श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज: तिलक लगाना ढोंग नहीं है बल्कि...

punjabkesari.in Friday, Apr 22, 2022 - 10:52 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्री चैतन्य गौड़ीय मठ की शाखाएं न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी हैं। श्री चैतन्य गौड़ीय मठ की ओर से सनातन धर्म व हरिनाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार है। वर्तमान समय में परम पूज्यपाद श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज अखिल भारतीय श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के अंतरराष्ट्रीय आचार्य हैं। इस समय पंजाब के जालंधर शहर में प्रताप बाग के श्री चैतन्य महाप्रभु श्री राधा माधव मंदिर में 63वें वार्षिक संकीर्तन का आयोजन किया जा रहा है। महाराज श्री उसी सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे हैं। पंजाब केसरी के कुंडली टीवी के एडिटर नरेश कुमार ने उनसे भेंट करी। पेश हैं इस आध्यात्मिक साक्षात्कार के कुछ मुख्य अंश-

'हरे कृष्ण' का क्या मतलब है ?
भगवान श्रीकृष्ण जो सारे जगत के व सारे ब्रह्मांडों के मालिक हैं, उनके नाम के आगे जो हरे लगा है, वो हमारी श्रीराधारानी हैं। हरे कृष्ण मतलब राधा कृष्ण, हरा राधा रानी जी का ही एक नाम है, मतलब जो सर्वशक्तिमान श्रीकृष्ण हैं, उन्होंने श्री कृष्ण जी का मन हरण कर लिया है इसलिए हरे कृष्ण बोला जाता है।

आचार्य बनाने से पहले उनमें क्या-क्या गुण देखे जाते हैं और आपके गुरु जी श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने आपको ही क्यों चुना ? 
आचार्य बनाने से पहले दो गुण देखते हैं पहला संसारिक और दूसरा स्पिरिचुअल। संस्था का इतना बड़ा प्रचार है। उसके इतने सारे सेंटर हैं तो कौन उसे संभाल सकता है। पिता जब बूढ़ा होने लगता है तो वो देखता है कौन मेरे कारोबार और घर-परिवार को संभालेगा। वैसे ही श्रील गुरुदेव (श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी) ने देखा कौन मठ को संभाल सकता है। ये तो हुआ दुनियावी।

दूसरा 1982 में मैं गुरु महाराज को मिला तब से लेकर अस्वस्थ लीला (उनके बीमार होने से पहले) तक गुरु जी ने मेरे को अपने साथ रखा, क्या सोचकर रखा ये तो वो ही जानें। आज तक जितने भी फॉरेन ट्रिप हुए उन्होंने वहां भी मेरे को अपने साथ रखा। फिर चाहे पंजाब प्रचार हो या बंगाल प्रचार सभी में मैं उनके साथ रहा। बरसों मुझे अपने नजदीक रखने के बाद उन्होंने यह फैसला लिया।

आचार्य का मतलब होता है जो आचरण करके शिक्षा देते हैं। मैं बोलूं माला किया करो, हरिनाम किया करो तो वो देखेंगे ये करते हैं कि नहीं। 40 साल गुरु जी ने मुझे देखा की ये खुद आचरण करता है तो दूसरों से करवा भी सकता है। 

जब आपको आचार्य पद प्राप्त होना था तो अलग-अलग शहरों से लोगों ने विरोध किया, ऐसा क्यों ?
आचार्य बनने के समय कुछ विरोध इसलिए हुआ था कि कुछ लोग चाहते थे कि गुरु जी का ये पद कोई बुजुर्ग संभाले लेकिन गुरु जी चाहते थे कि किसी नई पीढ़ी के व्यक्ति के हाथों इस सारी भागदौड़ को दिया जाए। जो गाड़ी पुरानी हो जाती है, वो धीरे चलती है। गुरु जी को संस्था को बहुत तेजी से आगे ले जाना था, शायद इसलिए उन्होंने मेरा चुनाव किया।

