हमारे देश में ‘फुटबाल संस्कृति’ न होने का कारण क्या है

punjabkesari.in Monday, Jun 18, 2018 - 02:51 AM (IST)

शनिवार को अर्जेंटीना ने रूस में आईसलैंड के विरुद्ध वल्र्ड कप में खेला। यह दुनिया की पांचवें और 22वें नम्बर की टीमों में टक्कर थी। दिलचस्प बात यह है कि मात्र 3 लाख आबादी वाला देश आईसलैंड केवल 2 वर्ष पूर्व तक फुटबाल खेल में भारत से भी नीचे 133वें स्थान पर था। वल्र्ड कप में स्थान हासिल करने के लिए उसने इंगलैंड को हराया। 

भारत की फुटबाल टीम दुनिया में 97वें नम्बर पर है और विश्व कप में नहीं खेल रही। अपने क्वालीफाइंग राऊंड में हमारी टक्कर ईरान, गुआम, तुर्कमेनिस्तान और ओमान से थी। इस ग्रुप में हम अंतिम स्थान पर रहे। हम में से बहुतेरों को उम्मीद थी कि भारतीय टीम इतना अच्छा खेलेगी कि वह फुटबाल वल्र्ड कप तथा ओलिम्पिक जैसे ग्लोबल खेल टूर्नामैंटों में अपना स्थान बना लेगी। 

सवाल यह है कि हम ऐसा क्यों नहीं कर पाए या क्यों नहीं करते जो आईसलैंड और कैमरून जैसे देश कर पाए हैं। इसी विषय पर अपने स्तंभ में भारतीय फुटबाल टीम के पूर्व कप्तान बाईचुंग भूटिया ने यह लिखा था : ‘‘पहले कदम के रूप में हमें फुटबाल की संस्कृति पैदा करनी होगी। जिस देश में क्रिकेट एक मजहब की हैसियत हासिल कर चुका हो वहां फुटबाल की संस्कृति पैदा करना एक बहुत भारी चुनौती होगी। अन्य खेलें भी अपनी जड़ें गहरी कर रही हैं, लेकिन दक्षिण अमरीका और अफ्रीकी देशों में भरपूर संसाधन न होने के बावजूद वहां फुटबाल की संस्कृति ही इस खेल को जिंदा रखे हुए है।’’ 

सवाल पैदा होता है कि हमारे देश में यह संस्कृति गायब क्यों है? सर्वप्रथम आइए हम अपने देश में फुटबाल के बारे में कुछ पड़तालें करें। सबसे पहली बात यह है कि अपेक्षाकृत निकट अतीत में यानी कि गत 10 वर्षों दौरान यूरोपियन लीग के खेलों को देखने में भारतीय लोगों की रुचि काफी बढ़ी है। इस खेल के दीवानों में आमतौर पर शहरी इलाकों के धनाढ्य युवा भारतीय शामिल हैं। उनकी रुचि भारतीय स्पोटर््स चैनलों के लिए इतनी व्यापक और मूल्यवान है कि वे इंगलिश प्रीमियर लीग के मैच सीधे प्रसारित करते हैं। वास्तव में इंगलैंड के टी.वी. चैनलों पर भी बहुत से खेल लाइव नहीं दिखाए जाते, जबकि भारत में इनका ‘लाइव’ प्रसारण होता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हमारे खेल का  घटिया स्तर हमारी दिलचस्पी की कमी के कारण है। 

दूसरी खास बात हमें यह देखने को मिलती है कि भारत में इस खेल के लिए बढिय़ा आधारभूत ढांचा मौजूद नहीं है और हमारे यहां ऐसे खेल मैदानों की कमी है जो केवल फुटबाल के लिए ही समर्पित हों। जैसा कि भूटिया ने संज्ञान लिया है, यह स्थिति भी हमारे खेल के पिछड़ेपन के लिए दोषी नहीं ठहराई जा सकती क्योंकि हमसे बेहतर खेल प्रदर्शन करने वाले  और वल्र्ड कप में नियमित रूप में हिस्सा लेने वाले तथा ‘ग्लोबल हीरोज’ पैदा करने वाले बहुत से अफ्रीकी और लातिन अमरीकी देशों में हमारे जैसी ही परिस्थितियां हैं। क्रिकेट के मामले में भी यही बात सत्य है। भारत में सामान्यत: सड़कों और गलियों में क्रिकेट खेलना लोकप्रिय है न कि स्टेडियम के मैच। 

