घिचपिच: 90 के दशक की भावनात्मक गहराइयों में डूबी एक पीढ़ी की कहानी
punjabkesari.in Tuesday, Aug 12, 2025 - 04:29 PM (IST)

नई दिल्ली/टीम डिजिटल। 'घिचपिच' एक संवेदनशील और भावनात्मक हिंदी फिल्म है जो पिता-पुत्र के जटिल रिश्ते, परंपरा और विद्रोह के टकराव को बेहद दिलचस्प अंदाज में दर्शाती है। अंकुर सिंघला द्वारा लिखित और निर्देशित इस फिल्म की कहानी 90 के दशक के चंडीगढ़ में बसी है जहां तीन दोस्तों की ज़िंदगी और उनके अपने-अपने पिता के साथ संबंधों की उलझनें सामने आती हैं। नितेश पांडे, सत्यजीत शर्मा, गीता अग्रवाल शर्मा, शिवम कक्कड़, आर्यन सिंह राणा और कबीर नंदा जैसे कलाकार मुख्य किरदार में नजर आ रहे हैं। 8 अगस्त को रिलीज हुई 'घिचपिच' एक दिल छू लेने वाली कहानी है, जो हर पीढ़ी को अपने तरीके से जोड़ती है। फिल्म के बारे में स्टारकास्ट शिवम कक्कड़ और आर्यन सिंह राणा ने पंजाब केसरी, नवोदय टाइम्स, जगबाणी और हिंद समाचार से खास बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश
शिवम कक्कड़
सवाल 1- आपकी फिल्म ‘घिचपिच’ की दुनिया कितनी अलग है और दर्शक इससे क्या उम्मीद रखें?
जवाब- घिचपिच एक ऐसी फिल्म है जो 2001 के दौर की पृष्ठभूमि पर आधारित है, यानी वो समय जब सोशल मीडिया नहीं था और जिंदगी कहीं ज्यादा सीधी-सादी, लेकिन भावनात्मक रूप से गहराई से भरी होती थी। फिल्म में उस समय का माहौल बेहद खूबसूरती से रिक्रिएट किया गया है चाहे वो लैंडलाइन फोन पर बातचीत हो, दरवाज़े से दोस्तों को आवाज़ देकर बुलाना हो, या बर्थडे पार्टी में दो लीटर की बोतल से सबको ग्लास में पेप्सी देना। चंडीगढ़ में सेट इस फिल्म में उस शहर के ऐसे हिस्से को दिखाया गया है जिसे अब तक बॉलीवुड ने छुआ नहीं है। कहानी तीन 17 साल के लड़कों की है जो बारहवीं कक्षा में पढ़ रहे हैं और अपने-अपने पिता के साथ भावनात्मक संघर्ष से गुजर रहे हैं एक पर करियर बनाने का दबाव है, दूसरा पिता से बहुत प्रेम करता है लेकिन कुछ घटनाओं के चलते उनसे रुष्ट हो जाता है और तीसरे की अपने पिता से एक अधूरी मांग है जिससे वह भीतर ही भीतर टूट रहा है। इन तीनों की जिंदगियों की उलझनें जब आपस में टकराती हैं, तो जो भावनात्मक हलचल पैदा होती है, वही इस फिल्म की असली ‘घिचपिच’ है।
सवाल 2- फिल्म में कास्टिंग का प्रोसेस क्या होता है? आप अपने अनुभव के बारे में बताइए।
