सरदार पटेल का भारत कैसा होता
punjabkesari.in Thursday, Nov 06, 2025 - 04:18 AM (IST)
गत 31 अक्तूबर को स्वतंत्र भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की 150वीं जयंती मनाई गई। आज भी यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि यदि 1946 में गांधी जी ने अंतरिम प्रधानमंत्री के चयन में अपनी ‘वीटो शक्ति’ का प्रयोग न किया होता और स्वतंत्र भारत की कमान पंडित जवाहर लाल नेहरू की बजाय पटेल को सौंपी होती तो देश का स्वरूप आज कैसा होता? वस्तुत: स्वतंत्रता के समय देश की पहली प्रामाणिक ‘वोट-चोरी’ ने पं. नेहरू को विजयी घोषित कर दिया जबकि कांग्रेस की अधिकांश प्रांतीय समितियों ने पटेल का नाम अनुमोदित किया था। परिणामस्वरूप, भारत उस दृढ़निश्चयी, राष्ट्रनिष्ठ और दूरदर्शी नेतृत्व से वंचित रह गया जो औपनिवेशिक (मुस्लिम आक्रांताओं सहित) कलंकों और विकृत नैरेटिव को मिटाकर एक आत्मविश्वासी भारत की नींव रख सकता था। यह तुलना इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि देश नेहरू और पटेल दोनों से परिचित है और आगामी 14 नवम्बर को पंडित नेहरू की 136वीं जयंती भी है।
सरदार पटेल का राजनीतिक और वैचारिक दृष्टिकोण पूरी तरह भारतीय संस्कृति और राष्ट्रभावना से प्रेरित था। यदि स्वतंत्र भारत ने उनके सैकुलरवाद को अपनाया होता तो सोमनाथ की तरह अयोध्या विवाद का समाधान भी कई दशक पहले हो चुका होता। परंतु हुआ उलटा, 22 23 दिसम्बर 1949 को अयोध्या में प्रकट हुई रामलला की मूर्ति को हटाने का आदेश स्वयं नेहरू ने दिया। उन्हें सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण पर भी आपत्ति थी किंतु गांधी जी और पटेल के जीवित रहते उस कार्य को रोक नहीं सके। जैसे ही दोनों महापुरुष इस संसार से विदा हुए, नेहरू हिंदू संस्कृति के प्रति अपनी गहरी असहजता छिपा नहीं पाए और कालांतर में मंदिरों को ‘दमनकारी’ तक कह डाला। इसी विचारधारा की परिणति 2007 में तब सामने आई, जब नेहरूवादी कांग्रेस नीत यू.पी.ए. सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा देकर भगवान श्री राम को ही काल्पनिक बता दिया। यही सोच आज काशी-मथुरा विवाद को अदालतों में लटकाए हुए है। यदि देश पटेल के मार्ग पर चलता तो इन विवादों से उपजा दशकों लंबा सांप्रदायिक तनाव, निर्दोषों के रक्तपात और संपत्ति के विनाश जैसी त्रासदियां शायद कभी घटित ही नहीं होतीं।
पटेल के कारण ही 550 से अधिक रियासतों का स्वतंत्र भारत में विलय संभव हुआ। किंतु जम्मू-कश्मीर का मामला पं. नेहरू ने अपने अधीन रखा और शेख अब्दुल्ला जैसे घोर सांप्रदायिक के प्रभाव में निर्णय लिया। परिणामस्वरूप, कश्मीर को जनमत संग्रह का विषय बना दिया गया, धारा 370-35ए के रूप में ‘विशेषाधिकार’ दे दिए गए, मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और पाकिस्तानी सेनाओं को पूरी तरह खदेडऩे से पहले ही युद्धविराम की घोषणा कर दी गई। कल्पना कीजिए यदि कश्मीर की तरह जूनागढ़ और हैदराबाद का विषय भी पं. नेहरू संभालते तो आज वे भी पाकिस्तान का हिस्सा होते। खंडित भारत की ‘छाती पर मूंग दल’ रहे होते। सच तो यह है कि अगर कश्मीर का समाधान भी पटेल के हाथों हुआ होता तो वहां अन्य राज्यों की तरह स्थायी शांति स्थापित होती। न देश की सुरक्षा में लगे भारतीय जवानों पर पत्थरबाजी होती न गैर-मुस्लिमों से मजहब पूछकर हत्याएं होतीं और न पाकिस्तान का एक तिहाई कश्मीर पर अवैध कब्जा होता। 1989-90 के दौर में कश्मीरी हिंदुओं का नरसंहार और उनका विवशपूर्ण पलायन जैसी भयावह घटनाएं भी संभवत: टल जातीं।
यहां तक कि राष्ट्रहित के प्रतिकूल ‘सिंधु जल संधि’ (1960) जैसी देशविरोधी संधि का भी अस्तित्व नहीं होता। इसी तरह, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का प्रस्ताव ठुकराने या ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ जैसी अदूरदर्शी कूटनीति अपनाने की बजाय साम्राज्यवादी चीन के विरुद्ध एक ठोस रणनीति बनाई जाती और संभवत: 1962 के युद्ध का परिणाम भिन्न होता। अपने पिछले दो कॉलमों में उल्लेखित वामपंथ प्रेरित समाजवादी आर्थिक नीतियों और विदेशी एजैंडे से चलने वाले ‘पर्यावरण-मानवाधिकार’ केंद्रित आंदोलनों के कारण जो बाधाएं भारत के विकास पथ में आईं, उनसे भी देश बच सकता था।
माक्र्स-मैकॉले चिंतन से उपजा भारत का वर्तमान सैकुलरवाद दशकों से मजहब प्रेरित घृणा और असहिष्णुता के शिकार हिंदू समाज को उलटे ‘अपराधी’ के रूप में प्रस्तुत करता रहा है। इसकी नींव तब पड़ी, जब पं. नेहरू ने मई 1959 में मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर ‘सांप्रदायिक शांति की जिम्मेदारी’ एकतरफा हिंदू समाज पर डाल दी। क्या यह सत्य नहीं कि गत एक सहस्राब्दी से हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन समुदाय संकीर्ण एकेश्वरवादी मजहबी आक्रमणों और यातनाओं (मतांतरण सहित) के शिकार रहे हैं? विडम्बना देखिए, जिस सर सैयद अहमद को पाकिस्तान अपना ‘संस्थापक’, जिन्ना को ‘जनक’ और इकबाल को ‘विचारक’ कहता है, उन्हें नेहरूवादी सैकुलर परिभाषा में ‘नायक’ बताकर गौरवान्वित, जबकि वीर सावरकर और डा. बलिराम हेडगेवार रूपी आधुनिक राष्ट्र निर्माताओं को ‘सांप्रदायिक’ बताकर कलंकित किया जाता है। यह स्थिति तब है जब स्वयं सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘देशभक्त’ और ‘मातृभूमि से प्रेम करने वाला संगठन’ कहा था।
असल में, सरदार पटेल ने सदैव राष्ट्रहित को व्यक्तिगत या पारिवारिक स्वार्थ से ऊपर रखा। उनके लिए भारतीयता ही सभी नीतियों और निर्णयों का केंद्र थी। यदि देश पटेल की राष्ट्रनिष्ठ और सांस्कृतिक दृष्टि पर अग्रसर होता तो आज भारत आंतरिक रूप से कहीं अधिक एकजुट और आत्मविश्वासी होता और विश्व मंच पर बहुत पहले ही सशक्त नेतृत्व की भूमिका निभा रहा होता। पटेल केवल इतिहास का गौरव नहीं, वह भारत के भविष्य की दिशा हैं।-बलबीर पुंज
