श्रीमद्भगवद्गीता: कैसे मिलेगी इंद्रिय भोग से ‘मुक्ति’

punjabkesari.in Wednesday, Sep 22, 2021 - 04:16 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता 
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्द्वा निवर्तते।।

अनुवाद तथा तात्पर्य : देहधारी जीव इंद्रिय भोग से भले ही निवृत्त हो जाए पर उसमें इंद्रिय भोगों की इच्छा बनी रहती है लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है। जब तक कोई अध्यात्म को प्राप्त न हो तब तक इंद्रिय भोग से विरत होना असंभव है।विधि-विधानों द्वारा इंद्रिय भोग को संयमित करने की विधि वैसी ही है जैसे किसी रोगी के किसी भोज्य पदार्थ खाने पर प्रतिबंध लगाना किन्तु इससे रोगी की न तो भोजन के प्रति रुचि समाप्त होती है और न ही वह ऐसे प्रतिबंध लगाए जाना चाहता है।

इसी प्रकार अल्पज्ञानी व्यक्तियों के लिए इंद्रिय संयमन के लिए अष्टांग योग जैसी विधि की संस्तुति की जाती है जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि सम्मिलित हैं किन्तु जिसने कृष्णभावनामृत के पथ पर प्रगति के क्रम में परमेश्वर कृष्ण के सौंदर्य का रसास्वादन कर लिया है, उसे जड़-भौतिक वस्तुओं में कोई रुचि नहीं रह जाती तो मनुष्य में स्वत: ऐसी वस्तुओं के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है।


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Content Writer

Jyoti

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