Religious Katha: खुद को गरीब समझने वाले अवश्य पढ़ें ये कथा
punjabkesari.in Monday, Mar 28, 2022 - 12:33 PM (IST)
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Religious Katha: समाज का यदि आर्थिक रूप से विश्लेषण किया जाए तो प्राय: दो तरह के व्यक्ति दृष्टिगोचर होते हैं। एक धनी अथवा समृद्ध तथा दूसरा निर्धन अथवा अभावग्रस्त। प्राय: समृद्धि के आकलन का आधार मात्र धन सम्पदा को माना जाता है परंतु समृद्धि का यह वास्तविक आकलन नहीं है। कुछ लोगों के पास धन-दौलत अथवा सुविधाओं की कमी नहीं होती लेकिन वे फिर भी संतुष्ट नहीं होते।
जीवन में आगे बढ़ना और अधिकाधिक समृद्ध होना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन अपनी स्थिति से हमेशा असंतुष्ट ही रहना है तो समृद्धि का क्या फायदा! अधिक धन-संपत्ति होने पर भी जो असंतुष्ट ही है, वह तो निर्धन की श्रेणी में ही आता है। आत्मसंतोष के मामले में तो अवश्य ही वह निर्धन है।
संतुष्टि को तो हमारे यहां परम धन स्वीकार किया गया है। ‘संतोष परमं धनम्।’ इसके विपरीत धन से रहित होने पर भी जो व्यक्ति संतुष्ट रहता है, वह धनवान व्यक्ति से ऊंची श्रेणी का है। संतुष्ट व्यक्ति तो हर हाल में सुखी रहता है, अत: बिना बहुत अधिक भौतिक समृद्धि के भी ऐसा व्यक्ति धनी ही है।
इसका मतलब यह नहीं है कि हम जीवन में आगे बढ़ने का प्रयत्न करना छोड़ दें बल्कि हम आगे बढ़ने का निरंतर प्रयास करते रहें और साथ ही वर्तमान में जो कुछ भी हमारे पास हैं, उससे संतुष्ट रहें।
जो लोग बहुत अधिक सुख-सुविधाओं के अभ्यस्त हो जाते हैं तथा अपना कोई भी काम स्वयं नहीं कर सकते, वे स्वास्थ्य के मामले में उस व्यक्ति से निर्धन ही कहे जाएंगे, जो अपना काम स्वयं करता है। विशेषकर पैदल चलना और अपना सारा काम स्वयं अपने हाथों करना हमें अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करता है और अच्छा स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन है।
धन होना कोई बुरी बात नहीं लेकिन पैसों से हम अच्छा स्वास्थ्य नहीं खरीद सकते। पैसे के अतिरिक्त भी अन्य कई तत्व हैं जो हमारी समृद्धि के परिचायक और नियामक हैं। उनमें सबसे पहले आता है हमारा शरीर, जिसके अंग-प्रत्यंग पूर्णत: स्वस्थ हों। एक व्यक्ति भीख मांग कर जीवन-निर्वाह करता था। पास से गुजरने वाले एक व्यक्ति ने उससे पूछा, ‘‘तुम भीख क्यों मांगते हो?’’
वह बोला, ‘‘मैं बहुत गरीब हूं।’’
व्यक्ति ने भिखारी से कहा, ‘‘तुम अपनी दोनों आंखें मुझे दे दो। इनके बदले मैं तुम्हें एक लाख रुपए दूंगा।’’
भिखारी ने कहा, ‘‘यह कैसे हो सकता है कि मैं तुम्हें पैसों के बदले अपनी आंखें दे दूं।’’
‘‘तो फिर दूसरा कोई अंग ही मुझे दे दो, जिसके बदले मैं तुम्हें मुंह मांगी कीमत दे दूंगा।’’
लेकिन भिखारी इस पर भी राजी नहीं हुआ। तब उस सज्जन ने कहा, ‘‘जब तुम्हारे शरीर के अंग-प्रत्यंग इतने कीमती हैं तो फिर तुम गरीब कैसे हुए?’’
वास्तव में सबसे कीमती और दुर्लभ वस्तु है, मनुष्य का शरीर। मनुष्य रूप में जन्म लेना ही सबसे बड़ी समृद्धि है। इस शरीर से बड़ी आध्यात्मिक उन्नति की जा सकती है। यदि यह मानव-देह रोगों से मुक्त है तो भी एक समृद्धि ही तो है। निरोगी काया को सुख का आधार माना गया है। यदि मनुष्य आंतरिक रूप से समृद्ध नहीं है तो बाह्य समृद्धि भी उसे सुख की अनुभूति नहीं करा सकती। सबके मन में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के विचार रहते हैं, लेकिन जहां अच्छे विचार होंगे वहां समृद्धि तथा बुरे विचार होंगे वहां विपत्ति अर्थात अभाव प्रकट हो जाते हैं।