चुनावों में धर्म का इस्तेमाल, सब कुछ धर्म के नाम पर
punjabkesari.in Wednesday, Nov 12, 2025 - 04:24 AM (IST)
बिहार विधानसभा चुनावों में मतपेटी में अंतिम मत डाला जा चुका है। इस चुनाव ने राजनीति का ऐसा मंथन किया जो इस बात को रेखांकित करता है कि संवाद और संप्रेषण केवल भावनाएं भड़काने, घृणा फैलाने और धार्मिक आधार पर सांप्रदायिकता की खाई बढ़ाना रह गया है। दुर्भाग्यवश अपने विरोधियों से यह पूछने की बजाय कि उनकी राज्य के बारे में क्या योजना है या क्या दृष्टिकोण है, उन सबने चुनावी कार्य साधकता को अपनाया। हम मतभेद और विभाजन पैदा करने में आनंद क्यों लेते हैं और हम हितों पर सिद्धान्तों का आवरण क्यों चढ़ा देते हैं? साथ ही हम चुनावों के समय पर राम-रहीम का मुद्दा पूरे जोर-शोर से क्यों उठाते हैं?
राजनीति में धर्म वोट बढ़ाने का साधन बनता जा रहा है और मतदाताओं को लुभाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। यह परवाह नहीं की जाती कि यह विनाशक है, सांप्रदायिक ङ्क्षहसा को बढ़ाता है और प्रत्येक दल इस आशा के साथ धार्मिक भावनाओं को भड़काता है कि इससे उन्हें लाभ मिलेगा और यह इस बात को रेखांकित करता है कि राजनेता अपने अबोध वोट बैंक को भड़काए रखते हैं ताकि उनका मंतव्य पूरा हो सके। बिहार में इंडिया गठबंधन मुसलमानों को लुभाने में व्यस्त रहा। इसके लिए उसने इस समुदाय के लोगों को टिकट दिया। दूसरी ओर भाजपा हिन्दू वोट बैंक को एकजुट करने में लगी रही। कल मुसलमानों द्वारा बेंगलूर के हवाई अड्डे पर नमाज पढऩे का वीडियो सामने आया और इस पर भाजपा और कांग्रेस के बीच टकराव शुरू हुआ। भाजपा का कहना है कि क्या सार्वजनिक स्थल पर नमाज पढऩे की अनुमति दी गई थी और इस बारे में जवाबदेही की मांग की गई। भाजपा ने पूछा कि राज्य सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा उचित अनुमति प्राप्त करने के बाद भी उसके पथ संचालन पर क्यों रोक लगा रही है।
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इसका प्रत्युत्तर दिया है कि यह आदेश सरकारी संपत्तियों में निजी संगठनों के कार्यकलापों को विनियमित करने के लिए है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस आदेश में नहीं है। इस विवाद के बीच मुख्यमंत्री ने मुख्य सचिव को निर्देश दिया कि वह तमिलनाडु सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकलापों को विनियमित करने के लिए उसके द्वारा उठाए गए कदमों का अध्ययन करे। प्रश्न उठता है कि ऐसे वैमनस्य पैदा करने वाले आरोपों से क्या प्राप्त होता है? कुछ भी नहीं। केवल आम आदमी निशाना बनता है। वे इस बात को भूल जाते हैं कि विवाद और मतभेद पैदा करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
हमारे नेताओं ने आज धर्म को राजनीति का मख्य मुद्दा बना दिया है, जिसमें धर्म के इस्तेमाल का प्रोत्साहन इतना बड़ा है कि यह अन्य सब अपीलों और दलीलों को नकार देता है। इसलिए प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र के इस वातावरण में विकास के वायदे पीछे रह जाते हैं और धर्म के आधार पर राजनीति राजनीतिक चुनावी लाभ सुनिश्चित करती है, लोकप्रियता बढ़ाती है और मतदाताओं का धुु्रवीकरण करती है और राजनेता चाहते हैं कि ऐसा हो। कांग्रेस भाजपा पर आरोप लगाती है कि वह सांप्रदायिकता को हवा देकर मुसलमानों को हाशिए पर ले जाने का प्रयास कर रही है ताकि वह हिन्दू बहुसंख्यक वोट बैंक की राजनीति