आप किस-किस को जेल में डालेंगे?

punjabkesari.in Wednesday, Apr 10, 2024 - 04:44 AM (IST)

एक व्यक्ति का भोजन दूसरे व्यक्ति के लिए जहर हो सकता है। वर्तमान में चल रहे चुनाव प्रचार के दौरान तरह-तरह के भाषण दिए जा रहे हैं जिनमें से कुछ अशोभनीय हैं, कुछ में अपशब्दों का प्रयोग किया जा रहा है और इनके प्रति असहिष्णुता बढ़ती जा रही है और इस पर पूरे देश में विचार-विमर्श हो रहा है। वर्ष 2021 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के विरुद्ध कहे गए अपशब्दों के आरोपी यू-ट्यूबर को जमानत देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘‘यदि चुनावों से पहले आप हर उस व्यक्ति को जेल में डालेंगे, जो यू-ट्यूब पर आरोप लगा रहा है तो कल्पना कीजिए कि कितने लोग जेल में जाएंगे।’’ इस यू-ट्यूबर को तमिलनाडु पुलिस ने जेल में डाला था।

न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसा हर व्यक्ति जो सोशल मीडिया पर आरोप लगाता है, उसे जेल में नहीं डाला जा सकता है। न्यायालय ने कहा कि विरोध प्रदर्शन कर और अपने विचारों को व्यक्त कर ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि उसने अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया। न्यायालय ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने का विरोध करते हुए प्रदर्शन में भाग लेते हुए उसके विरुद्ध दायर की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट का संज्ञान लिया जिसके दौरान उसने कुछ हिरासत में लिए गए कुछ लोगों को रिहा करने की मांग की थी। पिछले वर्ष तेलुगूदेशम पार्टी के एक वरिष्ठ नेता को इसलिए जेल में डाल दिया गया कि उसने आंध्र प्रदेश के पर्यटन मंत्री के विरुद्ध आक्रामक टिप्पणी की और उस पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत आरोप लगाए गए। 

विवादास्पद हिन्दू नेता यदि नरसिंहानंद को 2022 में महिलाओं के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी करने के लिए गिरफ्तार किया गया किन्तु उसे बाद में जमानत मिल गई। 2021 में स्टैंड अप कॉमेडियन मुनव्वर फारूखी को गिरफ्तार किया गया और मध्य प्रदेश में एक हिन्दू समूह द्वारा दावा किया गया कि उसने हिन्दू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया और उसे जमानत नहीं मिली। हालांकि उसने हिन्दू देवी-देवताओं के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की थी। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप किया और उसे रिहा किया। 

वर्ष 2017 में एक अन्य कॉमेडियन तन्मय भट्ट को प्रधानमंत्री मोदी के नाम को ट्वीट करने के लिए गिरफ्तार किया गया। आप इस बात को कैसे भूल सकते हैं कि एक उपभोक्ता वस्तु की बड़ी कम्पनी को अपने करवा चौथ के विज्ञापन को वापस लेना पड़ा क्योंकि उसमें समङ्क्षलगी दम्पति के प्रगतिशील विवाह को दर्शाया गया था। इसी तरह एक प्रसिद्ध डिजाइनर के अश्लील मंगल सूत्र विज्ञापन को भी वापस लेना पड़ा जिसमें महिला को एक पुरुष के साथ घनिष्ठता की स्थिति में उसके मंगलसूत्र को काफी नीचे तक दिखाया गया था। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि यह महिला सशक्तिकरण को दर्शाता है। एक वस्त्र ब्रांड पर आरोप लगाया गया कि वह अपने फैस्टिव कलैक्शन को रस्म-ए-रिवाज कहकर दीवाली में भुनाना चाहता है। 

