धर्म और religion के अंतर को जानें

punjabkesari.in Wednesday, Oct 07, 2015 - 09:18 AM (IST)

पूर्व काल की विवेचना करने पर कुछ तथ्य सामने आए जिनके अनुसार, पश्चिमी देश भारत को मुख्यतः हिमालय व बिन्दु सरोवर के मध्य की भूमि मानते थे। अतः हिमालय से ''हि'' व बिन्दु सरोवर से ''न्दु'' जोड़ने से हिन्दु शब्द बना और इस स्थान को हिंदुस्तान कहते थे व इसमें रहने वालों को हिन्दुस्तानी अथवा हिंदु कहा जाता था।

किन्हीं-किन्हीं इतिहासकारों के अनुसार सिन्धु नदी (Indus River) के उस पार के इलाके को कालन्तर से सिन्धु और धीरे-धीरे हिन्दु देश कहा जाता था व इसमें रहने वालों को हिन्दु। जैसे गंगा एक नदी है, उसी प्रकार सिन्धु को नदी कहते हैं।
 
संसार के अति प्रसिद्ध वैष्णव आचार्यों में से एक हैं श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी। वह धर्म शब्द के संबंध में बताते हुए कहते हैं कि धर्म का अर्थ होता है, ''स्वभाव'' अर्थात् जिस वस्तु का जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है।
 
धर्म और religion दोनों एक जैसा अर्थ प्रकाशित नहीं करते । हमें अंग्रेज़ी में धर्म के लिए कोई और शब्द नहीं मिलता इसलिए हम धर्म को religion कह देते हैं परंतु धर्म और religion में बहुत अंतर है। Oxford dictionary के अनुसार religion का अर्थ है A system of faith, अर्थात् विश्वास की पद्धति। हमें यह समझ लेना चाहिए कि केवल आनुष्ठानिक कार्य, विश्वास की पद्धति अथवा उपासना को ही धर्म नहीं कहते।  System of faith या उपासना तो एक उपाय है, एक religion है, जबकि धर्म का अर्थ होता है वस्तु का स्वभाव व वस्तु का ''nature''
 
एक और बात वो यह कि सनातन धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण लोग सनातन धर्म को केवल एक प्रकार के समुदाय का धर्म मानते हैं।
 
इस प्रकार की बहुत सी बातें हैं, जिसे हमने सुना और मान लिया। तथ्य में जानने की कोशिश नहीं की। शायद इसलिए कहते हैं कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की बहुत आवश्यकता है। खास करके भगवद् ज्ञान को प्राप्त करने के लिए तो सद्गुरु की आवश्यकता है ही। नहीं तो हम यह जानते होते कि हमारा वास्तविक धर्म क्या है? हम यहां क्यों आए हुए हैं ? हम यहां पर कष्ट क्यों भोग रहे हैं, भगवान कौन हैं? इत्यादि ।
 
वैसे धर्म दो प्रकार का होता है, नित्य और नैमित्तिक्। जैसे पानी का स्वभाव है तरलता, किंतु अधिक ठण्ड में वह बर्फ में परिवर्तित हो जाता है और अधिक गर्मी होने से वाष्प अथवा भाप बन जाता है। सामान्य परिस्थितियों में वही बर्फ या भाप फिर पानी बन जाता है। पानी के बर्फ अथवा भाप बनने में ठण्ड या गर्मी निमित्त हुई, इसलिए पानी का बर्फ के रूप में ठोस बनना या भाप के रूप में वाष्प बनना पानी का नैमित्तिक धर्म है जबकि तरलता उसका नित्य धर्म है जोकि हमेशा रहता है। इसी प्रकार जीव के भी दो प्रकार के धर्म देखे जाते हैं- नित्य और नैमित्तिक ।
 
श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार जीव भगवान की शक्ति का अंश है व आत्मा है अर्थात् चेतन है जबकि शरीर चेतन नहीं है। हम प्रतिदिन इन शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे ''मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरा सिर अथवा मेरा शरीर, मेरा मन, इत्यादि'' जबकि मैं शरीर या मैं मन ऐसा कोई नहीं कहता। इससे मालूम होता है कि मैं बोलने वाला, शरीर से व मन से अलग है।
 
व्यवहारिक रूप में भी सभी जगह जब तक शरीर में चेतन सत्ता रहती है तभी उसे व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है। चेतन सत्ता के चले जाने पर मुर्दा शरीर को कोई व्यक्ति नहीं कहता। इसलिए मुर्दा शरीर को जलाने से, पशु-पक्षियों को खिलाने से अथवा कब्र देने से, संसार के किसी कोने में दण्ड नहीं मिलता और न ही कहीं मुर्दे को वोट डालने का अधिकार है। इसी चेतन सत्ता को आत्मा, जीवात्मा अथवा जीव कहते हैं तथा आत्मा का स्वभाव ही जीव का नित्य धर्म है।
 
जैसे हाथ, शरीर से हैं, शरीर में हैं, शरीर के द्वारा हैं इसलिए हाथ का कर्त्तव्य होता है कि वह शरीर के लिए रहे। यदि हाथ शरीर से अलग हो जाएं तो दुनिया का कोई भी डाक्टर उसे सुखी नहीं कर सकता। इसी प्रकार जीव भगवान से है, भगवान में है, भगवान के द्वारा है, इसलिए भगवान के लिए रहना ही जीव का एकमात्र धर्म है अर्थात् भगवान की सेवा करना ही जीवात्मा का नित्य धर्म है। इसी को सनातन धर्म कहते हैं।
 
सनातन का अर्थ होता है नित्य अर्थात् जो पहले भी था, अभी भी है और बाद में भी रहेगा। किन्तु शरीर का धर्म सनातन नहीं हो सकता क्योंकि शरीर तो नाशवान है। जब शरीर ही अनित्य है तो उसका धर्म भी अनित्य ही होगा। जीवात्मा को चोले के रूप में जो शरीर मिलता है, वहां पर शरीर का जो धर्म है उसे हम नैमित्तिक धर्म कह सकते हैं। जैसे दान, तपस्या, यम-नियम, अथवा पशु धर्म, पक्षी धर्म व मानव धर्म, इत्यादि।
 
मद् भगवद् गीता के अनुसार सभी प्राणी आत्मा हैं व आत्मा नित्य है। नित्य आत्मा का धर्म भी नित्य है व उसे ही सनातन धर्म कहते हैं। सनातन धर्म केवल एक देश, प्रदेश, जाति, रंग, का नहीं अपितु सभी प्राणियों का धर्म है।
 
जीवात्मा भगवान की शक्ति का अंश है। शक्ति हमेशा शक्तिमान के अधीन रहती है व उसकी सेवा करती है इसलिए भगवान की सेवा ही जीवात्मा का सर्वोत्तम धर्म है। यही आत्म-धर्म, भागवत धर्म है, सनातन धर्म है और जीव का स्वाभाविक धर्म है।
 
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
bhakti.vichar.vishnu@gmail.com

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