चुनाव के नतीजों का क्या मतलब है

punjabkesari.in Saturday, Nov 22, 2025 - 04:14 AM (IST)

2018 में त्रिपुरा में हुए विधानसभा चुनावों के बाद, बिहार के हालिया नतीजों समेत चुनावों को लेकर धीरे-धीरे मेरे मन में शक बढऩे लगा था। दशकों से चुनाव कवर करने की वजह से मेरी पसंद-नापसंद कुछ कम हो गई थी। इसीलिए त्रिपुरा चुनाव में मेरी अचानक दिलचस्पी का कारण जानना जरूरी है। एक दिन साऊथ दिल्ली में मेरे पड़ोसी, त्रिपुरा के पूर्व पुलिस डायरैक्टर जनरल, बी.एल.वोहरा आए। वह राज्य में मुख्यमंत्री माणिक सरकार के समय अगरतला में अपनी पारी को लेकर पुरानी यादों में खोए हुए थे। एक जाने-माने ऑफिसर,वोहरा ने सरकार के बारे में बहुत तारीफ की जो लगभग आदर के साथ कही जा सकती थी। त्रिपुरा में बिताए अपने सालों पर वोहरा की किताब के पन्ने पलटते हुए, यह बात काफी अनोखी थी। ‘माणिक सरकार निश्चित रूप से उन सभी मुख्यमंत्रियों से अलग थे जिन्हें मैंने देखा, जिनसे मिला, जिनके साथ काम किया और जिनके बारे में सुना था। वह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार थे और यह बात सरकार के सभी स्तरों तक पहुंच गई थी। दुर्भाग्य से देश में उनके जैसे कोई उदाहरण नहीं मिलते।’

त्रिपुरा में विपक्षी नेताओं के बीच भी माणिक सरकार की सार्वभौमिक प्रशंसा किसी भी राजनेता की तारीफ करेगी। ऐसा नहीं था कि वह सिर्फ खुद एक सज्जन व्यक्ति थे बल्कि ऐसा लगता था कि उन्होंने अपने कैबिनेट सहयोगियों और पूरे प्रशासन में अपनी खूबियां डाली थीं। सभी हिसाब से उनके पहले गुरु, नृपेन चक्रवर्ती उनसे भी ज्यादा अनुकरणीय थे। मुख्यमंत्री के घर के कर्मचारियों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वे एक ऐसे बॉस की सेवा करेंगे जिसका किराने का सामान राशन कार्ड से खरीदा जाता है और जिसने कभी बैंक खाता खोलने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं बचाए। यह उस दौर में मीठी बात हो सकती है जब अरबपतियों की संख्या में बढ़ोतरी गर्व की बात है।

यह बात तो साफ है कि सी.पी.एम. का 25 साल का राज सिर्फ लीडरशिप की शराफत की वजह से नहीं चल पाया। आर्थिक तंगी के बावजूद, अगरतला की सरकार ने हर सैंट्रल स्कीम को किसी भी दूसरे राज्य से ज्यादा अच्छे से लागू किया जैसे 96 प्रतिशत लिटरेसी। जैंडर रेशो तो एक तरह से रिकॉर्ड था। इसी तरह त्रिपुरा का मिडिल क्लास बना। सच है, एक नया मिडिल क्लास बनाने के बाद, सरकार ने खुद को बेकार पाया। वह उम्मीदों के अगले स्टेज का सामना नहीं कर सकी। उसने डिस्ट्रिब्यूटिव जस्टिस तो बनाया लेकिन पढ़े-लिखे बेरोजगारों को जगह देने के लिए पैसा बनाने के आइडिया उसके पास नहीं थे। वह दो पहिया ड्राइवरों को चार पहिया लैवल तक प्रमोट नहीं कर सकी। अगरतला पहुंचने पर मुझे सिर्फ एक सरकारी गैस्ट हाऊस में रहने की जगह मिली।