एक ज्वैलरी ब्रांड को अपने विज्ञापन को वापस लेने के लिए बाध्य किया गया जिसमें मुस्लिम सास-ससुर द्वारा अपनी हिन्दू बहू के बेबी शॉवर को दर्शाया गया था। इस पर भाजपा के कुछ सांसदों, बजरंग दल और युवा मोर्चा के कुछ कार्यकत्र्ताओं ने हिन्दू संस्कृति का अपमान बताया। हम असहिष्णुता के ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहां पर फिल्म, पुस्तक और कलाकृतियों का जो उपहास करते हैं या जो हमारे नेताओं की सोच के अनुरूप नहीं हैं, उन्हें न केवल प्रतिबंधित किया गया बल्कि उनके मालिकों को गिरफ्तार भी किया गया। जिसके चलते उदार चर्चाओं के लिए स्थान संकीर्ण होता गया क्योंकि बार बार इस संबंध में धमकियां मिलती रहीं और स्वघोषित लोगों द्वारा सैंसर किया जाता रहा। 

प्रश्न उठता है कि क्या भारत राजनीतिक असहिष्णुता के दौर में है। हममें आलोचना स्वीकार करने की क्षमता समाप्त हो गई है और एक तरह से हमें फोबिया पैदा हो गया है। यह एक मात्र संयोग है या हमारा देश एक प्रतिक्रियावादी देश बन रहा है जहां पर व्यक्ति को अपने साथ हुए बुरे काम के लिए जनता के बीच में जाना पड़ता है और उसे रोजगार से हटा दिया जाता है,उसका उत्पीडऩ किया जाता है। क्या राजनेताओं को सार्वजनिक जीवन में विचारों के टकराव से डर लगता है? क्या केन्द्र और राज्य सरकारें स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विरोध को दबा रही हैं? क्या हम इतने डरे हुए हैं या इतने असहिष्णु बन गए हैं कि किसी भी विचार की अभिव्यक्ति को एक खतरा माना जाता है और यह बताता है कि हम संकीर्ण राजनीतिक चर्चा के वातावरण में रह रहे हैं। क्या सरकार या नेता की आलोचना करने का तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति को जेल में डाल दिया जाए? क्या राष्ट्र प्रेम और देशभक्ति का पाठ पढ़ाने का सरकार का यही तरीका है? क्या हम रोबोट पैदा करना चाहते हैं जो अपने नेता के कमांड के अनुसार कार्य करे? 

कुल मिलाकर भारत स्वघोषित उग्र राष्ट्रवाद की चपेट में है जहां पर आलोचक, बुद्धिजीवी और अन्य उदारवादी निशाने पर हैं और बहस, वाद-विवाद तथा विवेकशील निर्णयों का स्थान अविवेकशील प्रतिक्रियाएं ले रही हैं और जीवन एक आधिकारिक पट्टी पर जिया जा रहा है। प्रत्येक ट्वीट, उपहास औरविरोध को दानव माना जा रहा है और इसके चलते सार्वजनिक बहस दंतविहीन बनती जा रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत पसंद के संदर्भ में असहिष्णुता की एक खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्ति जारी है और यदि यह प्रवृत्ति समाज में इसी तरह जारी रही तो हमारा समाज खतरनाक रूप से पुरातनंपथी बन जाएगा और इसमें बिखराव आएगा। 

भारत जहां एक ओर आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है, हमारे नेताओं को यह समझना होगा कि 140 करोड़ से अधिक लोगों के इस देश में 140 करोड़ से अधिक विचार भी होंगे और हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विचारों को स्वीकार न करने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि यह उसकी धारणा है। एक बयान किसी व्यक्ति के लिए आपत्तिजनक हो सकता है जबकि दूसरे व्यक्ति के लिए वह सामान्य हो सकता है और इससे लोगों के मूल अधिकारों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है किन्तु साथ ही हमें ऐसे भाषणों से बचना चाहिए जो घृणा फैलाते हैं या जो संकीर्णता को बढ़ावा देते हैं। 

