Buddha Purnima 2019: राजा का बेटा कैसे बना बौद्ध धर्म का संस्थापक, पढ़ें जीवन गाथा

punjabkesari.in Saturday, May 18, 2019 - 12:27 PM (IST)

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प्रतिवर्ष वैशाख मास की पूर्णिमा को ‘बुद्ध पूर्णिमा’ के रूप में मनाया जाता है, जिसे ‘बुद्ध जयंती’ भी कहते हैं। माना गया है कि 563 ईस्वी पूर्व वैशाख मास की पूर्णिमा के ही दिन लुम्बिनी वन में शाल के दो वृक्षों के बीच गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था और वैशाख मास की पूर्णिमा को ही 35 वर्ष की आयु में 528 ई. पू. गौतम बुद्ध ने बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे बुद्धत्व प्राप्त किया था तथा वैशाख पूर्णिमा को ही 80 वर्ष की आयु में 483 ई. पू. गौतम बुद्ध ने उत्तर प्रदेश में कुशीनगर में हिरण्यवती नदी के तट पर महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। 

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यही कारण है कि बौद्ध धर्म में वैशाख मास की पूर्णिमा को ‘त्रिविध पावन पर्व’ भी कहा गया है और संभवत:यही वजह है कि बौद्ध धर्म में बुद्ध पूर्णिमा को सबसे पवित्र दिन माना गया है। मान्यता है कि गौतम बुद्ध ने ही आज से करीब अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म की स्थापना की थी।

गौतम बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था। गौतम उनका गोत्र था किन्तु कालांतर में वह सिद्धार्थ गौतम, महात्मा बुद्ध, भगवान बुद्ध, गौतम बुद्ध, तथागत आदि विभिन्न नामों से जाने गए। शाक्य वंश से संबंध होने के कारण सिद्ध को ‘शाक्यों का संत’ भी कहा गया। सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोधन थे, जो कपिलवस्तु के शाक्य वंशीय राजा थे। 

सिद्धार्थ के जन्म के कुछ ही समय पश्चात् एक बहुत पहुंचे हुए संन्यासी ने राजा शुद्धोधन को बताया कि यह बालक या तो बहुत महान् चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या फिर यह समस्त सांसारिक मोहमाया का परित्याग कर एक महान् संन्यासी बनेगा और विश्व का महान् उद्धारक साबित होगा। बालक के संन्यासी बनने की बात सुनकर राजा शुद्धोधन बहुत चिंतित हुए और उन्होंने सिद्धार्थ को मोहमाया और सांसारिक सुखों की ओर आकर्षित करने के लिए उनके समक्ष भोग-विलास तथा ऐश्वर्य के समस्त साधनों का ढेर लगा दिया लेकिन सिद्धार्थ हमेशा शांत और ध्यानमग्न ही रहा करते।

 अत: यही सोच कर कि कहीं सिद्धार्थ का मन सांसारिक सुखों से उचाट होकर पूरी तरह से वैराग्य में न लग जाए, राजा शुद्धोधन ने कम उम्र में ही एक अति सुंदर, सुशील, अति तेजस्वी सर्वगुण सम्पन्न राज कन्या यशोधरा के साथ उनका विवाह कर दिया। विवाह के पश्चात् सिद्धार्थ गौतम को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम रखा गया राहुल।

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बचपन से ही राजकुमार सिद्धार्थ घंटों एकांत में बैठकर ध्यान किया करते थे लेकिन फिर भी उन्होंने पुत्र जन्म तक सांसारिक सुखों का उपभोग किया परन्तु धीरे-धीरे उनका मन सांसारिक सुखों से उचाट होता गया और एक दिन वह मन की शांति पाने के उद्देश्य से भ्रमण के लिए अपने सारथी को साथ लेकर रथ में सवार हो महल से निकल पड़े। रास्ते में उनका मनुष्य की दु:ख की चार घटनाओं से साक्षात्कार हुआ। जब उन्होंने दु:ख के इन कारणों को जाना तो मोहमाया और ममता का परित्याग कर पूर्ण संन्यासी बन गए।

एक दिन रात्रि के समय पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को गहरी नींद में सोता छोड़ गौतम बुद्ध ने अपने घर-परिवार का परित्याग कर दिया और सत्य तथा ज्ञान की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते रहे। उन्होंने छ: वर्षों तक जंगलों में कठिन तप व उपवास किए और सूख कर कांटा हो गए किन्तु उन्हें ज्ञान की प्राप्ति न हो सकी। अत: उन्होंने एक दिन संन्यास छोड़ दिया और उनके शिष्य भी एक-एक कर उनका साथ छोड़ गए।

उसके बाद गौतम बुद्ध ने शारीरिक स्वास्थ्य व मानसिक शक्ति प्राप्त की और फिर वह बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर गहन चिंतन में लीन हो गए तथा मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि इस बार ज्ञान प्राप्त किए बिना वह यहां से नहीं उठेंगे। सात सप्ताह के गहन चिंतन-मनन के बाद वैशाख मास की पूर्णिमा को 528 ई. पू. सूर्योदय से कुछ पहले उनकी बोध दृष्टि जागृत हो गई और उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो गई।  उनके चारों ओर एक आलौकिक आभामंडल दिखाई देने लगा। उनके पांच शिष्यों ने जब यह अनुपम दृश्य देखा तो वे महात्मा बुद्ध के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा याचना करने लगे और इन शिष्यों ने ही उन्हें पहली बार ‘तथागत’ कहकर संबोधित किया। ‘तथागत’ यानी सत्य के ज्ञान की पूर्ण प्राप्ति करने वाला। पीपल के जिस वृक्ष के नीचे बैठकर सिद्धार्थ ने बुद्धत्व प्राप्त किया, वह वृक्ष ‘बोधिवृक्ष’ कहलाया और वह स्थान, जहां उन्होंने यह ज्ञान प्राप्त किया, बोध गया के नाम से विख्यात हुआ। बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद ही सिद्धार्थ को ‘महात्मा बुद्ध’ कहा गया।

अपने 80 वर्षीय जीवन काल के अंतिम 45 वर्षों में महात्मा बुद्ध ने दुनिया भर में घूम-घूमकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया और लोगों को उपदेश दिए। ईसा पूर्व 483 को वैशाख मास की पूर्णिमा को उन्होंने कुशीनगर के पास हिरण्यवती नदी के तट पर महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। उन्होंने उन्हीं शाल वृक्षों के नीचे प्राण त्यागे, जिन पर मौसम न होते हुए भी फूल आए थे। उनका अंतिम उपदेश था कि सृजित वस्तुएं अस्थायी हैं, अत: विवेकपूर्ण प्रयास करो।  मनुष्य की सबसे उच्च स्थिति वही है, जिसमें न तो बुढ़ापा है, न किसी तरह का भय, न चिन्ताएं, न जन्म, न मृत्यु और न ही किसी तरह के कष्ट और यह केवल तभी संभव है, जब शरीर के साथ-साथ मनुष्य का मन भी संयमित हो क्योंकि मन की साधना ही सबसे बड़ी साधना है।   

 

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Niyati Bhandari

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