जब मैंने सी.एम. से पूछा कि क्या ठीक-ठाक होटलों की कमी राज्य की पॉलिसी है तो उन्होंने साफ कहा, ‘‘हम फाइव स्टार होटलों, बार और रैस्टोरैंट से होने वाले सामाजिक असंतुलन से निपटने की हालत में नहीं हैं।’’ 2011 में पश्चिम बंगाल में लैफ्ट का राज खत्म होने के बाद, अगरतला में सी.पी.एम.के पास कोई सहारा नहीं बचा था। इस बिना दोस्तों वाले दौर में इसे टी.वी. पर दुश्मनी भरी बमबारी का सामना करना पड़ा। आर्थिक उदारीकरण की ऊंचाई पर, मार्केट कट्टरपंथ बहुत तेजी से बढ़ा ताकि सपनों के सौदागरों, आलीशान मॉल और मल्टीप्लैक्स बनाने वालों द्वारा बेचे जा रहे बेकाबू कंज्यूमरिज्म के विज्ञापन को जगह मिल सके। हिंदुत्व तब फलता-फूलता है जब बेकाबू बाजार जिंदगी की रफ्तार तय करते हैं।

सी.पी.एम.के मुख्यमंत्री, माणिक सरकार की कंट्रोल्ड किफायत ने 25 साल तक टी.वी. पर दिखाए जाने वाले इस दिखावे को झेला। इस समय तक एक और पीढ़ी पैदा हो चुकी थी जो सादगी भरी जिंदगी और उस एल्डोराडो के बीच फंसी हुई थी जिसका लालच महानगरों के कंट्रोल वाले सैंटर उन्हें देते और चिढ़ाते थे। लैफ्ट की हार के बाद, अगरतला सदमे में था। इससे पहले कि वे अपने पैरों पर खड़े होते, हैरान सी.पी.एम. कैडर को एक और सच्चाई से तालमेल बिठाना पड़ रहा था। पार्टी के समर्थक अचानक उनसे नजरें नहीं मिला रहे थे। कुछ, मुख्य मौके पर नजर रखते हुए, सी.पी.एम. ऑफिस पर हमला करने वाली या लेनिन की मूॢत गिराने वाली भीड़ में भी शामिल हो गए। काफी हद तक, त्रिपुरा और दूसरी जगहों पर नतीजे कांग्रेस की तरफ  से भाजपा को तोहफा थे। चुनावी मैनेजमैंट में शानदार हिमंता बिस्वा सरमा कांग्रेस से बाहर हो गए क्योंकि वे राहुल गांधी की बेइज्जती भरी चुप्पी बर्दाश्त नहीं कर सके। असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई अपने बेटे गौरव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए बेताब थे। इससे सरमा बाहर हो जाते, जिनकी पॉलिटिकल स्किल्स गोगोई के बाद के सालों में काम आई थी।

मैंने एक उदाहरण के तौर पर अपनी त्रिपुरा फाइल निकाली है, जो बिहार के फैसले को समझने के दौरान सोचने के लिए एक और कहानी है। राज्य ह्यूमन डिवैल्पमैंट स्केल पर कुछ बहुत ही अनोखे नतीजों के साथ मेहनत से काम कर रहा था, जिसके बारे में मेनस्ट्रीम मीडिया ने कभी बात नहीं की। हां, 40 लाख की आबादी वाला राज्य छोटा था। सिर्फ सिक्किम और गोवा ही उससे छोटे थे या मीडिया उस राज्य की तारीफ करने से घबरा रहा था जो पिछले 37 सालों में से 32 साल लैफ्ट फ्रंट के शासन में रहा है। इसके कुछ रिकॉर्ड कमाल के हैं। इसकी 96 प्रतिशत लिटरेसी इसे देश का सबसे ज्यादा लिटरेट राज्य बनाती है। गुजरात में लिटरेसी रेट 83 प्रतिशत है। सैंटर से कम पैसे मिलने पर अपनी छाती पीटने और हाथ-पैर मारने की बजाय, सरकार ने सभी सैंट्रल और स्टेट स्कीम्स को अपनाया, अपना काम किया, अधिकारियों, पार्टी कैडर को बुलाया, थ्री-लेवल पंचायती राज सिस्टम को शामिल किया और चुनी हुई ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल्स को असली हिस्सेदारी का एहसास दिलाया, जो राज्य के दो-तिहाई हिस्से और त्रिपुरा के सभी ट्राइबल इलाकों को कवर करती हैं। जिस दिन भाजपा ने तथागत रॉय को त्रिपुरा का गवर्नर बनाया, उसी दिन से कल्चर में बदलाव होना तय था। चक्रवर्ती सरकार के नरम लहजे की जगह अब बेढंगे शब्दों ने ले ली। गवर्नर ने आतंकवादियों से निपटने के लिए सलाह देते हुए कहा, ‘‘उन्हें सूअर की बीट में सिर के बल दबा देना चाहिए।’’-सईद नकवी
       


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