सुख पाने की इच्छा में अपने आनंद को न खोएं

punjabkesari.in Thursday, Jan 09, 2020 - 05:33 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
सुखों का भोग करना प्रत्येक मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। वास्तव में भोग शब्द का अर्थ सुख के अनुभवों को एकत्र करने की चाह है। आश्चर्य की बात नहीं कि ‘भोग’ को प्राथमिकता देने की हमारी प्रवृत्ति ने वर्तमान समय को उपभोक्तावादी बना दिया है। उपभोक्तावादी समय में ‘भोग’ जीवन का केंद्र बिंदु बन गया है और इस कारण हमारा समस्त जीवन सुख के संसाधनों को एकत्र करने में खर्च हो रहा है। सुख के 3 स्रोत हैं-धर्म, अर्थ और काम। इसके अतिरिक्त सुख के संसाधनों का अन्य कोई प्रायोजन नहीं है। मनुष्य सुख की जितनी इच्छा करता है, उतना ही वह दुख से बचने की कोशिश करता है परन्तु सुख और दुख साथ-साथ चलते हैं। जहां आप सुखों का पीछा करते हैं, दुख आपका पीछा करता है। सारा जीवन इसी चक्र में उलझ कर निरर्थक प्रतीत होने लगता है। दरअसल दुख से निवृत्ति असंभव है इसलिए बौद्ध दर्शन में दुख को जीवन का एक आर्य सत्य कहा गया है और न्याय दर्शन में सुख और दुख दोनों को वेदना कहा गया है।
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सुख और दुख के उफान और उतार से दूर आनंद है जिसे शांति भी कहा गया है। आनंद की अभिव्यक्ति प्रत्येक मनुष्य के भीतर सच्चिदानंद (सत्+चित्+आनंद) है, जिसे ब्रह्मा भी कहा गया है। हमारे जीवन की त्रासदी है कि हम आनंद को छोड़कर उसकी परछाईं सुख का पीछा करते हैं। जीवन का एक कटु सत्य है कि जिस भी चीज का आप पीछा करेंगे-सफलता, धन, प्रतिष्ठा आदि वह आपकी पहुंच से बाहर निकलती जाएगी। आनंद का भाव आपके अंदर विद्यमान है। ऐसे में यह सोचना स्वाभाविक है कि अगर आनंद का भाव हमारे अंदर है तो फिर हम हताशा से क्यों घिरे होते हैं? मानसिक थकान, उदासी, निरुत्साह क्यों हमारे सहचर बन गए हैं? इसका उत्तर है कि आप किसी भी समय पूर्णता के साथ उपलब्ध नहीं होते हैं। हमेशा आप बंटे होते हैं, यह बंटवारा या तो अपेक्षाओं का होता है या फिर विगत का अपराधबोध और ऐसा करके आप अपने आनंद भाव में सेंध लगा देते हैं।

जब आप आनंदित होकर जीवन जीते हैं, आप शक्ति से युक्त होते हैं। जीवन के प्रति आपका सकारात्मक नजरिया होता है। जिन कार्यों को करने में आपको आनंद आता है उन्हें सम्पन्न करने के लिए आप स्वयं उत्सुक होते हैं। इसी सिद्धांत को अपनाने की आवश्यकता है।


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