रेगिस्तान में पानी की मृग तृष्णा हुई पूरी

punjabkesari.in Monday, May 06, 2024 - 05:21 AM (IST)

एक ही महीने में दूसरी बार दुबई में बादल फटने से बाढ़ के हालात पैदा हो गए। रेगिस्तान की तपती रेत  में पानी का मिलना सदियों से एक आकस्मिक और चमत्कारिक घटना माना जाता है। तपती रेत पर हवा गर्म हो कर कई बार पानी होने का भ्रम देती है और प्यासा उसकी तलाश में भटकता रहता है। इसे ही मृग तृष्णा कहते हैं। जब से खाड़ी के देशों में पैट्रो-डॉलर आना शुरू हुआ है तब से तो इनकी रंगत ही बदल गई। दुनिया के सारे ऐशो आराम और चमक  दमक इनके शहरों में छा गई।

अकूत दौलत के दम पर इन्होंने दुबई के रेगिस्तान को एक हरे-भरे शहर में बदल दिया। जहां घर-घर स्विमिंग पूल और फव्वारे देख कर कोई सोच भी नहीं सकता कि ये सब रेगिस्तान में हो रहा है। पर जैसे ही आप दुबई शहर से बाहर निकलते हैं आपको चारों ओर रेत के बड़े-बड़े टीले ही नजर आते हैं। न हरियाली और न पानी। इन हालातों में यह स्वाभाविक ही था कि दुबई का विकास इस तरह किया गया कि उसमें बरसाती पानी को सहेजने की कोई भी व्यवस्था नहीं है।
इसलिए जब 75 साल बाद वहां बादल फटा तो बाढ़ के हालात पैदा हो गए। कारें और घर डूब गए।

हवाई अड्डे में इतना पानी भर गया कि दर्जनों उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। एक तरफ इस चुनौती से दुबई वासियों को जूझना था  और दूसरी तरफ वे इतना सारा पानी और इतनी भारी बरसात देख कर हर्ष में डूब गए। पर ऐसा हुआ कैसे? क्या यह वैश्विक पर्यावरण में आए बदलाव का परिणाम था या कोई मानव निर्मित घटना? खाड़ी देशों में आई इस बाढ़ की वजह को कुछ विशेषज्ञों ने ‘क्लाऊड सीडिंग’ यानी कृत्रिम बारिश को बताया है। जब एक निश्चित क्षेत्र में अचानक अपेक्षा से कहीं गुना ज्यादा बारिश हो जाती है, तो उसे हम बादल फटना कहते हैं।

हालांकि,हाल ही में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार अमरीकी मौसम वैज्ञानिक रयान माऊ इस बात को मानने से इंकार करते हैं कि दुबई में बाढ़ की वजह ‘क्लाऊड सीडिंग’ है। उनके मुताबिक खाड़ी देशों पर बादल की पतली लेयर होती है। वहां ‘क्लाऊड सीडिंग’ के बावजूद इतनी बारिश नहीं हो सकती है कि बाढ़ आ जाए। ‘क्लाऊड  सीडिंग’ से एक बार में बारिश हो सकती है। इससे कई दिनों तक रुक-रुक कर बारिश नहीं होती जैसा कि वहां हो रहा है। माऊ के मुताबिक अमीरात और ओमान जैसे देशों में तेज बारिश की वजह ‘क्लाइमेट चेंज’ है। जो ‘क्लाऊड सीडिंग’ पर इल्जाम लगा रहे हैं वह ज्यादातर उस मानसिकता के हैं जो ये मानते ही नहीं कि ‘क्लाइमेट चेंज’ जैसी कोई चीज होती है।

‘क्लाऊड सीडिंग’ तकनीक हमेशा से बहस का विषय बनी रही है। दशकों के शोध से स्थैतिक और गतिशील बीजारोपण तकनीकें सामने आई हैं। ये तकनीकें 1990 के दशक के अंत तक प्रभावशीलता के संकेत दिखाती हैं। परंतु कुछ संशयवादी लोग सार्वजनिक सुरक्षा और पर्यावरण के लिए संभावित खतरों पर जोर देते हुए ‘क्लाऊड सीडिंग’ के ख़तरों पर ज़ोर देते हुए इसके खिलाफ शोर मचाते रहे हैं। चूंकि सरकारें और निजी कंपनियां जोखिमों के बदले लाभ को ज्यादा महत्व देती हैं, इसलिए ‘क्लाऊड सीडिंग’ एक विवाद का विषय बना हुआ है। जबकि कुछ देशों में इसे कृषि और पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए अपनाया जाता है। इतना ही नहीं अन्य संभावित परिणामों से अवगत होकर ऐसे देश इस पर सावधानी से आगे बढ़ते हैं।

यदि इतिहास की बात करें तो ‘क्लाऊड सीडिंग’ का आयाम वियतनाम युद्ध के दौरान ‘ऑपरेशन पोपेय’ जैसी घटनाओं से मेल खाता है। उस समय मौसम में संशोधन एक सैन्य उपकरण था। विस्तारित मानसून के मौसम और परिणामी बाढ़ के कारण 1977 में एक अंतर्राष्ट्रीय संधि हुई जिसमें मौसम संशोधन के सैन्य उपयोग पर रोक लगा दी गई। रूसी संघ और थाईलैंड जैसे देश हीटवेव और जंगल की आग को दबाने के लिए इसका सफलतापूर्वक उपयोग कर रहे हैं, जबकि अमरीका, चीन और ऑस्ट्रेलिया सूखे को कम करने के लिए वर्षा के दौरान पानी के अधिकतम उपयोग के लिए इसकी क्षमता का उपयोग कर रहे हैं।

संयुक्त अरब अमीरात में इस तकनीक का उपयोग अपनी कृषि क्षमताओं का विस्तार करने और अत्यधिक गर्मी से लडऩे के लिए सक्रिय रूप से किया जाता है। आर्थिक लाभ के लिए सरकारें और उद्योगपति कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। यही बात ‘क्लाऊड सीडिंग’ के मामले में भी लागू होती है। जबकि ‘क्लाऊड सीडिंग’ लंबे समय तक बने रहने वाले स्वास्थ्य जोखिमों पर भी गंभीरता से ध्यान दिए जाने की जरूरत है। आधुनिकता के नाम पर जैसे-जैसे हम ‘क्लाऊड सीडिंग’ के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं, विशेषज्ञों द्वारा इसके सभी आयामों पर शोध करना एक नैतिक अनिवार्यता है। -विनीत नारायण


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