श्रीमद्भगवद्गीता: ‘स्थिर मन’ का महत्व

punjabkesari.in Sunday, Sep 05, 2021 - 11:04 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता 

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
दु:खेष्वनुद्विग्रमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। 56।।

अनुवाद तथा तात्पर्य :
जो त्रय तापों के होने पर भी मन में विचलित नहीं होता अथवा सुख में प्रसन्न नहीं होता और जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है। मुनि शब्द का अर्थ है वह जो शुष्क चिंतन के लिए मन को अनेक प्रकार से उद्वेलित करे किन्तु किसी तथ्य पर न पहुंच सके। कहा जाता है कि प्रत्येक मुनि का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है और जब तक एक मुनि अन्य मुनियों से भिन्न न हो तब तक उसे वास्तविक मुनि नहीं कहा जा सकता।

किन्तु जिस मुनि का भगवान ने यहां उल्लेख किया है वह सामान्य मुनि से भिन्न है। यह मुनि सदैव कृष्णभावनाभावित रहता है क्योंकि वह सारा सृजनात्मक चिंतन पूरा कर चुका होता है। यह प्रशांत निशेष मनोरथान्तर कहलाता है या जिसने शुष्कचिंतन की अवस्था पार कर ली है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि भगवान श्री कृष्ण या वासुदेव ही सब कुछ हैं।

वह स्थिर चित्त मुनि कहलाता है। ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति तीनों तापों के संघात से तनिक भी विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन कष्टों को भगवत्कृपा के रूप में लेता है और पूर्व पापों के कारण अपने को अधिक कष्ट के लिए योग्य मानता है और वह देखता है कि उसके सारे दुख भगवत्कृपा से रंचमात्र रह जाते हैं। इसी प्रकार जब वह सुखी होता है तो अपने को सुख के लिए अयोग्य मानकर इसका भी श्रेय भगवान को देता है।

वह सोचता है कि भगवत्कृपा से ही वह ऐसी सुखद स्थिति में है और भगवान की सेवा और अच्छी तरह से कर सकता है और भगवान की सेवा के लिए तो वह सदैव साहस करने के लिए सन्नद्ध रहता है। वह राग या विराग से प्रभावित नहीं होता। कृष्णभावनामृत में स्थिर व्यक्ति में न राग होता है न विराग क्योंकि उसका पूरा जीवन ही भगवत्सेवा में अर्पित रहता है। 
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Content Writer

Jyoti

Recommended News

Related News