Dadi Janki Story: दूसरों की भलाई के लिए समर्पित था दादी जानकी का संपूर्ण जीवन
punjabkesari.in Thursday, Jun 13, 2024 - 10:40 AM (IST)
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Dadi Janki Story: दादी (बड़ी बहन) जानकी वर्ष 2007 से 2020 तक आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा देने वाले अंतर्राष्ट्रीय संगठन, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय की प्रशासनिक प्रमुख थीं। उनका जन्म 1 जनवरी, 1916 को उत्तर भारतीय प्रांत सिंध (अब पाकिस्तान में) में हुआ। उनका 27 मार्च, 2020 को निधन हो गया।
अपने शुरुआती दिनों से ही, दूसरों की भलाई के लिए चिंता उनके जीवन में एक प्रेरक शक्ति थी। एक ऐसा जीवन, जो दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए आदर्श बन गया और जिन्होंने अपने जीवनकाल में आध्यात्मिकता में उत्कृष्टता प्राप्त की, उन्हें बचपन में अकथनीय दमन और कष्टों का सामना करना पड़ा। जो व्यक्ति धर्मग्रंथ पढ़ने का इतना शौकीन था, उसे जबरन आध्यात्मिक कक्षाओं और शिक्षा से दूर रखा जाता था लेकिन दादी जानकी की दृढ़ इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प ने प्रतिरोध, बीमारी, सामाजिक और घरेलू दबाव के पहाड़ों को पार करने में मदद की।
उनकी बचपन की यादों में दूसरों को शाकाहारी भोजन के फायदे समझाने के लिए अपने पिता के घोड़े और गाड़ी पर घूमना, बीमारों और बुजुर्गों के साथ बैठकर उनका उत्साह बढ़ाने में मदद करना शामिल हैं। एक आध्यात्मिक शिक्षक और नेता, दादी जानकी ने अपनी आंतरिक शांति और शक्ति विकसित करने के लिए काम किया। उन्होंने जो स्थिरता प्राप्त की, वह ऐसी थी कि वह ब्रह्माकुमारीज की प्रमुख के रूप में 104 वर्ष की आयु तक सक्रिय रूप से सेवा करने में सक्षम थीं। वह जीवन जीने की कला में ज्ञान का स्रोत बन गईं।
12 वर्ष की आयु से लेकर अपने जीवन के अधिकांश समय में दादी जानकी को कई बीमारियां झेलनी पड़ीं। इनसे निपटने से उन्हें शारीरिक दुर्बलता पर विजय पाने की अपनी क्षमता विकसित करने और उसे निखारने में मदद मिली।
जिस तरह से उनकी खुद की देखभाल का ध्यान उनके विचारों की गुणवत्ता पर था, उसी तरह उन्होंने सभी स्वास्थ्य चिकित्सकों को मरीजों के साथ बातचीत में उनकी खुद की मन:स्थिति के महत्व पर जोर दिया और यह भी, कि उनके मरीज के ठीक होने में इसकी अच्छी भूमिका होगी। इससे देखभाल का माहौल बनेगा और दूसरों को शारीरिक शक्ति हासिल करने में मदद मिलेगी।
प्रजापिता ब्रह्मा बाबा (दादा लेखराज कृपलानी) ने 1974 में दादी जानकी को अंतर्राष्ट्रीय सेवाएं शुरू करने के लिए लंदन भेजा, तो पहले तो इन्हें जाने में झिझक हुई क्योंकि उन्हें न तो अंग्रेजी आती थी और न ही उनकी संस्कृति लेकिन भगवान की इच्छा को समझते हुए और विश्वास रखते हुए, दादी सेवा के लिए निकल गईं। लंदन, यूरोप में खुलने वाला पहला बी.के. केंद्र बन गया। इसकी शुरुआत राजयोग ध्यान की शिक्षा से हुई और उसके बाद मुरली का अध्ययन हुआ।
दादी ज्यादा नहीं बोलेंगी, लेकिन मौन की शक्ति सिखाएंगी। उन्होंने ऐसी कक्षाएं भी संचालित कीं, जहां एक बहन अंग्रेजी में अनुवाद करती थी। दादी ने सफलतापूर्वक शामिल होने वाले बी.के. के मन में आध्यात्मिकता, दिव्यता और मूल्यों की जड़ें जमा दीं। वह विश्व सेवा का माध्यम बन गईं। ये जड़ें अब पूरे विश्व में 147 से अधिक देशों में व्यापक रूप से फैली हुई हैं।
अगस्त 2007 में दादी प्रकाशमणि जी के निधन के बाद दादी जानकी ने पूरे यज्ञ की जिम्मेदारी ली। फिर दादी मधुबन में शिफ्ट हो गईं और वहीं से ही सभी सैंटर्स को गाइड करती थीं। 104 वर्ष की आयु (जीवन के अंतिम दिन) में भी दादी ने शरीर से नहीं, शुभकामनाओं और स्पंदनों से सेवा की। दादी का प्रारंभिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन, दोनों ही त्याग और विश्व सेवा से परिपूर्ण थे।