हम किसके लिए और क्यों वोट डालते हैं

punjabkesari.in Monday, Mar 07, 2022 - 04:59 AM (IST)

हम किसके लिए वोट डालते हैं? यह प्रश्र विचारणीय है क्योंकि हम पंजाब, मणिपुर, गोवा, उत्तराखंड और निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश में चुनाव परिणामों की ओर बढ़ रहे हैं। एक राष्ट्र के तौर पर परिणाम हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, चाहे किसी ने किसी भी पार्टी को वोट दिया हो। 

यदि भाजपा एक बार फिर उत्तर प्रदेश में चुनाव जीत जाती है (जैसी कि मुझे आशा है, हालांकि कम अंतर से) तो हमें उसी रास्ते पर फिर चलना जारी रखना होगा जिस पर हम गत 8 वर्षों से चलते आ रहे हैं। यदि यह उत्तर प्रदेश में हार जाती है तो मूड बदल जाएगा। यदि यह उत्तर प्रदेश में हार जाती है तो सरकार 2024 तक इसी तरह सामान्य रूप से अपना कामकाज जारी रखने में सक्षम नहीं होगी। हालांकि यह लेख पार्टियों तथा चुनावों के बारे में नहीं है लेकिन मतदाताओं तथा वे क्यों तथा कैसे मतदान करते हैं, के बारे में है। 

एक अधिक सामान्य तरीका, जिससे मतदान को समझा जा सकता है, ‘सत्ता विरोधी लहर’ का सिद्धांत है जो अन्य लोकतंत्रों में इस्तेमाल की जाने वाली कहावत नहीं है। अमरीका में सत्ताधारी राजनीतिज्ञों को अपने विरोधियों पर औसतन 8 प्रतिशत वोटों का लाभ होता है अर्थात सत्ता में होने के पर्याप्त लाभ होते हैं। यह मैसाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आफ टैक्नोलॉजी द्वारा किए गए 2001 के एक अध्ययन के अनुसार है जिसने 1942 से लेकर 2000 तक सभी चुनावों पर नजर डाली। संभावित तौर पर यह लाभ इसलिए है क्योंकि एक बार चुने जाने पर राजनीतिज्ञ अपने पद का इस्तेमाल मतदाताओं को लाभ वितरित करने के लिए करता है, जो बदले में उसे सत्ता में बने रहने के लिए वोट देकर पुरस्कृत करता है। 

भारत में सरकार का आकार छोटा है तथा ऐसा करने के लिए पर्याप्त स्रोत नहीं हैं। इसी तरह जो पाॢटयां सरकार में आती हैं अपने मतदाताओं के जीवन में पर्याप्त बदलाव लाने का प्रयास करती हैं और आमतौर पर असफल हो जाती हैं। इसी कारण सरकार में 5 साल बिताने के बाद सत्ताधारी पार्टी को ‘सत्ता विरोधी लहर’ का सामना करना पड़ रहा है। और फिर कुछ राज्यों में पार्टियां दशकों से सत्ता में हैं, जो यह बताता है कि कुछ और भी चल रहा है। 

हम वोट क्यों देते हैं यह समझने का एक अन्य रास्ता वह है जिसे हम पहचान की राजनीति कहते हैं। भारत में यह हमारे लिए अनोखा नहीं है लेकिन ऐसा दिखाई देता है कि अन्य लोकतंत्रों के मुकाबले हम ऐसा अधिक करते हैं। धर्म तथा जाति बड़े कारक हैं और यहां तक कि हम में से बहुतों के लिए प्रमुख कारक हैं। अर्थात हम इस तरह से मतदान करते हैं जो हमारे धर्म तथा हमारी जाति के लिए हमारे समर्थन को दर्शाता है। इसका सरकार से क्या लेना-देना है? बहुत अधिक नहीं, लेकिन ध्यान रखें कि यदि अधिकांश नहीं तो बहुत से मतदाताओं को यह एहसास होता है कि किसी भी पार्टी के सत्ता में होने से उनके जीवन में बहुत कम बदलाव आएगा। यह एक सच्चाई है। 

