पाकिस्तान ने कैसे बदल डाला जिन्ना के लोकतंत्र का स्वरूप

punjabkesari.in Sunday, Nov 16, 2025 - 04:10 AM (IST)

नवम्बर 2025 में पाकिस्तान द्वारा पारित 27वां संविधान संशोधन, संस्थागत सैन्य अधिनायकवाद में पाकिस्तान के व्यवस्थित पतन में एक और मील का पत्थर है। संविधान में यह परिवर्तन, सैन्य शासन की 70 साल से भी ज्यादा पुरानी गाथा की निरंतरता या उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण, एक अतिरिक्त अध्याय का प्रतिनिधित्व करता है, जिसने पाकिस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं, सामाजिक ताने-बाने और आर्थिक क्षमता को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है। आज पाकिस्तान को परिभाषित करने वाले छल-कपट की संपूर्णता को समझने के लिए, हमें सैन्य तख्तापलट के लंबे इतिहास पर विचार करना होगा, जिसने ऐतिहासिक रूप से आजादी के बाद से लोकतांत्रिक आवेगों को कुचला है।

27वां संशोधन सैन्य सर्वोच्चता का संवैधानिककरण : 11 नवंबर, 2025 को पारित 27वां संशोधन,पाकिस्तान में एक नई सैन्य कमान और न्यायिक संरचना का निर्माण करता है। यह रक्षा बलों के प्रमुख (सी.डी.एफ..) का एक संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त पद बनाता है, इसे सेना प्रमुख के साथ मिला देता है और संयुक्त चीफ  ऑफ  स्टाफ  समिति को समाप्त कर देता है। यह वर्तमान सेना प्रमुख, फील्ड मार्शल असीम मुनीर को प्रत्येक सैन्य सेवा के लिए सर्वोच्च कमान के रूप में स्थापित करता है, जिसका कार्यकाल 5 वर्षों का होता है।सी.डी.एफ .को आई.एस.आई. प्रमुख सहित सैन्य और खुफिया प्रमुखों की नियुक्ति का विशेष अधिकार प्राप्त है। सी.डी.एफ .को कानूनी और राजनीतिक रूप से चुनौती दिए जाने से छूट दी गई है, जिससे यह नियुक्ति संवैधानिक रूप से अछूत हो जाती है। सेना में 5 सितारा रैंक के अधिकारियों को आपराधिक कार्रवाई से आजीवन छूट दी जाती है, जिससे पिछले और भविष्य के अपराधों और दुव्र्यवहारों के लिए संस्थागत क्षमादान मिलता है। इसके अतिरिक्त, यह संशोधन पाकिस्तान में परमाणु कमान का पुनर्गठन करता है और परमाणु हथियारों और अन्य संपत्तियों पर सैन्य नियंत्रण को और अधिक संस्थागत बनाने के लिए सी.डी.एफ .के अधिकार के तहत राष्ट्रीय सामरिक कमान (एन.एस.सी.) के एक कमांडर का गठन करता है।

न्यायिक स्वतंत्रता का हनन : 27वें संशोधन को न्यायिक स्वतंत्रता का व्यवस्थित हनन माना जा सकता है जो सैन्य शक्ति पर अंतिम संस्थागत नियंत्रण है। यह संवैधानिक मामलों को संभालने के लिए एक संघीय संवैधानिक न्यायालय (एफ .सी.सी.) का गठन करता है, जिससे सर्वोच्च न्यायालय को दीवानी और आपराधिक अपीलों तक सीमित कर दिया जाता है। यह न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरणों को न्यायपालिका से हटाकर प्रधानमंत्री के हाथों में सौंप देता है जो आसानी से राजनीतिक रूप से आज्ञाकारी नियुक्तियों को नामित कर सकते हैं और स्वतंत्र नियुक्तियों को हटा सकते हैं। 26वें संशोधन (अक्तूबर 2024) के साथ, जिसने संसद को मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्तियों पर नियंत्रण दिया, न्यायपालिका अंतत: कार्यपालिका के अधीन हो गई है। कानूनी विशेषज्ञों और संवैधानिक विद्वानों का तर्क है कि यह पाकिस्तान में न्यायिक स्वतंत्रता का अंत है। अब संवैधानिक सीमाओं को लागू करने के लिए कोई स्वतंत्र न्यायिक निगरानी नहीं बची है। सैन्य शक्ति की सीमाओं को प्रतिबंधित करने और घेरने के लिए कोई संस्थागत तंत्र नहीं है।

