Srimad Bhagavad Gita: श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप, असली संन्यासी कौन ?
punjabkesari.in Sunday, Aug 13, 2023 - 10:18 AM (IST)

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साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता- स्वामी प्रभुपाद
ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति। निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥5.3॥
अनुवाद एवं तात्पर्य : जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन ! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबंधन को पार कर पूर्णत: मुक्त हो जाता है।
पूर्णत: कृष्णभावनाभावित पुरुष नित्य संन्यासी है क्योंकि वह अपने कर्मफल से न तो घृणा करता है, न ही उसकी आकांक्षा करता है। ऐसा संन्यासी, भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति के परायण होकर पूर्णज्ञानी होता है क्योंकि वह कृष्ण के साथ अपने स्वरूप को जानता है।
वह भली-भांति जानता रहता है कि कृष्ण पूर्ण (अंशी) है और वह स्वयं अंशमात्र हैं। ऐसा ज्ञान पूर्ण होता है क्योंकि यह गुणात्मक तथा सकारात्मक रूप से सही है। यह ज्ञान कि एकता गुणों की है न कि गुणों की मात्रा की, सही दिव्यज्ञान है, जिससे मनुष्य अपने आप में पूर्ण बनता है जिसे न तो किसी वस्तु की आकांक्षा रहती है न किसी का शोक।
उसके मन में किसी प्रकार का द्वैत नहीं रहता क्योंकि वह जो कुछ भी करता है कृष्ण के लिए करता है। इस प्रकार द्वैतभावों से रहित होकर वह इस भौतिक जगत से भी मुक्त हो जाता है।