स्वामी प्रभुपाद : श्रद्धा के बिना भक्ति अधूरी, क्यों कृष्ण को नहीं पा पाते श्रद्धाविहीन जन ?

punjabkesari.in Wednesday, Dec 24, 2025 - 12:24 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

अश्रद्दधानाः: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।

अनुवाद : हे परन्तप ! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते। अत: वे इस भौतिक जगत में जन्म मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं।
तात्पर्य : श्रद्धाविहीन के लिए भक्तियोग पाना कठिन है, यही इस श्लोक का तात्पर्य है। श्रद्धा तो भक्तों की संगति से उत्पन्न की जाती है। महापुरुषों से वैदिक प्रमाणों को सुनकर भी दुर्भाग्यपूर्ण लोग ईश्वर में श्रद्धा नहीं रखते। वे झिझकते रहते हैं और भगवद्भक्ति में दृढ़ नहीं रहते। इस प्रकार कृष्णभावनामृत की प्रगति में श्रद्धा मुख्य है।

Swami Prabhupada

चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि श्रद्धा तो यह पूर्ण विश्वास है कि परमेश्वर श्री कृष्ण की ही सेवा द्वारा सारी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। यही वास्तविक श्रद्धा है।

इस श्रद्धा का विकास कृष्णभावनामृत की विधि है। कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की तीन कोटियां हैं। तीसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो श्रद्धाविहीन हैं। यदि ऐसे लोग ऊपर-ऊपर भक्ति में लगे भी रहें तो भी उन्हें सिद्ध अवस्था प्राप्त नहीं हो पाती।

संभावना यही है कि वे लोग कुछ काल के बाद नीचे गिर जाएं। वे भले ही भक्ति में लगे रहें किन्तु पूर्ण विश्वास तथा श्रद्धा के अभाव में कृष्णभावनामृत में उनका लगा रह पाना कठिन है।

अपने प्रचार कार्यों के दौरान हमें इसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि कुछ लोग आते हैं और किन्हीं गुप्त उद्देश्यों से कृष्णभावनामृत को ग्रहण करते हैं किन्तु जैसे ही उनकी आॢथक दशा कुछ सुधर जाती हैं कि वे इस विधि को त्यागकर पुन: पुराने ढर्रे पर लग जाते हैं। कृष्णभावनामृत में केवल श्रद्धा के द्वारा ही प्रगति की जा सकती है।

Swami Prabhupada

जहां तक श्रद्धा की बात है जो व्यक्ति भक्ति साहित्य में निपुण है और जिसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्था प्राप्त कर ली है वह कृष्णभावनामृत का प्रथम कोटि का व्यक्ति कहलाता है। दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जिन्हें भक्ति शास्त्रों का ज्ञान नहीं है किन्तु स्वत: ही उनकी दृढ़ श्रद्धा है कि कृष्णभक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है अत: वे इसे ग्रहण करते हैं।

इस प्रकार वे तृतीय कोटि के उन लोगों से श्रेष्ठतर हैं जिन्हें न तो शास्त्रों का पूर्णज्ञान है और न श्रद्धा ही है अपितु संगति तथा सरलता के द्वारा वे उसका पालन करते हैं। तृतीय कोटि के वे व्यक्ति कृष्णभावनामृत से च्युत हो सकते हैं किन्तु द्वितीय कोटि के व्यक्ति च्युत नहीं होते। प्रथम कोटि के लोगों के च्युत होने का प्रश्र ही नहीं उठता।

प्रथम कोटि के व्यक्ति निश्चित रूप से प्रगति करके अंत में अभीष्ट फल प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भक्ति करने के लिए श्रद्धा परमावश्यक है।      

Swami Prabhupada            
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Content Editor

Prachi Sharma

Related News