वेदों से जानें कैसे होते हैं Friends, मित्रों के मामले में कितने खुशकिस्मत हैं आप
punjabkesari.in Tuesday, Nov 12, 2024 - 12:54 PM (IST)
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What is true friendship: दो मित्रों के बीच मित्रता की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। मैत्री अर्थात् मित्रता अथवा बन्धुत्व लोगों के मध्य पारस्परिक स्नेह का एक मधुर सम्बन्ध है। यह एक सहपाठी, पड़ोसी अथवा सहकर्मी जैसे परिचित अथवा सहचर की तुलना में पारस्परिक बन्धन का एक मजबूत व शक्तिशाली रूप है।
मित्रता के कई रूप
भारतीय संस्कृति में मैत्री की धारणा बहुत गहरे सम्बन्धों को इंगित करती है। एक व्यक्ति के कई मित्र हो सकते हैं और प्राय: एक या दो लोगों के साथ अधिक गहन सम्बन्ध हो सकते हैं, जिन्हें अच्छे या सबसे अच्छे मित्र कहा जा सकता है। यद्यपि मैत्री के कई रूप हैं, जिनमें कुछ स्थानीय भिन्नता हो सकती है। ऐसे कई बन्धनों में कुछ विशेषताएं होती हैं।
एक-दूसरे के साथ रहना, एक साथ बिताए समय का आनन्द लेना और एक-दूसरे के लिए सकारात्मक और सहायक भूमिका निभाने में सक्षम होना आदि मित्रता की विशेषताओं में शामिल है।
एक मित्र होने का अर्थ है अपने सच्चे और ईमानदार हिस्से को साझा करना। मित्रता महज एक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक बड़ा उत्तरदायित्व है, जिसे दोनों पक्षों को स्वेच्छा से ग्रहण करना पड़ता है। एक मित्र का कर्त्तव्य उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मनोबल बढ़ाना और साहस दिलाना है कि मित्र अपने निज की सामर्थ्य से बाहर का कार्य कर गुजरे इसीलिए मित्रों के चुनाव को सचेत कर्म समझकर हमें अपने से अधिक आत्मबल वाले व्यक्तियों को मित्र के रूप में ढूंढना चाहिए।
मित्र शुद्ध हृदय के होने चाहिएं
ऐसे व्यक्तियों से सुग्रीव के द्वारा श्रीराम से मित्रता का बंधन बंधाए जाने के समान मित्रता का बंधन बना लेना चाहिए। मित्र प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के होने चाहिएं। मित्र मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे उन पर भरोसा और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।
मनुष्यों और पशुओं के बीच भी मैत्री हो सकती है। एक मनुष्य और एक गिलहरी अथवा बन्दर की मैत्री के दृश्य तो अक्सर ही दृष्टिगोचर होते रहते हैं। मैत्री उच्च बुद्धि वाले उच्च स्तनधारी पशुओं और कुछ पक्षियों में पाई जाती है। अन्त:प्रजातीय मैत्री मनुष्यों और पालतू पशुओं के बीच सामान्य है।
मित्र वह जो सबसे स्नेह और प्रीति करने योग्य है
स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में मित्र शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ‘मेद्यति, स्निह्यति स्निह्यते वा स मित्र:’ जो सबसे स्नेह करके और सबको प्रीति करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘मित्र’ है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेदों में भी मित्रता की अवधारणा है। मित्रता के गुण की महिमा परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद में भी गाई गई है और मनुष्यों के मध्य परस्पर मित्रता की कामना की गई है।
अथर्ववेद 7/36/1 में परस्पर मित्रता होने की कामना करते हुए कहा गया है कि हम दोनों मित्रों की दोनों आंखें ज्ञान का प्रकाश करने वाली हों। हम दोनों का मुख यथावत विकास वाला होवे। हमें अपने हृदय के भीतर कर लो। हम दोनों का मन भी एकमेव हो। अर्थात हम सदा ही प्रीतिपूर्वक रहें।
यजुर्वेद 36/18 में सभी के प्रति मित्रभाव होने की प्रार्थना परमात्मा से करते हुए कहा गया है कि तुम मुझे दृढ़ बनाओ। सर्वभूत मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सर्वभूतों को मित्र की ही दृष्टि से देखूं। हम परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें। मित्रता में मनुष्यों के मध्य एकमत होना, सबका विचार एक होना आवश्यक है, अन्यथा यह सम्बन्ध प्रगाढ़ नहीं हो सकता।
ऋग्वेद 6/45/6 में परमात्मा से द्वेषभाव न होने की प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे प्रभु! तू द्वेष करने वाले के द्वेषभाव को निश्चय ही निकाल डालता है। तू उन्हें अपना प्रशंसक बना देता है।
ईर्ष्या मित्रता की सबसे बड़ी बाधक है, इसीलिए ईर्ष्या से मुक्त होने का संदेश देते हुए अथर्ववेद 6/18/1 में परमात्मा की वाणी है कि हे ईर्ष्या संतप्त मनुष्य ! हम ईर्ष्या की पहली और उसके बाद वाली अर्थात दूसरी वेगवती गति को, ज्वाला को बुझाते हैं। इस तरह तेरी उस हृदय में जलने वाली अग्नि को तथा उसके शोक संताप को बिल्कुल शान्त कर देते हैं। अर्थात मनुष्य को दूसरे की वृद्धि देख कर कभी ईर्ष्या नहीं करना चाहिए।
द्वेष की परम्परा का अवसान करने के लिए अथर्ववेद 19/41/1 में कहा गया है कि हे भाई! मैं ही तेरे साथ द्वेष करना छोड़ देता हूं। अब यही कल्याणकर है कि मैं अब समाप्ति पर आ जाऊं, शत्रुता की परम्परा का विराम कर दूं।
द्यौ और पृथ्वी भी मेरे लिए अब कल्याणकारी हो जाएं। सभी दिशाएं मेरे लिए शत्रुरहित हो जाएं। मेरे लिए अब अभय ही अभय हो जाए।