अधिकांश भारतीय गरीब हैं और गरीब ही मर जाएंगे। आगामी मुख्यमंत्री के कारण उनके बच्चों को किसी सरकारी स्कूल में बेहतर शिक्षा नहीं मिलेगी जैसी कि आज है। उच्च शिक्षा तक उनकी पहुंच बंद रहेगी। अपने जिस स्थानीय स्वास्थ्य सेवा केंद्र (यदि कोई है) अथवा सरकारी अस्पताल में वे जो उपचार करवा रहे हैं उसकी गुणवत्ता में सरकार बदलने पर कोई बदलाव नहीं होगा। यदि वे कृषि अथवा हाथों से काम करने वाले मजदूर हैं, जो अधिकांश भारतीय हैं, वे अपने जीवन भर वहीं रहेंगे। वे प्रोफैसर या वैज्ञानिक अथवा बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशन्स में मुख्य कार्याधिकारी नहीं बनेंगे। यहां तक कि उनमें से लगभग कोई भी यह आशा नहीं कर सकता कि वह ऐसी चीजें प्राप्त कर सकता है। 

सार यह है कि सरकार उन्हें प्रगति करने का अवसर नहीं देती और उनके पास अपने जीवन के भौतिक हिस्से के लिए कोई एजैंसी नहीं है। तो फिर बाकी क्या रहा? यह है पहचान और धर्म तथा जाति। यहां सरकार एक अंतर पैदा कर सकती है। मंदिर तथा मूर्तियां और नफरत भरे भाषण व ङ्क्षहसा तथा अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाले कानून इस राजनीति का हिस्सा हैं और इसका एक कारण कि हम इन्हें अधिक देख रहे हैं, यह कि भाजपा ने इस विचार को त्याग दिया है कि वह अपने मतदाताओं के जीवन में भौतिक सुधार ला सकती है। 

यह अर्थव्यवस्था तथा कम हो रहे रोजगारों से लेकर प्रशासन के प्रत्येक मानदंड पर स्पष्ट दिखाई देता है। यद्यपि इसके पास राजनीति के गैर-भौतिक पहलुओं पर प्रभुत्व का लाभ भी है। यदि ‘विकास’ तथा नौकरियां और ऐसी ही चीजें बहुतों के लिए पहचान से कम महत्वपूर्ण हैं तो भाजपा पहचान के सबसे बड़े संकेतक पर दबाव बनाकर इस प्रक्रिया में प्रभुत्व बना सकती है, जो धार्मिक राष्ट्रवाद है। इसने हमारे समय में यह सफलतापूर्वक किया है तथा इसका एकमात्र कारण कि यह इसे इतने लम्बे समय तक ले आई है, अन्य पार्टियों ने धर्म के साथ खेलना उस हद तक नहीं चुना जितना कि भाजपा ने। 

यह हमारी लोकतांत्रिक राजनीति का एक निराशाजनक आंकलन दिखाई देता है लेकिन इसे एक अन्य तरह से पढऩा आसान नहीं और फिर यह मात्र एक निबंध है। मैं यह अनुमान लगाने में बहुत गलत हो सकता हूं कि बड़ी संख्या में लोग गैर-भौतिक राजनीति के लिए मतदान करते हैं या यदि यह अतीत में भी ऐसे ही था तो इसे कई कारणों से भविष्य में भी जारी नहीं रहना चाहिए। एक हालिया रिपोर्ट दर्शाती है कि उत्तर प्रदेश की जी.डी.पी. समाजवादी पार्टी के पांच वर्षों के शासन के अंतर्गत 2012-17 के दौरान 6.92 प्रतिशत की दर से बढ़ी मगर भाजपा के अंतर्गत वृद्धि दर 2017 से मात्र 1.95 प्रतिशत है। निश्चित तौर पर यह एक ऐसी कारगुजारी नहीं है जिसे पुरस्कृत किया जा सके और फिर, जहां कुछ दिन ही बाकी हैं, मुझे यह पता चलना हैरानीजनक नहीं होगा कि अंतत: इसे पुरस्कृत किया गया।-आकार पटेल


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