जवाब- फिल्म घिचपिच के लिए मेरा सिलेक्शन किसी सीधी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं था, बल्कि सात राउंड के इंटेंस ऑडिशन और महीनों की मेहनत का नतीजा था। पहले मुझे एक छोटा-सा स्क्रिप्ट पार्ट देकर ऑडिशन के लिए बुलाया गया फिर एक के बाद एक करके कई राउंड हुए पहले अकेले, फिर शिवम के साथ, फिर मेरे भाई के साथ और फिर मुझे किसी और कैरेक्टर का रोल प्ले करने को कहा गया। एक स्टेज पर तीनों फाइनल कैरेक्टर को साथ बैठाकर सिर्फ देखा गया कि कैमरे पर हम कैसे लगते हैं। पांचवे ऑडिशन के बाद मुझे लगा कि ये इंडिपेंडेंट फिल्म है या कोई बड़ी मेनस्ट्रीम फिल्म, क्योंकि इतनी गहराई से कोई आमतौर पर नहीं जांचता। छठे राउंड में हमें एक गाड़ी वाला सीन प्ले करना था जो शाम 4 बजे शुरू होकर अगली सुबह 4 बजे खत्म हुआ और उसके बाद भी कोई कन्फर्मेशन नहीं मिला। सातवें राउंड के बाद जाकर सिलेक्शन हुआ लेकिन तब भी कास्टिंग और फाइनेंस को लेकर कुछ रुकावटें थीं। इस बीच मुझ पर यह दबाव भी आया कि अगर मैं बेहतर परफॉर्म नहीं करूंगा तो मुझे रिप्लेस किया जा सकता है। लेकिन निर्देशक ने मुझ पर भरोसा बनाए रखा और मुझे एक और मौका दिया। मैंने फिर से ऑडिशन दिया और वह खुश हुए। इस तरह तीन महीने की लगातार कोशिशों के बाद मुझे घिचपिच मिली।
सवाल 3- फिल्म में 2001 के दौर को दिखाया गया है, जहां कई चीजें आज के समय से बिल्कुल अलग थीं। ऐसे कौन-कौन से मोमेंट्स थे जिन्हें जीकर लगा कि काश ये चीजें आज भी होतीं?
जवाब- उस दौर को रीक्रिएट करते हुए एक्टर्स के लिए एक जबरदस्त नोस्टाल्जिया का अनुभव था। मिस्ड कॉल देना, लैंडलाइन पर बात करना, या दोस्तों के साथ गेड़ी पर निकल जाना ये सब चीजें आज की तेज और टेक्नोलॉजी-ड्रिवन लाइफ में कहीं खो सी गई हैं। एक सीन में पापा की गाड़ी चुरा कर ट्रिप पर जाना दिखाया गया है जो आज के समय में शायद इतनी आसानी से नहीं होता। वहीं वीसीआर (VCR) का ज़िक्र करते हुए याद दिलाया गया कि कैसे शादियों की रिकॉर्डिंग देखकर पूरा परिवार एक साथ बैठता था जो आज डिजिटल एल्बम्स और रील्स में सिमट गया है। तब सुबह-सुबह बिना व्हाट्सएप मैसेज के क्रिकेट खेलने पहुंच जाना आम बात थी अब ग्रुप मैसेज डालो तो भी प्लान कैंसिल हो जाता है। पहले तो बच्चों को बुलाने के लिए पड़ोसी की घंटी बजा दी जाती थी और उसकी मां भी अपनापन महसूस करते हुए डांट देती थी लेकिन आज ऐसा नहीं है। इन सारी बातों ने सिर्फ स्क्रीन पर ही नहीं बल्कि कलाकारों के मन में भी उस दौर का अपनापन फिर से जिंदा कर दिया।
सवाल 4- आपने शूटिंग के दौरान गीता जी का एक किस्सा सुनाया जिसमें वो तेज बुखार में भी शूट पर आईं। उस अनुभव ने आपको व्यक्तिगत रूप से क्या सिखाया?
