Labour Day: मजदूर की मजदूरी उसका पसीना सूखने से पहले-पहले अदा कर दी जाए
punjabkesari.in Friday, May 01, 2020 - 09:31 AM (IST)
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International Labour Day 2020: एक मई का दिन समस्त विश्व में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के तौर पर मनाया जाता है। इसकी शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है जब अमेरिका की मजदूर यूनियनों ने काम का समय 8 घंटे से अधिक न रखे जाने के लिए हड़ताल की। इस दौरान शिकागो की हे मार्कीट में बम धमाका हुआ। यह बम किसने चलाया उस समय इसका कोई पता नहीं चला था परंतु पुलिस द्वारा मजदूरों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई गईं, जिसके परिणामस्वरूप 7 मजदूर मारे गए। उक्त घटनाओं के संबंध में भले कोई फौरी प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली परंतु कुछ समय बीतने के बाद अमेरिका में 8 घंटे काम करने का समय निश्चित कर दिया गया और यह एक तरह से मजदूरों के संघर्ष की पहली बड़ी जीत थी। मौजूदा समय में अन्य देशों की तरह भारत में भी मजदूरों के लिए 8 घंटे काम करने संबंधी कानून लागू है।
आज जब हम मजदूरों के अधिकारों की बात करते हैं तो मैं समझता हूं कि आज से करीब 1450 वर्ष पहले पैग बर हजरत मोहम्मद ने न सिर्फ मजदूरों के अधिकारों की बात की बल्कि विशेष तौर पर विश्व के तमाम लोगों को यह दिशानिर्देश भी दिए कि ‘मजदूर की मजदूरी उसका पसीना सूखने से पहले-पहले अदा कर दी जाए।’ अपने अंतिम संबोधन के दौरान भी उन्होंने विश्व भर के पूंजीवादी या अमीर लोगों को अपने अधीन काम करते कारिंदों (खादिमों) अर्थात मजदूरों के हकों को पूरा करते रहने की प्रेरणा देने के साथ-साथ उनका शोषण करने वालों को उस सच्चे रब की दरगाह में अपना अंजाम भुगतने की भी चेतावनी दी।
इसी प्रकार भारत के संदर्भ में बात करें तो सबसे पहले गुरु नानक देव जी ने किसानों तथा मजदूरों के हक में उस वक्त आवाज बुलंद की जब उन्होंने तत्कालीन अहंकारी हाकिम मलिक भागो की रोटी न खाकर उसका अहंकार तोड़ा और उसके स्थान पर भाई लालो की श्रम की कमाई को सम्मान दिया।
यदि उर्दू शायरी के संदर्भ में मजदूर वर्ग के अधिकारों की बात करें तो इसमें कोई शक नहीं कि उर्दू के सब प्रगतिशील शायरों ने मजदूरों के जीवन पर अलग-अलग ढंग से अपनी सोच का इजहार किया है। यदि बात करें मोहब्बत की निशानी ‘ताज महल’ की तो जब कवि का महबूब उसे ताज महल में मिलने की जिद करता है तो साहिर लुधियानवी अपनी नज्म ‘ताजमहल’ में अपनी महबूब को मिलने से गुरेज करता हुआ यह कहता है कि ताजमहल मोहब्बत की निशानी नहीं बल्कि पूंजीवादी समाज की ओर से हम जैसे गरीब मजदूर लोगों की मोहब्बत का एक किस्म का मजाक है क्योंकि ताजमहल को इतनी सुंदर और बेहतरीन शक्ल देने वाले कारीगरों या मजदूरों को भी अपनी पत्नियों के साथ जरूर शहंशाह की तरह ही प्यार होगा परंतु दुखांत यह है कि उनके पास उनकी पत्नियों की यादगार बनाने के लिए इतना धन या साधन नहीं थे क्योंकि वे गरीब थे और यहां तक कि उनके पूरे के पूरे जीवन कभी न खत्म होने वाले अंधकार तथा गुमनामी में खो गए। इसलिए साहिर अपनी महबूब को कहता है कि:-
