क्या भगवान का चिंतन करते हुए मिली थी शिशुपाल को मुक्ति? जानिए क्या इसस जुड़ी कथा

punjabkesari.in Tuesday, Dec 14, 2021 - 05:13 PM (IST)

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जब भगवान श्री कृष्ण भीमसेन द्वारा जरासंध का वध करवाकर तथा उसके द्वारा बंदी बनाए गए राजाओं को मुक्त करके इंद्र प्रस्थ लौट आए तब महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण की अनुमति से वेदवादी ब्राह्मणों का आचार्य आदि के रूप में वरण किया। धर्मराज युधिष्ठिर ने सभी प्रधान ऋषियों के साथ द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधन तथा विदुर आदि को भी यज्ञ में आमंत्रित किया। राजसूय यज्ञ का दर्शन करने के लिए देश-विदेश के सब राजा, उनके मंत्री तथा सभी आम और खास लोग वहां आए।

ब्राह्मणों ने सोने के हलों से यज्ञ भूमि को जुतवा कर राजा युधिष्ठिर को शास्त्रानुसार यज्ञ की दीक्षा दी। यज्ञ के सब पात्र सोने के बने हुए थे। विधिपूर्वक यज्ञकार्य प्रारंभ हुआ। अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में अग्र पूजा किसकी होनी चाहिए। जितनी मति थी उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका।

सहदेव ने कहा, ‘‘यदुवंशी शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण की अग्र पूजा के अधिकारी हैं। यह सारा विश्व ही श्री कृष्ण का रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही हैं। ये अपने संकल्प से ही जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। इसलिए सबसे महान भगवान श्री कृष्ण की ही अग्र पूजा होनी चाहिए।’’

इतना कह कर सहदेव चुप हो गए। उस समय युधिष्ठिर की यज्ञ सभा में जितने सत्पुरुष थे, सबने एक स्वर से ‘बहुत ठीक’ कह कर सहदेव की बात का समर्थन किया। धर्मराज युधिष्ठिर ने सभासदों का अभिप्राय जानकर बड़े ही आनंद से भगवान श्री कृष्ण के पांव पखारे। उस समय देवताओं ने आकाश से पुष्पों की वर्षा की।

अपने आसन पर बैठ कर शिशु पाल यह सब देख रहा था। भगवान श्री कृष्ण की अग्र पूजा देख कर वह मन ही मन जल भुन गया। उसने कहा, ‘‘सभासदो! आप लोग अग्र पूजा के अधिकारी पात्र का चयन करने में सर्वथा असमर्थ रहे। बालक सहदेव के कहने पर आप लोग कृष्ण की अग्र पूजा कर रहे हैं जो कदापि उचित नहीं है। यहां बड़े- बड़े तपस्वी, ज्ञानी, ब्रह्मा निष्ठा महात्मा बैठे हुए हैं, जिनकी पूजा लोकपाल भी करते हैं। उनको छोड़कर भला अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है। यह लोक मर्यादा का उल्लंघन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई भी गुण नहीं है। फिर यह अग्रपूजा का पात्र कैसे हो सकता है।’’

इस प्रकार शिशु पाल ने भगवान श्री कृष्ण को और भी बहुत सी अशोभनीय बातें कहीं। सभासदों के लिए शिशु पाल की बात सुनना असह्य हो गया। उसे मार डालने के लिए पांडव, मत्स्य, कैकेय और सूर्यवंशी राजा हाथ में हथियार लेकर खड़े हो गए परंतु भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि मैंने अपनी बुआ को इसकी सौ गालियां क्षमा करने का वचन दे रखा है। जैसे ही वे पूरी हो जाएंगी, इसका अंत निश्चित है।

जब शिशुपाल सौ से अधिक गालियां बकने लगा तब भगवान ने सबके देखते-देखते अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट डाला। उसके शरीर से एक दिव्य ज्योति निकल कर श्री कृष्ण में समा गई। वह वैरभाव से ही सही, भगवान का चिंतन करने के कारण मुक्त हो गया।


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Content Writer

Jyoti

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