जवाब- ये घटना मेरे लिए बहुत बड़ा टर्निंग पॉइंट थी। मार्च की दोपहर थी, दो या बारह बजे के करीब का समय था और उस दिन का शूट किसी पैचवर्क सीन के लिए था। गीता मैम को 104 डिग्री फीवर था, फिर भी वो गाड़ी में लेटकर सेट पर आईं। मैंने खुद उनसे पूछा कि एक दिन रुक जाती तो क्या फर्क पड़ता, इतनी क्या ज़रूरत थी? लेकिन उनका जवाब नहीं था उनका जज़्बा था कि पूरा सेट लगा है इतने लोग मौजूद हैं और शूट कैंसिल नहीं हो सकता। उन्होंने पार्क की एक बेंच पर लेटकर पट्टी बांधकर शॉटगन के ज़रिए शूट किया और तब तक नहीं रुकीं जब तक टेक परफेक्ट नहीं हो गया करीब आठ-दस बार टेक दिए। उस दिन मैंने सीखा कि जब आपका पैशन इतना गहरा हो तो कोई भी शारीरिक तकलीफ या कोई भी मुश्किल मायने नहीं रखती। मैं खुद थोड़ा-सा चीज़ों को हल्के में लेने वाला इंसान रहा हूं, लेकिन घिचपिच के बाद मेरा नज़रिया पूरी तरह बदल गया है। अब मैं हर प्रोजेक्ट में वही इनपुट दूंगा जो मैंने गीता मैम से सीखा है। एक और सीन था जो 11 बजे शुरू होना था और प्लान था कि 1 बजे तक पैकअप हो जाएगा, लेकिन वो सीन सुबह के साढ़े पांच तक चला सिर्फ इसलिए कि परफेक्शन मिले। इन सबके अलावा हमारे डायरेक्टर जो आज भी इस फिल्म के लिए काम कर रहे हैं तो मैंने उनसे बी सीखा कि किसी चीज में खुद को इतना घुसा लो कि लगे कि आप उसमें समा गए हो।
आर्यन सिंह राणा
सवाल 5- फिल्म ‘घिचपिच’ से आपका जुड़ाव कैसे हुआ? क्या आप पहले से एक्टिंग कर रहे थे या यह आपका पहला अनुभव था?
जवाब- जब ये फिल्म मेरे पास आई, तब मैं कॉलेज में था STW खालसा कॉलेज में इकोनॉमिक्स की पढ़ाई कर रहा था। वहीं मैं थिएटर भी करता था और हम शॉर्ट फिल्म्स भी बनाया करते थे। एक दिन हमारे कॉलेज में ही इस फिल्म के ऑडिशन की खबर आई। वैसे मुझे उसी वक्त मुंबई जाना था किसी दूसरे काम से लेकिन वो ट्रिप किसी वजह से कैंसिल हो गई थी। मैं उस समय काफी चिढ़ा हुआ था और सोचा कि चलो ऑडिशन देकर आते हैं। ऑडिशन के दौरान मेरी मुलाकात कर्मादित्य बग्गा से हुई जिन्होंने फिल्म का एडिशनल स्क्रीनप्ले लिखा है और कास्टिंग में भी उन्होंने काफी मदद की। उन्होंने मेरा नाम लिया और फिर सिलेक्शन प्रोसेस शुरू हुआ। लेकिन वो कोई आसान सफर नहीं था मेरे करीब आठ से नौ ऑडिशन हुए, क्योंकि मेरा कोई प्रोफेशनल या प्रायर फिल्म एक्सपीरियंस नहीं था। ये ऑडिशन दिल्ली, चंडीगढ़ और मुंबई तीनों जगह हुए थे। बहुत सारे एक्टर्स इस किरदार के लिए ऑडिशन दे रहे थे। लेकिन शायद उन्हें मुझमें कुछ ऐसा दिखा जो उन्हें सही लगा, और आखिरकार मुझे इस फिल्म के लिए चुना गया। यही मेरी शुरुआत थी।
सवाल 6- फिल्म घिचपिच में दिखाए गए पिता-पुत्र के रिश्ते और उनसे जुड़े इमोशनल इश्युज क्या आज के दौर में भी उतने ही प्रासंगिक हैं?