ताज तेरे लिए एक मजहिरे उल्फत ही सही,
तुझको इस वादी-ए-रंगीं से अकीदत ही सही।
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।
बज्म-ए-शाही में गरीबों का गुजर क्या मानी,
सब्त जिस राह में हो सतूत-ए-शाही के निशां,
उस पर उल्फत भी रूहों का सफर क्या मानी,
एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर,
हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक,
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।
जैसा कि हम सब महसूस करते हैं कि आज मजदूरों के अथक परिश्रम के बावजूद उनके जीवन में कोई बड़ी तबदीली देखने को नहीं मिलती और कई बार तो हालात के जुल्म यहां तक पहुंच जाते हैं कि इनके घरों के चूल्हे ठंडे पड़ जाते हैं और इन्हें कई-कई दिन तक फाके करने पड़ते हैं। शायद इसी संदर्भ में एक कवि ने व्यंग्यमय अंदाज में कहा है:-
अगर मेहनत से दुनिया में बदल सकती हैं तकदीरें, परेशां हाल फिर मजदूर क्यों है, हम नहीं समझे।
आज जिस तरह अलग-अलग दफ्तरों में मुलाजिमों के जो हालात हैं उसकी तस्वीर एक शायर ने कुछ इस तरह पेश की है:-
वो मुलाजिम है
उसे हुक्म हैं घर जाए न,
मुझको डर है कि वो
दफ्तर में ही मर जाए न।
इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर कहते हैं:-
आज भी दौर-ए-हुकूमत वही पहले सा है, आज भी गुजरे हुए वक्त का खादिम हूं मैं।
कठिन परिश्रम के बावजूद जब एक मजदूर अपने बच्चों के अरमान पूरे करने के लिए पैसे नहीं जुटा पाता तो ऐसे हालात में एक बच्चा अपने गरीब मजदूर पिता के साथ बाजार जाता है तो बच्चे और पिता की मनोवृत्ति की तस्वीर एक कवि ने इस तरह पेश की है:-
उसे भी मेरी मुआशी हैसियत का इल्म है शायद, मेरा बच्चा अब महंगे खिलौने छोड़ जाता है।
इसी तरह एक अन्य कवि अपने भाव इस प्रकार पेश करता है:-
मुझको थकने नहीं देते हैं जरूरत के पहाड़, मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते।
एक मजदूर की मेहनत के चलते उसके हाथों में जो गांठें पड़ जाती हैं उस संबंध में प्रसिद्ध शायर जांनिसार अख़्तर अपने विचार कुछ इस तरह प्रकट करते हैं:-
और तो मुझको मिला क्या मेरी मेहनत का सिला, चंद सिक्के हैं मेरे हाथ में छालों की तरह।
महात्मा गांधी ने भी कहा था कि किसी देश की प्रगति उस देश के मेहनतकश मजदूरों तथा किसानों पर निर्भर करती है परंतु आज उनकी जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है। हालात यह है कि दिन-रात बढ़ती महंगाई ने जहां मध्यम वर्ग की कमर तोड़ रखी है, वहीं मजदूर वर्ग के लिए जीवन का एक-एक दिन काटना मुश्किल लगता है। मजदूरों तथा किसानों में अपने भविष्य को लेकर अधिक निराशा पाई जा रही है। यहां तक कि कई तो आत्महत्या करके अपनी जीवन लीला समाप्त करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। शायद इसी को ध्यान में रख कर प्रसिद्ध कवि इकबाल ने कहा था:-
उठो मेरी दुनिया के गरीबों को जगा दो,
काख-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो।
जिस खेत से दहकान को मयस्सर नहीं रोजी,
उस खेत के हर खूशा-ए-गंदुम को जला दो।