फुटबाल को तो क्रिकेट की अपेक्षा काफी कम आधारभूत ढांचे की जरूरत होती है जबकि क्रिकेट के मामले में हर तरह के उपकरणों की जरूरत पड़ती है, इसलिए आधारभूत ढांचे की कमी को फुटबाल संस्कृति की कमी के लिए पूरी तरह जिम्मेदार ठहराना मुश्किल है। तीसरी बात यह देखने में आती है कि फुटबाल पूर्वोत्तर भारत, गोवा, केरल तथा कोलकाता में लोकप्रिय है। इसके अलावा शायद एक-दो अन्य स्थानों पर भी इसके प्रति दीवानगी होगी लेकिन हिन्दी भाषी पट्टी में यह लोकप्रिय नहीं है। 

चौथी खास बात है भारतीय फुटबाल स्क्वॉयड और क्रिकेट स्कवॉयड की संरचना में अंतर। फुटबाल टीम के अधिकतर खिलाड़ी उक्त क्षेत्रों से ही संबंधित हैं। इनमें फर्नांडीका, बोर्जे,गुरुंग व खोंगची तो देखने को मिलते हैं लेकिन कोई शर्मा या कोहली नहीं। क्रिकेट के बारे में पांचवीं वास्तविकता यह है कि किसी कारणवश भारत की जो संस्कृतियां हॉकी में उत्कृष्टता के लिए जिम्मेदार हैं वे फुटबाल के मामले में भी बढिय़ा कारगुजारी दिखाती हैं। हाकी की तरह और क्रिकेट के विपरीत फुटबाल भी एक ‘टीम सपोर्ट’ है। 

इस परिचर्चा से मेरा क्या तात्पर्य है? वैसे तो क्रिकेट का खेल भी टीमों के बीच ही होता है लेकिन उसमें अंतर है। क्रिकेट एक ऐसा खेल है जो बार-बार शुरू और खत्म होता रहता है। प्रत्येक बाल दो  मुख्य खिलाडिय़ों (यानी गेंदबाज और बल्लेबाज) और संभवत: एक या दो अन्य सीमांत खिलाडिय़ों (फील्डर और नॉन स्ट्राइकर) के बीच एक व्यक्तिगत और स्वतंत्र घटना होती है। हाकी, फुटबाल और वॉलीबाल इन अर्थों में क्रिकेट से भिन्न हैं कि उनकी संरचना धाराप्रवाह होती है। दोनों ओर हर टीम इस तरह हमेशा संलिप्त होती है जैसा क्रिकेट में कभी नहीं होता। प्रवाहमान खेलों में व्यक्तिगत प्रतिभा बार-बार शुरू होने और रुकने वाले खेलों की तुलना में कम महत्वपूर्ण होती है। 

यहां तक कि हाकी के खेल में भारत की रैंकिंग काफी ऊंची होने के बावजूद हमारा वर्चस्व फीका पड़ गया है। जब यह ‘ड्रिबलिंग के जादूगरों’ पर निर्भर थी तो दुनिया में हमारी तूती बोलती थी। जब हाकी में ‘पास’ देने का प्रचलन बढ़ गया और यह अधिक  मात्रा में ‘टीम सपोर्ट’ बन गई तथा एस्ट्रोटर्फ की शुरूआत हो गई तो हमारा जलवा भी कमजोर पड़ गया।  ऐसे में हमें अवश्य ही यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि फुटबाल में हमारी निकृष्ट कारगुजारी का कारण न तो दिलचस्पी की कमी है और न ही आधारभूत ढांचे की। कोई अन्य बात है जो सभी वास्तविक टीम खेलों में हमारे पैरों की जंजीर बनी हुई है।

हालांकि यह स्थिति भारोत्तोलन, कुश्ती, टैनिस, बैडमिंटन, बॉक्सिंग व शूटिंग जैसी व्यक्तिगत स्पर्धाओं में हमें रोक नहीं पाई। पाठकों को ज्ञात होगा कि हमें अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय सफलताएं इन्हीं व्यक्तिगत खेलों के कारण हासिल हुई हैं। जब तक हम पूरी तरह यह विश्लेषण नहीं करते कि ऐसा क्यों हो रहा है हम भूटिया द्वारा खड़े किए गए इस सवाल का उत्तर नहीं ढूंढ पाएंगे : हमारे देश के अनेक भागों में फुटबाल के संकल्प की संस्कृति गैरहाजिर क्यों है और इसे विकसित करने के लिए क्या किया जा सकता है?-आकार पटेल


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