Srimad Bhagavad Gita:  ‘गुलाब’ कभी ‘कमल’ नहीं बन सकता

punjabkesari.in Friday, Jun 17, 2022 - 08:48 AM (IST)

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Srimad Bhagavad Gita: 
श्री कृष्ण स्व-धर्म (स्वयं की प्रकृति) (2.31-2.37) के बारे में बताते हैं और अर्जुन को सलाह देते हैं कि क्षत्रिय के रूप में उन्हें लड़ने में संकोच नहीं करना चाहिए (2.31) क्योंकि यह उनका स्व-धर्म है। कृष्ण गीता की शुरुआत ‘उस’ से करते हैं जो शाश्वत, अव्यक्त और सभी में व्याप्त है। आसानी से समझने के लिए इसे ‘आत्मा’ कहा जाता है। फिर वह स्व-धर्म के बारे में बात करते हैं, जो ‘उस’ से एक कदम पहले है और बाद में कर्म पर आते हैं। अंतरात्मा की अनुभूति की यात्रा को 3 चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण है हमारी वर्तमान स्थिति, दूसरा है स्व-धर्म का बोध और अंत में, अंतरात्मा तक पहुंचना।

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वास्तव में, हमारी वर्तमान स्थिति हमारे स्व-धर्म, अनुभवों, ज्ञान, स्मृतियों और हमारे डगमगाते मन द्वारा एकत्रित धारणाओं का एक संयोजन है। जब हम अपने आप को अपने मानसिक बोझ से मुक्त करते हैं तो स्व-धर्म धीरे-धीरे खुल जाता है। क्षत्रिय  ‘क्षत’ और ‘त्रय’ का संयोजन है, ‘क्षत’ का अर्थ है ‘चोट’ और ‘त्रय’ का अर्थ है ‘सुरक्षा देना’। क्षत्रिय वह है जो चोट से सुरक्षा देता है। सबसे अच्छा उदाहरण एक मां का है जो गर्भ में बच्चे को रखती है और बच्चों की तब तक रक्षा करती है जब तक कि वे खुद को संभालने के लायक नहीं हो जाते। वह पहली क्षत्रिय है जिससे हम अपने जीवन में मिलते हैं। वह अप्रशिक्षित हो सकती है जिसे बच्चे की देखभाल का अनुभव न हो लेकिन यह गुण स्वाभाविक रूप से उसमें आता है। यह गुण स्व-धर्म की झलक है।

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एक बार गुलाब का फूल एक बहुत शानदार कमल के फूल पर मोहित हो गया और कमल बनने की इच्छा उसके मन में पैदा हो गई लेकिन ऐसा कोई उपाय नहीं है कि गुलाब का फूल कमल बन जाए। गुलाब अपनी क्षमता से अलग होना चाहता था। इसी तरह हम भी, जो हैं उससे अलग होने की कोशिश करते हैं। इसके परिणामस्वरूप हमें उस तरह की निराशा का सामना करना पड़ता है जैसा अर्जुन को करना पड़ा। गुलाब अपना रंग, आकृति और आकार बदल सकता है, लेकिन फिर भी वह गुलाब ही रहेगा जो उसका स्व-धर्म है।

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Content Writer

Niyati Bhandari

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