सरकार बार-बार बैकफुट पर क्यों

punjabkesari.in Saturday, Aug 24, 2024 - 05:20 AM (IST)

केन्द्र की एन.डी.ए. समर्थित मोदी सरकार क्या निर्णय ले पाने में खुद को असहज महसूस कर रही है? क्या सरकार के लिए उसके गठबंधन ही मुश्किलें पैदा कर रहे हैं? और क्या सरकार को पता नहीं कि वह जो करने जा रही है उसका विरोध होगा और बैकफुट तक पर आना पड़ेगा? क्या यह मोदी-शाह की शतरंज की चाल है या चाणक्य नीति? देश,पक्ष-विपक्ष को पता है कि मोदी-शाह इतने भी नासमझ नहीं कि उन्हें इनके परिणामों या इससे समर्थक दलों के नाक-भौं सिकोडऩे या विरोध का अंदाज न हो! 

मोदी-शाह जानते हैं कि उनके मजबूत सहयोगी जे.डी.यू. और टी.डी.पी. अपने-अपने राज्यों में कट्टर सैकुलर समर्थक हैं। किसी भी दशा में अल्पसंख्यकों का विरोध नहीं लेंगे। यही उनकी पहचान भी है। अल्पसंख्यकों के हितों में बड़े-बड़े फैसले और योजनाएं दोनों राज्यों में लगातार जारी हैं। इतना सब जानते हुए भी मोदी सरकार का अपने तीसरे कार्यकाल में ऐसा बार-बार कर बैकफुट पर आना कोई रणनीति तो नहीं? इसी अगस्त में 4 मामलों में सरकार का फैसला बदलना या यू-टर्न बताता है कि यह अनजाने में लिया गया फैसला नहीं हो सकता। बजट भाषण में वित्त मंत्री ने लॉन्ग टर्म और शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन टैक्स में बदलाव की घोषणा के साथ संपत्ति की बिक्री के लिए इंडैक्सेशन लाभ को भी समाप्त करने का प्रस्ताव रखा। 

इसका इतना जबरदस्त विरोध दिखा कि प्रावधानों में संशोधन करना पड़ा और नए-पुराने दोनों टैक्स सिस्टम में से किसी एक को चुनने का विकल्प देना पड़ा। इसी तरह वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक लाया गया। जिसमें वक्फ संपत्ति का जिला कलैक्टर कार्यालय में रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कराने तथा मूल्यांकन कराने का प्रावधान किया गया। अधिनियम बनने से पहले या बाद में ऐसी वक्फ संपत्ति जो सरकारी रही हों, वक्फ की नहीं मानी जाएंगी। संपत्ति तय करने का अधिकार कलैक्टर को दिया गया जो अंतिम फैसला लेंगे। इसका पक्ष-विपक्ष ने विरोध किया जिसके बाद जे.पी.सी. को सौंपा गया। हालांकि अगले संसद सत्र तक देखना होगा कि सबका रुख क्या होगा? 

फिलहाल अंदर ही अंदर चाहे नीतीश हों या चिराग या फिर टी.डी.पी. इन्हें कैसे राजी किया जाएगा और जे.पी.सी. रिपोर्ट में क्या आता है। इसी तरह सरकार द्वारा लाए गए ब्रॉडकास्टिंग बिल-2024 पर सरकार ने अपने पैर खींच लिए। इससे  डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स और इंडीविजुअल कंटैंट क्रिएटर्स जबरदस्त तनाव में थे। विपक्ष भी इसको हवा दे रहा था। ओ.टी.टी. प्लेटफाम्र्स और डिजिटल कंटैंट क्रिएटर्स सभी का कहना था कि बिल से एक तरह की सैंसरशिप की तैयारी है। इसके आने के बाद सरकार की कड़ी आलोचना हुई। 

इसे निजता का उल्लंघन बता, दुरुपयोग की संभावनाओं के चलते विरोध किया गया। प्रैस की स्वतंत्रता के लिए घातक बताया गया। विरोध के बाद इसे भी होल्ड कर दिया गया और विचार-विमर्श के बाद नए ड्राफ्ट की बात कह एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इसी तरह सबसे ज्यादा हल्ला लैटरल एंट्री को लेकर 17 अगस्त को प्रकाशित संघ लोक सेवा आयोग के उस विज्ञापन के बाद हुआ जिसमें ऐसी नियुक्तियों में आरक्षण की अनदेखी को खास मुद्दा बनाया गया। हालांकि साल 2018 में पहली बार मोदी सरकार ने कई नियुक्तियां की थीं। 

तब से लेकर अब तक 63 नियुक्तियां हो चुकी हैं। इसमें 35 प्राइवेट सैक्टर से हैं। जुलाई तक लैटरल एंट्री से आए 57 लोग अपने पदों पर काम कर रहे थे। लेकिन 17 अगस्त को 45 नई नियुक्तियों के एकमुश्त विज्ञापन से राजनीतिक बवाल शुरू हो गया। सामाजिक न्याय और वंचित वर्ग के विरुद्ध सरकारी दुष्चक्र बता पीछे के दरवाजे से चहेतों को एंट्री देने का आरोप भी लगा। चिराग पासवान ने तो खुलकर विरोध में अपना पक्ष रखा। 20 अगस्त को केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने संघ लोकसेवा आयोग को चिट्ठी भेजकर विज्ञापन रद्द करने को कहा। इसे प्रधानमंत्री की नजर में समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित होना था, बताकर मामले का पटाक्षेप किया। 

महज अगस्त माह में ही सरकार के चार मामलों में बैकफुट पर आने को राजनीतिक चश्मे से अलग-अलग देखा जा रहा है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि पूर्ण बहुमत में रहते हुए मोदी सरकार ने कभी फैसले वापस न लिए हों। 2014 में सत्ता में आकर साल भर बाद 2015 में भूमि अधिग्रहण कानून पर पुर्नविचार की मांग को स्वीकारते हुए 6 विवादास्पद संशोधनों को वापस लिया था। 2021 में 3 कृषि कानून वापस लिए। 2022 में डाटा प्रोटैक्शन बिल वापस लिया जिस पर जे.पी.सी. ने बाद में 81 संशोधनों की सिफारिश की। हां, अब सरकार पहले की तरह कड़े और बड़े फैसले ले पाने में खुद को असहाय बताकर कौन-सा नया दाव खेल रही है यह तो नहीं पता। लेकिन सरकार के बार-बार बैकफुट पर आने की बड़ी वजह जरूर है। 

शायद यह भावनात्मक मुद्दे में बदले? फिलहाल 3 राज्यों सहित उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों के नतीजों का इंतजार लगता है। कहते हैं राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं! क्या मतदाताओं को मोदी-शाह की जोड़ी कोई बड़ा संदेश दे रही है? भाजपा को पूर्ण बहुमत न देकर बैसाखियों के सहारे बड़े और कड़े फैसले न ले पाने को मजबूरी के मायने से राजनीति में कहीं नई लहर पैदा करने के लिए शह और मात का दाव तो नहीं? इंतजार कीजिए राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं।-ऋतुपर्ण दवे   
 


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