वैसे भी जितने भी सन्तों के नाम आचार्य पद के लिए आते थे, उनमें कोई बड़ा प्रचारक नहीं था। इसके अलावा कोई भी बुजुर्ग महात्मा आज तक कोई भी विदेश में हरिनाम के प्रचार के लिए नहीं गया। गुरु महाराज जी जब भी विदेश प्रचार में जाते थे तो मुझे अपने साथ जरूर लेकर जाते थे। इसके इलावा जब उन्होंने खुद से विदेश जाना बंद कर दिया तो वो मुझे ही भेजते थे। उस समय गुरु जी विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए विदेशों में हरिनाम दिया करते थे, जब भक्तों को माला देनी होती थीं, तो मैं ही विदेशियों को जप माला दिया करता था। 

हमारे महान अध्यात्मिक संस्थान में किसी के कहने पर किसी को आचार्य नहीं बनाया जाता। जो गुरु होते हैं, वो पत्र लिखकर जाते हैं कि भविष्य में किसे आचार्य बनाया जाए। उसमें वे तीन नाम लिखकर जाते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ, जो तीन नाम थे, उसमें युवा पीढ़ी में एक नाम मेरा ही था, बाकी दो बुजुर्ग महात्माओं के नाम थे। आप हैरान होंगे कि गुरु महाराज जी ने तो मेरा नाम लिखा ही, गुरु महाराज जी के बाद हमारी संस्था में जो दो आचार्य आए, उन्होंने भी अपनी वसीयत में मेरा ही नाम लिखा। यही सब कुछ देख कर हमारी संस्था की गवर्निंग बॉडी के सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से मुझे आचार्य बनाया।

आमतौर पर देखा जाता है श्री चैतन्य गौड़ीय मठ से जुड़े भक्तों के मस्तक पर तिलक होता है, ऐसा क्यों, लोग इस तिलक को लेकर अभद्र भाषा और व्यंग्य भी करते हैं ?
विष्णु जी महाराज ने कहा ये हर किसी की अपनी सोच है। कोई फौज या पुलिस में होता है तो उसे अपनी ड्रैस पर गर्व होता है। स्टार लगे होते हैं तो उन्हें उन पर भी गर्व होता है। ठीक इसी प्रकार भक्तों की भी अपनी ड्रेस होती है और भक्तों को अपनी वैष्णव ड्रैस और अपने तिलक पर गर्व होता है। तिलक लगाकर उन्हें यह भी गर्व होता है कि हमने भगवान के चरणों की रज को अपने मस्तक पर धारण किया हुआ है। ये तिलक लगाना श्रीकृष्ण के प्रति हमारा समर्पण है, प्यार है।

इसे शरीर के कितने भागों पर लगाया जाता है ?
इसे शरीर के 12 भागों पर लगाया जाता है। जब भगवान कृष्ण ने कालिय नाग का दमन किया था उस समय उन्होंने सूर्य को 12 भागों में प्रकाशित किया था। द्वादश अंक का हिंदू शास्त्रों में बहुत महत्व है। हमारे मठ में नाभि से ऊपर बारह स्थानों पर इसे लगाया जाता है। 

ये 12 स्थान कौन से हैं ? 
सबसे पहले मस्तक, कोख, नाभि जहां से कुण्डली जागृत होती है, हृदय में जहां भगवान वास करते हैं, कंठ में जहां से कीर्तन किया जाता है, बाजू से भगवान की सेवा का सौभाग्य मिलता है, कंधे पर बोझ होता है, इन स्थानों पर तिलक लगाया जाता है। इसके अलावा पीठ से कोई वार न करे इसलिए वहां भी तिलक लगाया जाता है। 

ये जो तिलक है दो लाइन के नीचे तुलसी पत्र का आकार ही क्यों बनाया जाता है ? 
ये दो लाइन प्रतीक है - सिंहासन का और तुलसी पत्र का आकार भगवान के सिंहासन का प्रतीक है ।

व्यक्ति को कैसे पता लगता है उसका साधन भजन कैसा हो रहा है, वह भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है या जहां से आरंभ किया था अभी भी वहीं पर है ?
सभी के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं। जो हर एक परिस्थिति में शांत रहता है, किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता। वे सोचता है सुख के रूप में खीर का प्रसाद भी भगवान दे रहे हैं और करेले की सब्जी के रूप में दुःख का प्रसाद भी भगवान के द्वारा दिया हुआ है अर्थात सुख-दुख दोनों भगवान के दिए हुए हैं। साधन भजन में आगे बढ़ता हुआ भक्त हर समय अनुभव करता है कि भगवान की मुझ पर बड़ी कृपा है। वैसे भी हमारे कर्मफलदाता ठाकुर जी हैं। वे कभी भी अपने भक्तों का बुरा नहीं कर सकते। शास्त्रों में कहा गया है जीवन की हर परिस्थिति में भगवान की अनुकंपा का अनुभव करें। जीवन में कोई भी दुःख आए अथवा कोई भी सुख आए भगवान के सच्चे भक्त को कोई फर्क नहीं पड़ता। यही पहली पहचान है कि हम अध्यात्मिक साधना में आगे बढ़ रहे हैं या नहीं।

