क्या मोदी ‘सबका विश्वास’ जीत पाएंगे

punjabkesari.in Sunday, Jun 09, 2019 - 03:20 AM (IST)

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मोदी को बड़ा जनादेश मिला है। निश्चित तौर पर अतीत में भी ऐसे अवसर आए हैं जब किसी राजनीतिक दल ने लोकसभा चुनाव में 303 से अधिक सीटें हासिल कीं। इसके कुछ उदाहरण हैं-1980 में इंदिरा गांधी (353) तथा 1984 में राजीव गांधी (415)। लेकिन परिस्थितियां अलग थीं-इंदिरा गांधी ने अलोकप्रिय गठबंधन सरकार के खिलाफ हिम्मती संघर्ष छेड़ा था, जेल सहित कई तरह की प्रताडऩाएं सहीं और लगभग अपने बलबूते पर लोगों का समर्थन जीत लिया, जिन्होंने उनकी पार्टी तथा उन्हें (रायबरेली में) हरा दिया था। राजीव गांधी के मामले में, वह सहानुभूति लहर पर सवार थे जो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद शुरू हुई थी। 

व्यापक मतदाता समर्थन 
न केवल बड़ी संख्या में (303) सीटें जीती गईं बल्कि भाजपा की जीत का पैमाना तथा फैलाव भी अद्भुत है। भाजपा केवल 3 राज्यों- केरल, तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश में सेंध नहीं लगा सकी। अंतर अविश्वसनीय रूप से बहुत अधिक थे, दो पाॢटयों के बीच किसी सीधी लड़ाई के पारम्परिक मानदंडों के लिहाज से बहुत अधिक (जैसा कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड तथा असम में था)। 

हालांकि विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन जैसे कि आशा थी, चुनावी सर्वेक्षणों ने पुष्टि की है कि ङ्क्षहदी भाषी तथा हिंदी जानने वाले राज्यों में उच्च जातियों ने बड़ी संख्या में भाजपा के लिए मतदान किया। ऐसा ही अन्य पिछड़ी जातियों तथा हैरानीजनक रूप से उल्लेखनीय संख्या में दलितों, मुसलमानों तथा ईसाइयों ने भी किया। भले ही उनका उद्देश्य भिन्न रहा हो लेकिन तथ्य यह है कि उन्होंने अपने वोट भाजपा को दिए। 

वोट हासिल किए, विश्वास नहीं
मैं समझता हूं कि मोदी खुश हैं लेकिन संतुष्ट नहीं। कोई ऐसी चीज है जो उन्होंने देख ली है जिसे सम्भवत: उनकी पार्टी में अन्य समझ नहीं पाए। वह यह कि दलितों, मुसलमानों व ईसाइयों तथा अत्यंत गरीबों के वोट हासिल करना काफी नहीं है, बल्कि उनका विश्वास जीतना जरूरी है। वह जानते हैं कि अपने पहले कार्यकाल के अंत तक वह उनका विश्वास नहीं जीत सके और इसीलिए अपने मूल नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ के साथ ‘सबका विश्वास’ जोड़ दिया। 

यह एक चतुराईपूर्ण कदम है लेकिन कठिनाइयों से भरा हुआ है। स्वाभाविक अवरोधों के नाम हैं-गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति तथा संजीव बाल्यान। कुछ अन्य हैं, जो चुने गए लेकिन नजरअंदाज किए गए या चुने गए और प्रतीक्षा में हैं, जैसे कि महेश शर्मा, अनंतकुमार हेगड़े, साक्षी महाराज, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर तथा कुछ अन्य अज्ञात। कैबिनेट मंत्री गिरिराज सिंह ने पहले ही दो सहयोगी दलों के नेताओं के एक इफ्तार पार्टी में शामिल होने पर अनुचित टिप्पणी की है। उन्हें भाजपा अध्यक्ष की ओर से फटकार का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने अफसोस नहीं जताया। 

