक बार वह जंगल में घूम रहे थे कि उन्हें प्यास लगी मगर आसपास पानी न होने से एक गाय चराने वाले लड़के से एक बिना बछड़े वाली गाय से ही दूध निकाल कर अपनी प्यास बुझा ली तो इस चमत्कार की खबर सारे क्षेत्र में फैल गई। इनके आश्रम में हिन्दू और मुसलमान आ आकर जब अपनी मनोकामनाएं पूरी करने लगे तो उनके विरोधियों ने सूबेदार खिजर खां के कान भरे कि एक काफिर जादू टोने करके लोगों को गुमराह कर रहा है और भारी तादाद में मुसलमान भी उसके शिष्य बन गए हैं। उनमें एक प्रमुख मुसलमान फकीर हाजी कमल शाह का मकबरा आज भी आश्रम में है। 
 
 
खिजर खां की भेंट : एक दिन खुद खिजर खां बावा लाल से मिलने पहुंच गया। तब बावा लाल जी ने कहा ‘‘लाल हिन्दू दावा वेद का तुर्क किताबे कुरान।
                               दोनों दावे बांधिया भुले आत्म ज्ञान।
                         लाल इक्को राम रहीम करीमा झूठी झगड़े बाजी 
                          इक्का साहिब में तो दावो झूठे मुल्लां काजी।।
 
खिजर खां भी बावा लाल का शिष्य बन गया। लंगर सेवा हेतु 100 बीघा जमीन आश्रम के नाम कर दी। दूसरे खर्चों के लिए आठ गांवों का राजस्व भी लगा दिया।
 
 
ध्यानपुर में आगमन 
सहारनपुर में बावा लाल जी 100 वर्ष तक रहने के बाद सम्वत् 1552 में कलानौर (पंजाब) में आ गए और वहां की करूणा नदी के जल में स्थित होकर तपस्या करने लगे। वहां कायाकल्प करके 16 वर्ष के हो गए। तब अपने चेले ध्यान दास द्वारा निर्मित कुटिया में रहने लगे जो एक ऊंचे टीले पर थी। बाद में उसका नाम ध्यानपुर पड़ गया।  बाद में बावा लाल जी ने अपने 22 चेलों को साथ लेकर देश-विदेश में अपनी 22 गद्दियों की स्थापना की।
 
 
बावा लाल जी और दारा शिकोह 
वि.सम्वत 1704 में लाहौर में जाफिर खां सादिक के बाग में दारा शिकोह और बावा लाल जी की भेंट हुई। दोनों में आध्यात्मिक चर्चा हुई जिसमें मीयां मीर और मियां कुठाला भी शामिल होते रहे जो अन्य आधा दर्जन स्थानों पर भी जारी रही जिससे प्रभावित होकर दारा शिकोह उनका चेला बन गया और बोल उठा : 
ढूंढत दारा शाह जो पाया सत्गुरु लाल।
दीपक मिल दीपक भयो योगी राज के नाल।।
 
बावा लाल जी योग बल से 300 वर्ष तक जीवित रह कर धर्म प्रचार करते रहे। अंत में ध्यानपुर में यह कह कर कि देह तो नश्वर है। कार्तिक शुक्ल  दशमी विक्रम सम्वत् 1712 को ब्रह्मलीन हो गए। इन दिनों ध्यानपुर में महंत शाम सुंदर दास जी, अमृतसर में महंत अनंत दास जी तथा दातारपुर में महंत रमेश दास जी गद्दीनशीन हैं। वैसे आजकल देश भर में सैंकड़ों मंदिर बावा लाल दयाल जी के बन चुके हैं।
 

—के.एल. कमलेश, अमृतसर  


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