अयूब से मुशर्रफ तक-पाकिस्तान की आत्मा का सैन्यीकरण : पाकिस्तान का एक सैन्य राज्य में परिवर्तन 1958 में शुरू हुआ जब जनरल मुहम्मद अयूब खान ने तख्तापलट करके राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा को अपदस्थ कर दिया। ‘आवश्यकता के सिद्धांत’ के तहत उनके शासन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समर्थन दिए जाने से न्यायपालिका कलंकित हुई और सत्ता पर असंवैधानिक कब्जा सामान्य हो गया। अयूब के उत्तराधिकारी, जनरल आगा मोहम्मद याहिया खान (1969-1971) ने देश की सबसे भीषण त्रासदी ‘पूर्वी पाकिस्तान के नरसंहार’ की अध्यक्षता की। उन्होंने शेख मुजीबुर रहमान की अवामी लीग की चुनावी जीत को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। बंगलादेश के निर्माण के साथ अपनी आबादी और भू-भाग दोनों खोकर, पाकिस्तान उस दु:स्वप्न से तबाह होकर उभरा। सत्ता संभालने वाले अगले सैन्य नेता जनरल मोहम्मद जिया-उल-हक (1977-1988) थे, जिन्होंने एक नए हथियार ‘इस्लामीकरण’ के जरिए निरंकुशता का एक कदम और आगे बढ़ाया। जिया ने राज्य-प्रायोजित मदरसों का विस्तार किया, जिसके कारण 1980 के दशक में उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा में एक साथ वृद्धि हुई। तालिबान जैसे उग्रवादियों को इन मदरसों में वैचारिक घर मिले। उन्होंने जिहाद का महिमामंडन करते हुए हिंदुओं और पश्चिम को बदनाम करने वाली पाठ्यपुस्तकों को भी फिर से लिखा, धर्म और राजनीति को आपस में गूंथ दिया।

1999 में जनरल परवेज मुशर्रफ के तख्तापलट ने सेना के दोमुंहेपन को दर्शाया। नागरिक सरकार को सूचित किए बिना, उन्होंने 1999 में पाकिस्तानी सेना को गुप्त रूप से कारगिल में घुसपैठ करने का आदेश दिया, जिसके परिणामस्वरूप विनाशकारी हार हुई। सेना ने आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-तैयबा, तालिबान, हक्कानी नैटवर्क को विदेश नीति के औजार के रूप में इस्तेमाल किया है जबकि आतंकवाद-निरोध के लिए अरबों अमरीकी डॉलर स्वीकार किए हैं। दशकों से, सेना ने व्यवस्थित रूप से पाकिस्तान की सामाजिक एकता को कमजोर किया है, एक समय के उदार समाज को सांप्रदायिकता और भय से विभाजित समाज में बदल दिया है। सेना द्वारा नागरिक समाज पर लोगों को गायब करने, यातना देन, सैंसरशिप और असहमति को अपराध घोषित करने के माध्यम से संगठित दमन ने आतंक और भय के माहौल को सामान्य बना दिया है जो नागरिक जुड़ाव को नष्ट कर देता है। 

पाकिस्तान की सेना ने संविधानवादी मुहम्मद अली जिन्ना की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की नींव को नष्ट कर दिया है। 27वां संविधान संशोधन 7 दशकों के सैन्य वर्चस्व की परिणति का प्रतिनिधित्व करता है। पाकिस्तान की सेना देश पर तब तक हावी रहेगी जब तक कि वास्तविक पुनर्गठन नहीं होता जो सच्चे नागरिक वर्चस्व की मांग करता हो और पाकिस्तान में सैन्य वर्चस्व को वित्तपोषित करने से रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव न हो, जहां जनरल अपने कानून खुद लिखते हैं, देश के संसाधनों पर मालिकाना हक रखते हैं जो लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को निरर्थक बना देता है।-मनीष तिवारी (वकील, सांसद एवं पूर्व मंत्री)
 


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