अपने चुने जाने के बाद साक्षी महाराज की विजय के लिए धन्यवाद कहने हेतु एक कैदी (उन्नाव में दुष्कर्म के एक मामले का आरोपी विधायक, इस घटना ने 2017 में देश को झकझोर दिया था) से मिलने जेल गए। उन्हें अभी तक इसके लिए फटकार नहीं पड़ी है। ऐसे पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाना आसान नहीं होता जो बचपन अथवा किशोरावस्था से किसी के मन में पैठ बना लेते हैं। इससे कोई मदद नहीं मिलती यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा का कोई वरिष्ठ नेता समय-समय पर इन पूर्वाग्रहों का प्रदर्शन करता है (‘ईद पर बिजली, दीवाली पर बिजली नहीं’, ‘ऐसा निर्वाचन क्षेत्र जहां अल्पसंख्यक बहुसंख्यक हैं’)। यदि दलितों तथा मुसलमानों की लिचिंग नहीं रुकती तो इससे कोई मदद नहीं मिलेगी और प्रत्येक सप्ताह ऐसा कम से कम एक मामला सामने आता है। यदि 303 सदस्यों में से भाजपा का एक सांसद मुस्लिम समुदाय से हो तो इससे अवधारणा बदलने में कोई मदद नहीं मिलती। 

डर व कल्याण 
एक अन्य बड़ी समस्या है। भाजपा इन वर्गों का विश्वास केवल तभी जीत सकती है यदि दो शर्तों को पूरा किया जाए। पहली यह कि कोई भी डर में न जिए। दूसरी यह कि उनके आॢथक दर्जे में धीरे-धीरे सुधार हो। आज इनमें से कोई भी शर्त पूरी नहीं की जा सकी है इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इन दो शर्तों को पूरा करने के लिए कैसे आगे कदम बढ़ाती है? 

लोगों के कुछ वर्गों में से डर समाप्त करने के लिए साहसिक कदम उठाने की जरूरत है। जब भी दंड से बचने की कोई घटना होती है तो उसमें शामिल व्यक्ति को अवश्य दंडित किया जाना चाहिए। क्या भाजपा ऐसे लोगों को दंडित करेगी जो दंड के भय के बिना काम करते और डर फैलाते हैं। यह एक बड़ा काम है, वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा किए जाने की सम्भावना नहीं दिखाई देती लेकिन मैं आशा करता हंू कि भाजपा नेतृत्व ऐसे लोगों पर अपने अधिकार का इस्तेमाल करेगा जो आपराधिक व्यवहार में शामिल होते हैं। 

दूसरी स्थिति निष्पक्ष रूप से सरकार के पूरी तरह से नियंत्रण में नहीं है। नाराज वर्गों के आॢथक दर्जे में तभी सुधार होना शुरू होगा जब उन्हें अधिक नौकरियां, नौकरियों को लेकर अधिक सुरक्षा, उच्च आय तथा सार्वजनिक वस्तुओं तथा सेवाओं तक बेहतर पहुंच मिलेगी। नौकरियां तथा आय एक उच्च तथा न्यायसंगत आॢथक विकास का कार्य है और यह देखते हुए कि वर्ष 2018-19 कैसे निराशाजनक रूप से समाप्त हुआ, उच्च अथवा न्यायसंगत विकास करीब दिखाई नहीं देता। मुझे संदेह है कि दलितों, मुसलमानों, ईसाइयों तथा गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले वर्गों ने भाजपा के उम्मीदवार को इसलिए वोट दी क्योंकि चुनाव जीतने में सक्षम कोई अन्य उम्मीदवार नजर नहीं आया तथा निश्चित तौर पर कोई भी अन्य उम्मीदवार ‘विजेता’ पक्ष की ओर दिखाई नहीं दिया। यह सावधानी का वोट था, विश्वास का नहीं। 

भाजपा को उनका विश्वास जीतने के लिए कहीं अधिक करने की जरूरत है। यह एक असामान्य स्थिति है। भाजपा ने उत्साही समर्थकों (जिनकी नजर में मोदी गलत नहीं कर सकते) तथा असंतुष्ट वर्गों (जिनकी नजर में मोदी ने अभी तक कुछ सही नहीं किया) की वोटों से सरकार का गठन किया। यह देखना दिलचस्प होगा कि कैसे साधन-सम्पन्न मोदी इन अपरिचित स्थितियों से पार पाते हैं।-पी. चिदम्बरम


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