यजुर्वेद के इस श्लोक से जानें किस तरह बढ़ाई जा सकती है एकता!

punjabkesari.in Wednesday, Feb 12, 2020 - 04:19 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
अक्सर अपने से बड़े लोगों को एक हिदायत देते हुए पाया जाता है कि हमें हमेशा समूह में रहना चाहिए। चाहे किसी की काम में सफलता प्राप्त करनी हो अगर हम एक समूह में रहकर काम करते हैं तो हमारे उस कार्य में सफल होने के आसार ज्यादा होते हैं। काफ़ी हद तक ये सही भी है। अगर व्यक्ति समूह बनाकर चलने की प्रवृत्ति को अपनाता है तो उससे मन में सुरक्षा का भाव पैदा होता है। कहा जाता है कि मनुष्य का जिस तरह का दैहिक जीवन है उसमें तो उसे हमेशा ही उसे समूह बनाकर चलना ही चाहिए।
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जो लोग इस बात को थोड़ा सा भी समझते हैं वह जानते हैं कि मनुष्य को समूह में ही सुरक्षा मिलती है। बताया जाता है जब इस धरती पर मनुष्य सीमित में संख्या थे तब वह अन्य जीवों से अपनी प्राण रक्षा के लिए समूह बनाकर ही रहते भी थे। परंतु जैसे-जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ती गई वैसे-वैसे उनके अंदर अहंकार के भाव ने भी अपने पांव पसार दिए। जिस कारण आज के हालात यह है कि राष्ट्र, भाषा, जाति, धर्म और वर्णों के नाम पर अनेक समूह बन गए हैं, जिनके आगे अन्य उप समूह हैं। आज की तारीख़ में इन समूहों का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वह अपने स्वार्थ के लिए सामान्य सदस्यों का उपयोग करते हैं।

अगर आधुनिक युग की बात करें तो अनेक मानवीय समूह नस्ल, जाति, देश, भाषा, धर्म के नाम पर बने तो हैं पर उनमें संघभाव कतई नहीं है। यानि संसार का हर व्यक्ति समूहों का उपयोग तो करना चाहता है पर उसके लिए कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह का त्याग नहीं करना चाहता। यही कारण है कि पूरे विश्व में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में भारी तनाव व्याप्त है।
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यजुर्वेद में कहा गया है-
सम्भूर्ति च विनाशं च यस्तद्वेदोभयथ्सह।
विनोशेन मृतययुं तीत्वी सम्भूत्यामृत मश्नुते।।

भावार्थ- जो संघभाव को जानता है वह विनाश एवं मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो उसे नहीं जानता वह हमेशा ही संकट को आमंत्रित करता है।

वाचमस्तमें नि यच्छदेवायुवम्।
भावार्थ-हम ऐसी वाणी का उपयोग करें जिससे सभी लोगों का एकत्रित हों।

हृदय में संयुक्त या संघभाव धारण करने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम अपनी समूह के सदस्यों से सहयोग या त्याग की आशा करें पर समय पड़ने पर उनका साथ छोड़ दें।  हमारे देश में संयुक्त परिवारों की वजह से सामाजिक एकता का भाव पहले तो था पर अब सीमित परिवार, भौतिकता के प्रति अधिक झुकाव तथा स्वयं के पूजित होने के भाव ने एकता की भावना को कमजोर कर दिया है। हमने उस पाश्चात्य संस्कृति और व्यवस्था को प्रमाणिक मान लिया है जो प्रकृति के विपरीत चलती है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के क्रम में चलता जबकि पश्चिम में राष्ट्र, समाज, परिवार और व्यक्ति के क्रम पर आधारित है। हालांकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन यह भी मानता है कि जब व्यक्ति स्वयं अपने को संभालकर बाद  समाज के हित के लिये भी काम करे तो वही वास्तविक धर्म है। कहने का अभिप्राय है कि हमें अपनी खुशी के साथ ही अपने साथ जुड़े लोगों के हित के लिये भी काम करना चाहिए।
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Jyoti

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