स्पष्ट है कि अब लोगों के मूल अधिकारों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है इसलिए हमें इस पर विचार करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को घृणा फैलाने का लाइसैंस नहीं दिया जाना चाहिए। उन्हें इस बात को समझना होगा कि राष्ट्र पहले दिल और दिमाग का मिलन है और भौगोलिक क्षेत्र बाद में। न्यायालय इसकी सुरक्षा करते हैं, जिसके चलते नागरिकों को मूल अधिकार प्राप्त हैं, वे अलग अलग राय रखें, सरकार के कार्यों की आलोचना करें, न्यायिक निर्णयों पर असहमति व्यक्त करें इसका उद्देश्य यह है कि सार्वजनिक बहस का स्तर बढ़ाया जाए न कि उसमें गिरावट लाई जाए। साथ ही हमारे नेताओं को समझना होगा कि आलोचना एक स्वस्थ और सुदृढ़ लोकतंत्र का प्रतीक है। उन्हें विश्व भर के उन नेताओं से सबक लेना चाहिए जो उनके बारे में लिखी या कही गई बातों के प्रति अधिक सहिष्णु हैं। इस संबंध में राजनीतिक स्वतंत्रता के दो उत्कृष्ट उदाहरण पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप हैं जिनका विश्व भर में उपहास उड़ाया जाता है और दूसरे इटली के पूर्व अरबपति प्रधानमंत्री बर्लुस्कोनी हैं। ब्रिटेन और फ्रांस में लोग अपने नेताओं और शासकों के बारे में कई बातें कहने के लिए स्वतंत्र हैं। 

इस संबंध में सरकार और न्यायालयों को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि प्रक्रियागत सुरक्षोपाय ऐसे देश में कार्य  नहीं करते हैं जहां पर किसी व्यक्ति को त्वरित गिरफ्तार किया जा सकता है। उदाहरण के लिए पुलिस ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (क) का प्रयोग तब भी किया जबकि उसे निरस्त कर दिया गया है। साथ ही दोषसिद्धि की दर बहुत कम है और आरोपों को सिद्ध करने के लिए साक्ष्य नहीं मिल पाते। उच्चतम न्यायालय संविधान के अनुचछेद 19 द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बल देता है। निश्चित रूप से राज्यों को अपमानजनक और आक्रामक अपशब्दों के बारे में कार्रवाई करनी चाहिए किन्तु ऐसी कार्रवाई संवैधानिक अधिकारों की कीमत पर नहीं की जानी चाहिए। 

लोकतंत्र न केवल एक शासन प्रणाली है अपितु यह एक जीवन शैली भी है जिसमें सभ्य समाज का विकास होता है। जिसके अंतर्गत लोग रहते हैं, एक दूसरे से संवाद करते हैं और यह सब कुछ स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के आधार पर किया जाता है। आलोचना एक सुदृढ और जीवंत लोकतंत्र का संकेत है। साथ ही हमें इस बात को भी समझना होगा कि जोर-जबरदस्ती और बल प्रयोग के अनेक पक्षधर होते हैं जबकि स्वतंत्रता अनाथ होती है। जार्ज ओरवेल ने कहा है, ‘‘यदि स्वतंत्रता का कुछ अर्थ है तो इसका अर्थ लोगों को यह बताने का अधिकार है कि वे क्या सुनना नहीं चाहते हैं।’’ अत: भारत ऐसे नेताओं के बिना भी रह सकता है जो राजनीति में विकृति लाते हैं और अपने इन कृत्यों से लोकतंत्र और लोगों की खुशी को नष्ट करते हैं। 

भारत को बहुसंख्यकवादी देश की बजाय एक लोकतंत्र माना जाता है जहां पर हर नागरिक के कुछ बुनियादी अधिकार हैं। जब लोकतंत्र में विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न आता है तो संवैधानिक व्यवस्था में ये सर्वोच्च मूल्य हैं। यदि हम अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं दे सकते हैं तो हमारा लोकतंत्र फलेगा-फूलेगा नहीं। आपका क्या मत है?-पूनम आई. कौशिश 
 


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