प्राण त्यागने से पहले भीष्म पितामह ने इस विधि से की थी भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति
punjabkesari.in Saturday, Jan 13, 2024 - 07:46 AM (IST)
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Bhishma Pitamah Stuti: भीष्म पितामह का असली नाम देवव्रत था। माघ मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को उन्होंने अपने शरीर को छोड़ा था इसलिए उस दिन उनका निर्वाण दिवस ‘भीमाष्टमी’ के रूप में मनाया जाता है। एक दिन का प्रसंग है कि प्रजादोह से भयभीत हुए युधिष्ठिर समस्त धर्मों को जानने की इच्छा से कुरुक्षेत्र गए जहां शर शैय्या पर भीष्म पड़े थे।
युधिष्ठिर के साथ उनके सभी भाई रथ पर चढ़कर वहां गए तथा व्यास, धौम्य महर्षि भी वहां गए। अनुचरों तथा भगवान श्री कृष्ण के समक्ष सभी पांडवों ने भीष्म जी को प्रणाम किया। भीष्म जी ने मन ही मन उन सबका सत्कार किया। भगवान श्रीकृष्ण जगत के स्वामी हैं। उनके प्रभाव को जानने वाले भीष्म जी ने श्री भगवान की प्रेमपूर्वक अपने अंत:करण में पूजा की। जब भीष्म जी की दृष्टि पांडवों पर पड़ी तो उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बह चली और कहने लगे :
अहो कष्टमहोन्याय्यं
अद्यूयं धर्मनंदना।
जीवितुं नार्हथ क्लिश्टं
विप्रधर्माच्युताश्रया।
पांडव आप लोग धर्मपुत्र हैं, परन्तु आप लोगों के साथ बड़ा ही अन्याय हुआ, आप लोगों को बड़ा कष्ट मिला। भगवान के आश्रित होकर भी आप लोगों को इतना कष्ट भोगना आपके योग्य नहीं है। सारा संसार काल के वश में है। आप लोगों को भी कालकृत ही कष्ट भोगना पड़ा। जहां साक्षात धर्मपुत्र युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीम तथा गांडीवधारी अर्जुन रक्षा का काम कर रहे हों, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण मित्र हों, वहां भी विपत्ति की सम्भावना कैसे की जा सकती है ? पितामह भीष्म ने कहा युधिष्ठिर ! कोई ज्ञानी व्यक्ति भी यह नहीं जान पाता कि भगवान श्रीकृष्ण कब क्या करना चाह रहे हैं !
युधिष्ठिर ! सारा संसार उन्हीं के अधीन है, अत: उन्हीं का अनुसरण करते हुए प्रजा का पालन करो। श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं। यदुवंशियों में छिपकर ये लीला कर रहे हैं। ये केवल तुम्हारे संबंधी और हितैषी ही नहीं हैं अपितु इनका सबके प्रति समान भाव है। ये अपने अनन्य प्रेमी भक्तों पर बहुत अधिक कृपा करते हैं।
देखो जब मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूं तो ये मुझे दर्शन देने चले आए। अत: जब तक मैं अपने प्राणों का परित्याग नहीं कर देता हूं, तब तक ये भगवान मेरे समक्ष बने रहें।
पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर के धर्म के विषय में अनेक प्रश्नों का समाधान किया। भीष्म जी जिस समय युधिष्ठिर को धर्मोपदेश दे रहे थे, उसी समय प्राणत्याग करने के लिए उत्तरायण का समय आ गया। भीष्म जी ने सब ओर से अपना मन सावधान करके भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति प्रारंभ की जो भक्ति के भावों से परिपूर्ण थी। वह बोले :
इति मति रूप कल्पिता वितृष्णा भगवति शाश्वत पुंगवे विभूम्निा स्वसुखमुप गते क्वचिद् विहतु प्रकृतिमुपेयुशि सम्दव प्रवाह:।।
अर्थात अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने के कारण मेरी सबुद्धि शुद्ध एवं कामना रहित हो गई है, उसे मैं यदुवंश शिरोमणि अनंत भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूं। ये भगवान सर्वदा अपने आनंदमय स्वरूप में स्थित रहते हैं तथा कभी-कभी विहार करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार करते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चला करती है।
श्री भगवान त्रैलोक्य सुंदर हैं। ये पीताम्बरधारी हैं इनके कमल के समान सुंदर मुखमंडल पर घुंघराले बाल लटकते रहते हैं। उन अर्जुनसखा श्रीकृष्ण में मेरी निश्छल भक्ति हो।
इस तरह भीष्म पितामह ने पुष्पिताग्रा छंद के ग्यारह श्लोको से भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की। स्तुति करते-करते उनके प्राण रुक गए और भीष्म अपना अंतिम श्वास लेकर शांत हो गए। उस समय आकाश से पुष्पों की वृष्टि होने लगी। मुनियों ने भगवान की स्तुति की। इसके पश्चात श्री भगवान श्रीकृष्ण के साथ हस्तिनापुर जाकर महाराज युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र एवं गांधारी को सांत्वना प्रदान की और वह प्रजाओं का पालन करने लगे।