श्रीमद्भगवद्गीता: भगवान की सेवा के लिए हैं ‘इंद्रियां’

punjabkesari.in Tuesday, Oct 26, 2021 - 02:33 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता 

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक- 
रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।

अनुवाद : समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इंद्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है।

तात्पर्य : यह पहले ही बताया जा चुका है कि कृत्रिम विधि से इंद्रियों पर बाह्मरूप से नियंत्रण किया जा सकता है किन्तु जब तक इंद्रियां भगवान की दिव्य सेवा में नहीं लगाई जातीं तब तक नीचे गिरने की स भावना बनी रहती है।

यद्यपि पूर्णतया कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऊपर से विषयी स्तर पर क्यों न दिखे किन्तु श्री कृष्ण भावना भावित होने से वह किसी प्रकार के विषय कर्मों में आसक्त नहीं होता।

उसका एकमात्र उद्देश्य तो श्री कृष्ण को प्रसन्न करना रहता है, अन्य कुछ नहीं। अत: वह समस्त आसक्ति तथा विरक्ति से मुक्त होता है। श्री कृष्ण की इच्छा होने पर भक्त सामान्यतया अवांछित कार्य भी कर सकता है किन्तु यदि श्री कृष्ण की इच्छा नहीं है तो वह उस कार्य को भी नहीं करेगा जिसे वह सामान्य रूप से अपने लिए करता हो।

अत: कर्म करना या न करना उस भक्त के वश में नहीं रहता है क्योंकि वह तो केवल श्री कृष्ण के निर्देश के अनुसार ही कोई भी कार्य कर पाता है। यही चेतना भगवान की अहैतुकी कृपा है जिसकी प्राप्ति भक्त को इंद्रियों में आसक्त होते हुए भी हो सकती है।
 


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Content Writer

Jyoti

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