जवाब- बिल्कुल, फिल्म घिचपिच में जो पिता-पुत्र के बीच की टेंशन, संवादहीनता और इमोशनल दूरी दिखाई गई है, वो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी दो हज़ार के शुरुआती दौर में थी। भले ही आज बच्चों के पास स्मार्टफोन है, सोशल मीडिया का ज़माना है और करियर के मौके कई गुना बढ़ गए हैं लेकिन पिता और बेटे का रिश्ता अपनी मूल जटिलताओं के साथ आज भी वैसा ही है। पहले की तुलना में आज बच्चे थोड़े कमजोर दिखते हैं और पेरेंट्स भी ज्यादा ओवर प्रोटेक्टिव हो गए हैं, जिससे जनरेशन गैप और बड़ा हो गया है। लेकिन फिल्म में जिन इमोशंस और इश्यूज को उठाया गया है जैसे प्रिवेसी, अपेक्षाएं, अधिकार और अपनापन वो यूनिवर्सल हैं और आने वाले वर्षों में भी उतने ही मायने रखेंगे। फिल्म का कोर यही है कि इन रिलेशनशिप्स की जटिलताओं को समझा जाए उन पर बातचीत हो ताकि समझ और सहानुभूति बढ़ सके।
सवाल 7- फिल्म को देखकर आप अपने दर्शकों को तक क्या पहुंचाना चाहते हो?
जवाब- घिचपिच को किसी एजेंडा के तहत नहीं बनाया गया है, लेकिन फिल्म के पीछे एक मजबूत इरादा जरूर है दर्शकों को हंसी, प्यार, मस्ती और भावनाओं से भरपूर एक ऐसी कहानी दिखाना जो उनके दिल को छू जाए और सोचने पर मजबूर कर दे। फिल्म में भरपूर कॉमेडी है, हल्के-फुल्के पल हैं, लेकिन इसके साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि कुछ गंभीर मुद्दों पर बातचीत शुरू हो जैसे पिता-पुत्र के बीच की दूरी, टेक्नोलॉजी का असर, और जेनरेशन गैप। डायरेक्टर और मेकर्स का इरादा यह नहीं है कि दर्शकों को कोई उपदेश दिया जाए, बल्कि उन्हें एक रियल और रिलेटेबल अनुभव दिया जाए, जिससे वे खुद सोच सकें कि इन रिश्तों और इमोशंस को वे कैसे देखते हैं। फिल्म एक स्वीट सा मैसेज देती है, पर उसे थोपती नहीं है बल्कि दर्शकों को यह छूट देती है कि वे खुद डिसाइड करें कि वे इससे क्या लेकर जाते हैं।
सवाल 8- इतने एक्सपीरियंस्ड एक्टर्स के साथ अपनी पहली फिल्म करने का मौका मिला। इस अनुभव से आपने क्या सीखा?
जवाब- मेरे लिए ये पूरी फिल्म एक फिल्म स्कूल जैसी थी। क्योंकि मेरे साथ जितने भी लोग थे बल्कि कबीर भी ये सब मुझसे कहीं ज्यादा एक्सपीरियंस्ड थे एक्टिंग में। इसलिए मेरा फोकस सिर्फ परफॉर्म करने पर नहीं बल्कि सीखने पर भी था। मैंने कोशिश की कि मैं हर एक इंसान से कुछ न कुछ सीखूं। जब मैं शिवम भाई के साथ सीन कर रहा था, तो मैंने नोटिस किया कि वो सीन को कैसे उठाते हैं, कैसे उसकी टोन को एक छोटे से जेस्चर से बदल देते हैं। वहीं जब मैंने सत्यजीत शर्मा सर के साथ काम किया, तो उनके अंदर का जो स्विच ऑन और स्विच ऑफ वाला एक्टर है वो बहुत इम्प्रेसिव था कैसे एक रियल लाइफ पर्सनालिटी से एकदम अलग किरदार में बदल जाते हैं। मेरे लिए सबसे बड़ी बात यही रही कि उस स्तर तक पहुंचना है जहां यह स्विचिंग नेचुरली हो सके। और फिर गीता मैम की बात करूं तो वो इतनी बेहतरीन अदाकारा हैं कि अगर उनका कोई डायलॉग भी न हो, फिर भी वो सीन में मौजूद रहती हैं। वो सीन का हिस्सा बनी रहती हैं, बिना कोई गैप छोड़े। ये एक बहुत बड़ी सीख थी कि ऐक्टर होना सिर्फ बोलना नहीं है, बल्कि हर पल सीन में रहना है चाहे कैमरा आपके ऊपर हो या नहीं। वह बहुत ही कमाल की एक्ट्रेस हैं।