Geeta Gyan: कौन हैं ये दो साथी जो कभी आपका साथ नहीं छोड़ते ? जानें गीता का ज्ञान

punjabkesari.in Thursday, Dec 04, 2025 - 02:54 PM (IST)

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Geeta Gyan: श्रीमद्भगवद्गीता, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में अर्जुन को दिया था, वह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव जीवन का सार है। इसमें जीवन की हर समस्या का समाधान, हर दुविधा का उत्तर और परम सत्य का ज्ञान समाहित है। जब यह प्रश्न उठता है कि जीवन के सच्चे साथी कौन हैं तब गीता का उपदेश हमें उन दो शाश्वत सत्यों से परिचित कराता है, जो हर परिस्थिति में हमारे साथ रहते हैं और हमें सही मार्ग दिखाते हैं। गीता के गहन दर्शन के अनुसार, व्यक्ति का सच्चा और अटल साथ निभाने वाले ये दो साथी हैं:

आत्मा 
गीता के अनुसार, हमारा सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण साथी वह आत्मा है, जो हमारे शरीर के अंदर निवास करती है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि शरीर नश्वर है, यह जन्म लेता है और मर जाता है, लेकिन आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥ 

अर्थ: इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गीला कर सकता है और न वायु सुखा सकती है। यह आत्मा ही हमारा वास्तविक स्वरूप है। संसार में सभी रिश्ते-नाते, धन-संपत्ति, शरीर और सुख-दुःख क्षणिक हैं, वे आते हैं और चले जाते हैं। लेकिन आत्मा हर जन्म में हमारे साथ रहती है। इस सत्य को जान लेना ही सच्चा आत्मज्ञान है।

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मन का मित्र या शत्रु
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमारा मन ही हमारा सबसे बड़ा मित्र भी है और शत्रु भी। यदि हम अपने मन को वश में कर लेते हैं, उसे सही दिशा में लगाते हैं, तो वह हमारी आत्मा के साथ मिलकर एक सच्चे मित्र की तरह काम करता है, जो हमें मोक्ष और शांति की ओर ले जाता है।

बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥ अर्थ: जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसके लिए वह मन उसका सच्चा मित्र है। लेकिन जो ऐसा नहीं कर पाता, उसके लिए उसका मन ही शत्रु के समान व्यवहार करता है। इसलिए, अपने भीतर की आत्मा और नियंत्रित मन को पहचानना ही जीवन का सबसे पहला और अनिवार्य साथ है। अपने अंदर की शक्ति और चेतना पर विश्वास करना ही आत्मा का सच्चा साथ निभाना है।

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निष्काम कर्म
जीवन का दूसरा सच्चा साथी है कर्म, जो हम बिना किसी फल की इच्छा के करते हैं। कर्म हमारे जीवन की पहचान हैं और यही इस संसार में हमारी यात्रा का आधार हैं।

कर्म का सिद्धांत
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। कर्म करना हमारा स्वभाव है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ 

अर्थ: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल में कभी नहीं। तुम कर्म के फल के हेतु मत बनो और न ही कर्म न करने में तुम्हारी आसक्ति हो।

निष्काम कर्म ही वह सच्चा साथी है, जो हमें बंधन से मुक्त रखता है। जब हम फल की चिंता छोड़कर केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान देते हैं, तो हम सफलता या असफलता, लाभ या हानि, सुख या दुःख में समान भाव रखते हैं। यही 'योग' है।

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Content Editor

Prachi Sharma

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