महाराज जी ने आगे बताया, प्रहलाद चरित्र पढ़ें उस छोटे से बालक के जीवन में कितने झमेले थे, जिसकी कभी कोई कल्पना नहीं कर सकता। उसने एक बार भी भगवान को शिकायत नहीं की। हमारी भगवान में विश्वसनीयता बताती है कि भजन बढ़ रहा है या नहीं। 

उन्होंने जीव गोस्वामी जी की बात को दोहराते हुए कहा, पहले तो व्यक्ति माला पर नाम जाप करता है, फिर अपने आप अंदर ही अंदर नाम जाप चलने लगता है। उसके बाद व्यक्ति को अपने अंदर ही भगवान की लीलाओं का दर्शन होने लगता है। फिर उसकी अगली स्टेज में भगवान का नाम, धाम, लीलाएं, परिकर, गुण आदि आते हैं।

महाराज जी ये केवल श्रीकृष्ण की भक्ति में ही ऐसा होता है या किसी अन्य देवी-देवता की भक्ति में भी ऐसा होता है ?
सब में ऐसा ही अनुभव होता है लेकिन सभी का लक्ष्य एक नहीं है जैसे दुर्गा जी का भजन करते हुए व्यक्ति स्वर्ग का अधिकारी बन जाता है। उसके बाद जब उसका पुण्य खत्म हो जाता है तब वो दोबारा से 84 लाख योनियों के चक्कर में फंस जाता है। जबकि कोई एक बार श्रीकृष्ण के धाम में चला जाता है तो वो जन्म-मरण के चक्कर से हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है। जैसे हनुमान जी हैं, वे भला कौन सा 84 के चक्कर में पड़े हुए हैं। देवी-देवताओं के धाम इसी ब्रह्मांड के अंदर ही स्थित हैं। तो व्यक्ति उसके अंदर घूमता रहता है।

आचार्य जी ने कहा, श्री कृष्ण गीता जी में कहते हैं मेरे धाम से दोबारा लौट कर नहीं आना होता। वहां पर इतनी सारी सेवाएं हैं। तो सब जो देवी-देवता हैं सबकी अनुभुति ऐसी ही होती है। बस केवल एकनिष्ठ होकर आराधना करनी चाहिए। अब जो मां दुर्गा के भक्त हैं, उन्हें जो भी समस्या है, वे अपनी मां को बोलते हैं, मां उनकी समस्या का निवारण करती हैं। उसी प्रकार जैसे यदि आप पर कोई आश्रित हो तो आप अपना पूरा प्रयास लगाकर उसकी समस्या का निवारण करते हैं। 

अनजाने में हुए पापों का निवारण कैसे किया जा सकता है ?
जिस पाप को हम जानते ही नहीं उसका निवारण कैसे करेंगे। हां भगवान कहते हैं जब कोई मेरी शरण में आ जाता है तो वे हमारी जानबूझकर अथवा अनजान से किए हुए सब पापों का नाश कर देते हैं।

कलियुग में माता-पिता की सेवा को सर्वोत्तम कहा गया है, क्या यह सही है ? 
न केवल कलयुग में बल्कि हर युग में माता-पिता की सेवा को सर्वोत्तम कहा गया है। कोई कुछ भी करना चाहता है तो उसे मौका माता-पिता ही देते हैं। उन्होंने ही उसे बच्चे से बड़ा करके व स्कूल कॉलेज में शिक्षा आदि दिलाकर यह सौभाग्य प्रदान कराया।

