कैसा Lifestyle जी रहे हैं आप, एक बार अवश्य विचार करें

punjabkesari.in Tuesday, Sep 29, 2020 - 08:51 AM (IST)

 शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Hindu Culture and Lifestyle Studies: हिंदू शास्त्रों के अनुसार 84 लाख योनियां भोगने के बाद मनुष्य जीवन प्राप्त होता है। सनातन धर्मानुसार जीवन एक चक्र है। जिसके तहत कर्म-भाव, सुख-दुख और विचारों पर आधारित गतियों को समझना होता है। जीवन जीने की कई श्रेणियां हैं जो इस प्रकार हैं :

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विवेक शून्य जीवन : यह सबसे निम्र कोटि का जीवन है। यह पशु जीवन कहलाता है क्योंकि पशु का जीवन विवेक शून्य होता है। वह कुछ भी खा लेता है, कहीं भी खा लेता है, कहीं भी चला जाता है। कहीं भी मल मूत्र त्याग कर देता है। यदि कोई मनुष्य बिना विचारे कुछ भी खा लेता है कहीं भी पशु की तरह चला जाता है। बिना विचारे कुछ भी कर लेता है तो वह मनुष्य रूप में पशु ही तो हुआ।

आज अपने को एडवांस मानने वाले लोग प्राय: इसी प्रकार जी रहे हैं। वे इसे स्वाधीन जीवन की संज्ञा देते हैं किन्तु यह विवेक शून्य उद्दंड जीवन, उच्छृंखल जीवन है क्योंकि इस प्रकार जीने में मनुष्य से पशु ज्यादा स्वतंत्र है। कुत्ता, बिल्ली रसोई में मल मूत्र कर देते हैं किन्तु मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता।

दुख बाहुल्य तथा किंचित सुखमय जीवन : जिसके जीवन में अहंकार, क्रोध, मोह, द्वेष आदि तामसी वृत्तियों की तथा लोभ तृष्णा आदि राजसी वृत्तियों की प्रधानता होती है। आसुरी वृत्तियां ही मन में छाई रहती हैं तथा उसके मन में दूसरों से सुख लेने की आसुरी भावना प्रधान रहती है। वह अधिकतर तनाव विक्षिप्तता, अशांति से होता है। ऐसा जीवन आसुरी जीवन जीना कहलाता है। यह पापमय जीवन भी कहा जा सकता है।

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दुख-सुखमय जीवन : जिस जीवन में कभी सुख, कभी दुख का अनुभव होता रहता है। यह राजसी जीवन भी आसुरी जीवन ही कहलाता है।

सुख बाहुल्य तथा किंचित दुखमय जीवन : जिस जीवन में सुख देने की भावना प्रधान तथा दुख देने की भावना गौण रहती है।

सुखमय जीवन : जिस जीवन में केवल सुख देने की भावना ही प्रधान रहती है सुख लेने की आशा नहीं रहती। ऐसे जीवन में सेवा भाव, करुणाभाव, उदारभाव तथा सत्व गुणी आदि दैवी वृत्तियों की प्रधानता रहती है, अत: यह दैवी जीवन कहलाता है। यह पुण्यमय जीवन भी कहलाता है क्योंकि इस जीवन में पुण्य भावना की ही प्रधानता रहती है। पुण्यमय जीवन ही सुखमय जीवन है।

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शांतिमय जीवन : जिस जीवन में विवेक सदा जाग्रत रहता है अत: शरीर की अहंता का त्याग, धन, घर-परिवार आदि की ममता का त्याग तथा भोग वस्तुओं से सुख लेने की वासना का त्याग कर देता है।

ऐसा त्याग प्रधान जीवन की शांतिमय जीवन कहलाता है। जिस जीवन में विवेक का आदर करके सुख-दुख, मान-अपमान, योग-वियोग, अनुकूल तथा प्रतिकूल की परिस्थितियों के प्रभाव से मुक्त हो जाता है इनसे ऊपर उठ जाता है ऐसा अनासक्त जीवन ही जीवन में सदा शांति का अनुभव कराता रहता है।

शांतिमय जीवन ही निद्र्वंद्व जीवन कहलाता है। इस जीवन में त्याग का किंचित अभिमान रहता है परंतु इस जीवन में समता प्रकट हो जाती है। बुद्धि से विषमता का दोष दूर हो जाता है। मन से राग तथा द्वेष का दोष दूर हो जाता है और निर्दोष जीवन में ही शांति का बराबर अनुभव होता रहता है।

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आनंदमय जीवन : जिस जीवन में प्रभु ही अपने लगते हैं संसार की कोई वस्तु अपनी नहीं लगती, संसार में असंगता तथा प्रभु के प्रति हृदय में सच्ची प्रीति उदय हो जाती है, ऐसी स्थिति में मन संसार से हटाना नहीं पड़ता है, स्वत: हट जाता है और मन को भगवान से लगाना नहीं पड़ता, स्वत: लग जाता है। हृदय में यह प्रीति जैसे-जैसे प्रगाढ़ होती है त्यों-त्यों हृदय प्रेममय होता जाता है। ऐसे प्रेममय हृदय में प्रभु का आलौकिक रस प्रकट हो जाता है। हृदय में अद्भुत रस प्रकट हो जाने पर प्रभु की याद के लिए जीवन सरस हो जाता है।

नीरसता का अंत हो जाता है। सरल जीवन ही आनंदमय रस में डूबा रहता है। ऐसे सरस जीवन पर शरीर की किसी भी विकट परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हर समय सहज आनंदमय स्थिति बनी रहती है। ऐसे प्रेममय सरस हृदय से सहज ही रस की वर्षा होती रहती है, जो पास में होने वाले के हृदय में भी सरसता प्रदान करती रहती है। सरस जीवन की अपने में स्वत: अनुभूति होती रहती है। यही मानव जीवन का परम लक्ष्य है जो पूरा हो जाता है तो जीवन कृत-कृत्य हो जाता है।     

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Niyati Bhandari

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