Dharmik Concept: कर्मयोग से पवित्र होता है हृदय

punjabkesari.in Wednesday, Dec 15, 2021 - 06:07 PM (IST)

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कर्मयोग मानव जीवन में कैसे अपनाया जा सकता है? इसे यूं समझिए कि नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा को कर्म फल कहा जाता है। कर्मयोग के अभ्यास से हृदय पवित्र हो जाता है, जिससे दिव्य ज्योति और आत्मज्ञान का प्रकाश स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाता है। कर्म करते रहो, फल की आशा मत करो। अनुभव करो कि आप भगवान के हाथों के खिलौने हैं, वे आपके द्वारा सभी कार्य संपादन करा रहे हैं। सफलता और विफलता में समान और शांत रहना सीखो। कर्मों के बंधन में कभी मत पडऩा। यह कर्मयोग का सार है।

जब आप दूसरों की सेवा करते हो, तो यह विचार करो कि आप उनके अंदर निवास करने वाले भगवान की ही सेवा कर रहे हो। आपकी आत्मा ही सबमें व्यापक है। अत: दूसरों की सेवा में भी आप अपनी ही सेवा कर रहे हो। भक्ति और ज्ञान का कर्मयोग से समन्वय करो।

कर्मयोगी के लिए जिन सद्गुणों का संचय अनिवार्य है, वे हैं-विनम्रता, आत्मसमर्पण, त्याग, शांति, साहस, आत्मनिर्भरता, सत्यशीलता, विश्वप्रेम, दया, उदारता, एकाग्रता और हर अवस्था में युक्तिपूर्वक रहने की कला। स्वार्थी, आलसी और चालाक व्यक्ति कर्म के अभ्यास के योग्य नहीं हैं।
कर्मयोगी धीर होता है। वह अपने मार्ग के विघ्नों को साहसपूर्वक दूर करता है। वह वीरता के साथ अपने पथ की कठिनाइयों पर विजय पाता है, निराश नहीं होता।

दानशील बनो। बीमारों की सेवा करो। गरीबों को सहायता दो। अपने देश की सेवा में तन्मय रहो। अपने माता-पिता की सेवा करो। किसी समाज सुधारक अथवा धार्मिक संस्था को अपना सहयोग दो। सद्भावना के साथ अपने प्रत्येक कार्य को करते जाओ। अपने प्रत्येक कर्म को आध्यात्मिक कसौटी पर कसो। सद्भावना से कार्य किया जाए तो वह योग हो जाता है और परमात्मा के चरणों में सुंदर फूल के समान अॢपत किया जा सकता है। कर्मयोग के अभ्यास में भाव का स्थान प्रधान है।

कर्मयोग प्रत्येक प्रकार के मानसिक उलझनों को दूर हटाता है। भेदभाव और वैमनस्य को समाप्त कर, कर्मयोग का अभ्यास, व्यक्ति और समाज को एकता और समानता की ओर प्रेरित करता है। कर्मयोग से आलस्य और जड़ता का निराकरण होता है। कर्मयोग से स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन की  प्राप्ति होती है। कर्मयोग की महिमा अपार है, क्योंकि यह मनुष्य को दिव्य चरित्र और अद्वैत निष्ठा सम्पन्न बना देता है।

आत्मसमर्पण और भगवत्कृपा
आत्मसमर्पण को ईश्वर प्रणिधान भी कहते हैं। इसका अर्थ है कि भक्त अपने कार्य और उनके फलों को पूर्णतया परमात्मा के अर्पण कर देता है। उसकी अपनी व्यक्तिगत कामनाएं नहीं रहतीं। उसके उद्गार तो ये हैं: ‘‘मैं आपका, सभी आपके हैं। आपकी इच्छा ही महान है। आपका न्याय ही महान है। आप ही मेरे द्वारा सब कुछ लीला करा रहे हो। मैं तो केवल निमित्त मात्र हूं।’’

इस प्रकार भक्त जब अपनी कामनाओं  को परमात्मा के अर्पण कर चुकता है तो उसके संकल्प दिव्य संकल्प बन जाते हैं।

कठोपनिषद में कहा है जो अपने को पूर्ण समर्पण कर चुका है, उसी को भगवान चुनते हैं, उसी के सामने प्रकट होते हैं और उसको परम ज्ञान का उपदेश देते हैं।

यदि आत्मसमर्पण पूर्ण हुआ तो भगवत्कृपा भी आपको पूर्ण मात्रा में प्राप्त होगी। भगवत्कृपा की प्राप्ति सर्वथा और सर्वदा आत्मसमर्पण की मात्रा पर निर्भर करती है। इस मार्ग में दो विघ्न हैं, वे हैं अहंकार और इच्छाएं। ये शत्रु लुक छिप कर आक्रमण करते हैं, अनेकों वेष धारण कर भक्तों को संतप्त करते रहते हैं।

अत: चारों ओर नजर फेरते रहो कि कहीं ये दुश्मन किसी रूप में आकर तुमको ठग न लें। जब अवसर मिले, बिना किसी विचार के इन दोनों वैरियों को सदा के लिए दबा दो, तभी सुरक्षित रह पाओगे।

भगवान की कृपा चाहिए, तभी साधना में बल का आविर्भाव होता है। गुरु, कृपा भी भगवत्कृपा ही जानो। भगवान की कृपा के बल पर ही अनेक बाधाओं का निराकरण होता है। तुम आध्यात्मिक पथ अपना चुके, यह भी भगवान की ही कृपा जानो। आप साधना में काफी उन्नति कर चुके हैं, यह भी भगवान की कृपा का प्रसाद है। जब आपके दिव्य चक्षु खुल जाएं तो यह समझना कि अपनी साधना के बल से ही यह संभव नहीं हुआ-यह तो भगवत्कृपा ही है जिस दिन परमात्मा की कृपा से उनके दर्शन होंगे, वह भी उनकी कृपा का उदाहरण रहेगा।

संसारी व्यक्ति आसक्ति के बिना कोई कार्य नहीं करते। वे अपने को कर्मफल का उपभोक्ता समझ लेते हैं। यदि वे किसी व्यक्ति को एक गिलास जल भी देते हैं तो बदले में वे कुछ न कुछ आशा करते हैं।  -ब्रह्मलीन म. मं. श्री स्वामी शांतानंद जी महाराज


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Jyoti

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