महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती: एक रात में बदल गया साधारण बालक का जीवन, पढ़ें कथा

punjabkesari.in Tuesday, Feb 18, 2020 - 08:57 AM (IST)

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सिंहों की धरती टंकारा (गुजरात) में 12 फरवरी सन् 1824 में मूल शंकर के रूप में जन्मे महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने आर्यावर्त को पुन: आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाने में विशेष भूमिका निभाई। महाशिवरात्रि की रात उनके लिए जिज्ञासा का वह सवेरा लाई जिसमें ब्राह्मण वंशीय दयानंद ने माता-पिता का घर त्याग कर सच्चे शिव को पाने का प्रण ले लिया। हाथ में पैसा नहीं, तन पर कोपीन के अलावा दूसरा वस्त्र नहीं और ऊपर से उनके गुरु विरजानंद जी ने गुरु दक्षिणा के रूप में पूरा जीवन विश्व गुरु भारत के प्रति सेवा व समर्पण के लिए मांग लिया और यह ब्रह्मचारी केवल परमात्मा व गुरु के आशीर्वाद को शिरोधार्य मानकर कल्याण मार्ग का पथिक बनकर अकेला ही चल दिया।

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‘वेदों की ओर लौटो’ का संदेश देकर उन्होंने भारतीय गरिमा को पुनर्स्थापित किया। बाह्याडंबरों में फंसे साधुओं और उनके चेलों ने उनकी स्पष्ट बयानी के बदले में उन्हें पत्थर मारे, पानी में डुबोने की कोशिश की, झूठे लांछन लगाए, फिर भी दृढ़ प्रतिज्ञ स्वामी दयानंद ने अपने अकाट्य तर्कों वाले शास्त्रार्थों के द्वारा वेद ज्ञान की पताका फहराते हुए सत्य की राह को थामे रखा। यहां तक कि वैदिक प्रचार करते हुए जब वह जोधपुर पहुंचे तो जोधपुर नरेश ने इनकी प्रखर प्रतिभा से प्रभावित होकर इनके सामने एकलिंग महादेव मंदिर के मठाधीश बनने का प्रस्ताव रखा। निर्लोभी दयानंद ने इसके प्रत्युत्तर में जो कहा, वह नि:संदेह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है। 

उन्होंने कहा, ‘‘धन तो मेरे पिता जी के पास भी काफी था, यदि मुझे धन से प्यार होता तो मैं घर क्यों छोड़ता! वैसे भी तुम्हारे राज्य से तो निकल कर कहीं और चला जाऊंगा लेकिन ईश्वर के राज्य से निकल कर कहां जाऊंगा?’’

निर्मल हृदय दयानंद ने गंगा किनारे एक मृत बालक के शव पर उसकी मां को अपनी साड़ी का आंचल फाड़ ओढ़ाते देखा तो उनकी आंखों से झरझर आंसू बहने लगे। भारत की मातृशक्ति के त्याग और बलिदान के समक्ष नतमस्तक होते हुए उन्होंने नारी जाति की दशा सुधारने का प्रण लिया और इसीलिए उन्होंने नारी जातिको वेद पढऩे और शिक्षा प्राप्त करनेे की अधिकारिणी बनाया।

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एक बार एक मंदिर के पास एक छोटी-सी बच्ची के सामने उन्होंने सिर झुकाया तो पंडे प्रसन्न हो उठे और कहने लगे, ‘‘देखो! दयानंद ने मंदिर की देवी को मान लिया। मूर्ति पूजा का विरोधी दयानंद मूर्ति पूजा का समर्थक हो गया है।’’ 

यह सुनकर दयानंद जी ने कहा,‘‘मैंने तो दया प्रेम और करुणा की सजीव मूर्ति नारी जाति को नमन किया है, मूर्ति पूजा से तो मेरा दूर-दूर तक कोई नाता न है और न हो सकता है।’’  

विधवा विवाह जो कल भी समाज के लिए कलंक माना जाता था और कहीं-कहीं तो अभी भी अनुचित माना जाता है, दयानंद जी ने वेदों से दृष्टांत देते हुए उन सभी रूढि़वादियों के कुतर्कों का कड़ा प्रत्युत्तर दिया और विधवा विवाह को समाज में स्वीकृति दिलाई। 

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दयानंद जी के अनुसार बुरे से बुरा स्वदेशी राज्य भी अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से कहीं अधिक बेहतर है इसीलिए सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम के दौरान 5 से 7 वर्ष का उनका अज्ञातवास स्वदेश, स्वदेशी और स्वराज्य के लिए क्रियाशील रहा। अपुष्ट सूत्रों से प्राप्त जानकारियों के आधार पर कहा जा सकता है कि मध्य भारत में रह कर उन्होंने अपने अज्ञातवास के दौरान क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन किया और यहां तक कि तत्कालीन पेशवाओं को संगठित कर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की सहायता के लिए राजी किया। उन्होंने वेदों का भाष्य करके वेदों को जन-जन तक पहुंचाया। सन् 1876 में इनके द्वारा दिए गए स्वराज्य के नारे को लोकमान्य तिलक ने कालांतर में जन-जन तक पहुंचाया।

यदि ऋषिवर दयानंद की समाज सुधार की प्रक्रिया सन 1883 में उनकी अकाल मृत्यु के कारण रुक न जाती तो निश्चय ही भारत को विश्व गुरु का स्थान पुन: प्राप्त करने में कोई देरी न होती। अभी भी यदि भारत को विश्व गुरु बनाने की चाह आर्य जाति के मन में है तो ऋषि की बातों को मर्म समझ कर उन्हें अपनी कर्मभूमि का आधार बनाना ही होगा। उनके जन्मदिवस पर हमारा शत-शत प्रणाम है उस महामना महान आत्मा को जिसने बुझते-बुझते भी ज्ञान के अनेक दीपक जलाए, परंतु उससे भी आगे बढ़कर आज जरूरत उस मार्ग पर चलने की है जो महर्षि जी ने सुझाया था।


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Niyati Bhandari

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