कर सके। तथापि विपक्षी दलों द्वारा अपने विरोधियों की अल्पसंख्यक विरोधी मुद्दे पर आलोचना करने और आक्रामक रूप से हिन्दू एकीकरण का विरोध करने के बावजूद वह मुस्लिम समर्थक नहीं दिखना चाहते। मुस्लिम सोच को भाजपा विरोधी मानना उनकी रणनीतिक राजनीति का आधार है। नि:संदेह भाजपा धु्रवीकरण की नई हिन्दुत्व राजनीति के माध्यम से उन क्षेत्रों में अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास कर रही है, जहां पर उसकी उपस्थिति नहीं है या नाममात्र की है और इसके लिए उसने सबका साथ, सबका विकास का नारा दिया है, जिसका तात्पर्य है कि मुसलमानों को एक अलग सामाजिक इकाई मानने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी वह मानती है कि मुस्लिम सोच एक समस्या है और अपने विरोधियों को टुकड़े-टुकड़े गैंग की मुस्लिम पार्टी कहती है।
भारत का दुर्भाग्य यह है कि यहां पर राजनीतिक और बौद्धिक दोगलेपन के कारण हिन्दू, मुस्लिम और ईसाइयों में कट्टरपन बढ़ रहा है, जिसके चलते पंथनिरपेक्षता सभी धर्मों के लिए समान सम्मान के उच्च आदर्शों से बदलकर बंधक धार्मिक वोट बैंक बनने की दानवी रणनीति बन गई है और इस क्रम में हमारे राजनेता यह स्वीकार नहीं करते हैं कि वे असली दोषी हैं। स्पष्ट है कि ऐसे प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र के वातावरण में यदि जातिवादी राजनीति चुनावी लाभ देती है तो विद्वेष पैदा करने वाले भाषणों के माध्यम से धर्म के आधार पर राजनीति मतदाताओं के धु्रवीकरण करने में सहायता करती है। हमारे राजनेताओं में सभी धर्मों को सम्मान देने की कोई इच्छा नहीं है। इसकी बजाय वे धर्म का इस्तेमाल मत प्राप्त करने के लिए करते हैं। जब स्वार्थी वोट बैंक की राजनीति हमारे राजनेताओं की राजनीतिक विचारधारा और दृष्टिकोण को निर्देशित करती है और जब सभी दल और नेता इस रंग में रंगे होते हैं तो इस समस्या का कोई समाधन नहीं है। समय आ गया है कि राजनीतिक दल इस बात को समझें कि इसके चलते होने वाला नुकसान स्थायी होगा। यह राज्य को छिन्न-भिन्न करेंगे क्योंकि राज्य की संविधान के सिवाय कोई धार्मिक पहचान नहीं है। इसलिए हमारा नैतिक आक्रोश चयनात्मक नहीं हो सकता, अपितु यह न्यायपूर्ण और सम्मानजनक होना चाहिए।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यदि हमारे नेता धर्म को राजनीति से अलग कर पाएं तो सांप्रदायिक ङ्क्षहसा समाप्त हो जाएगी और इस सबके लिए सुदृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। सभी दलों में यह सहमति बननी चाहिए कि वोट बैंक की राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल न किया जाए। दुर्भाग्यवश भारत की वर्तमान खंडित राजनीतिक स्थिति में ऐसी वास्तविकता के लिए कोई स्थान नहीं है। कुल मिलाकर हर कीमत पर सत्ता प्राप्त करने वाले हमारे राजनेताओं को वोट बैंक की राजनीति से परे सोचना होगा और अपने निर्णयों के खतरनाक प्रभावों पर विचार करना होगा क्योंकि उनके इन कदमों से देश सांप्रदायिकता की ओर बढ़ रहा है। उन्हें धर्म को राजनीति से अलग करना होगा। हमारे राजनेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे विवेकशीलता और संयम का इस्तेमाल करें। उन्हें इस बात को समझना होगा कि राष्ट्र मुख्यता मन और दिलों का मिलन है और उसके बाद यह भौगोलिक इकाई है। वास्तव में लक्ष्य यह होना चाहिए कि शासन और समानता के मानक बढ़ाए जाएं, न कि उन्हें कम किया जाए।-पूनम आई. कौशिश