फिर आपने घर-परिवार का त्याग कर संन्यास क्यों धारण किया ?
घर में फौजी रहता है, अपने एक माता-पिता की सेवा करता है लेकिन वो जब बार्डर पर जाता है तो अनेकों माता-पिता की सेवा करता है। इस तरह से हमने कईं माता-पिता और बच्चों की सेवा करने के लिए संन्यास धारण किया। अगर मैं गृहस्थ में होता तो अपने घर-परिवार की चिंता ही करता रहता। अब मैं आराम से कृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार न केवल देश बल्कि विदेश में भी कर सकता हूं।
 
महाराज जी आपने दूसरों के माता-पिता के बारे में तो सोच लिया लेकिन आपके खुद के माता-पिता की सेवा कौन करेगा ऐसा नहीं सोचा क्या ?
जिस समय मैंने मठ में प्रवेश किया उस समय श्री नारसिंह महाराज जी ने मेरे पिता जी को प्रश्न किया, "प्रेमदास जी आपके लड़के ने तो हरिनाम ले लिया है और मठ ज्वाइन कर लिया है।"

मेरे पिता जी ने कहा --"क्या करें आजकल के बच्चे सुनते ही नहीं हैं, मेरा बस चले मैं अपने चारों लड़कों को ही मठ में भेज दूं, वो मेरे गुरु जी की व श्रीराधा-गोविन्द जी की सेवा करें।"

मतलब मेरे माता-पिता दोनों चाहते थे कि मैं मठ में रहकर अपने गुरु जी की सेवा करूं। जब वो दूसरों के मुख से मेरी उपलब्धियां सुनते थे तो वो बहुत प्रसन्न होते थे। मेरे माता-पिता ने मेरे छोटे भाई को भी इस पथ पर चलने के लिए उसे समझा-बुझाकर मठ में भेजा था, लेकिन वो कुछ समय के बाद ही घर वापिस चला गया। उनकी इच्छा तो थी की उनके चारों पुत्र ही हरि भक्ति के मार्ग पर चलें।

श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार आप संसार भर में कर रहे हैं, भविष्य की क्या योजनाएं हैं आपकी ?
मैं सोचता हूं की गुरु महाराज जी ने नई पीढ़ी को जो ये मौका दिया है। उसका मैं पूरी तरह से सम्मान करते हुए, अच्छे से अच्छा काम करने का प्रयास करुं। अब आप सोशल मीडिया के माध्यम से हमारे मठ की और मठ के सिद्धांतों की जानकारी और समाचार प्राप्त कर सकते हैं। स्पीकिंग ट्री में हमारा एक ब्लॉग है। 54 व्हाट्सएप ग्रुप हैं । इसी तरह फेसबुक टि्वटर आदि के द्वारा सनातन धर्म का प्रचार का प्रयास प्रारंभ हो चुका है। असम से आदिवासियों के बच्चों को लेकर हम आए उनको मुफ्त में शिक्षा दे रहे हैं। अगरतला में पुजारी ट्रेनिंग सेंटर बनाया है। मायापुर व चंडीगढ़ में मृदंग के मास्टर रखे गए हैं जो युवा पीढ़ी को मृदंग बजाने की कला की ट्रेनिंग दे रहे हैं। साथ ही हमारे प्रचारक अपनी संस्कृति के साथ युवाओं को और बच्चों को हमारी महान संस्कृति से जुड़े रहने का काम कर रहे हैं। छोटी-छोटी प्रचार पार्टियां रखी गई हैं, जो हरिनाम का प्रचार-प्रसार कर सकें। लेटेस्ट टेक्नोलॉजी को माध्यम बनाकर सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है।

इस सबके चलते जवान लोग हरि नाम संकीर्तन का खूब आनंद ले रहे हैं, प्रचार सही चल रहा है या नहीं ये इस बात से पता लगता है की बूढ़ों से अधिक यंग बच्चे इस कृष्ण भक्ति शाखा में अपना प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में वृद्धि हो रही है। 

गौड़िय मठ से अधिक इस्कॉन को लोग जानते हैं, ऐसा क्यों ?
उसका कारण यह है कि मठ में हिंदी भाषा से अधिक बंगला भाषा का अधिक प्रचलन है। जबकि इस्कॉन संस्थान में  हिंदी, इंग्लिश के अलावा स्थानीय भाषाओं के द्वारा प्रचार करने वाले प्रचारक तैयार किए गए हैं।


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Content Writer

Niyati Bhandari

Recommended News

Related News