मोदी की नुक्ताचीनी करने वाले अब क्या करें

punjabkesari.in Sunday, Apr 30, 2017 - 11:40 PM (IST)

किसी भी देश या समाज के इतिहास में ऐसा कम ही होता है कि किसी एक व्यक्ति पर समाज का एक बड़ा वर्ग न केवल विश्वास करने लगे बल्कि उसमें हर कष्ट का निवारक देखने लगे और उस व्यक्ति के खिलाफ बोलने वाले स्वरों को अपना खुद का, समाज का या देश का दुश्मन मानने लगे। प्रधानमंन्त्री नरेन्द्र दामोदर मोदी धीरे-धीरे नेतृत्व का वह मुकाम हासिल कर रहे हैं जहां हम निरपेक्ष विश्लेषकों के लिए भी एक समस्या खड़ी हो रही है कि आलोचना के लिए कौन से बिंदू तलाशें या कौन से तर्क-वाक्य लाएं।

प्रजातंत्र के समुचित संचालन में आलोचना एक बड़ा पहलू है और इसका जन-विमर्श से विलुप्त होना खतरनाक संकेत है। तो फिर क्या  हम तथ्य-विहीन, हठधर्मी और अतार्किक आलोचना शुरू करें और वह भी इसलिए कि हम निरपेक्ष दिखें और प्रोफैशनल रूप से जिंदा रहें? क्या यह स्वयं प्रजातंत्र के लिए उचित होगा? आज मोदी की जन स्वीकार्यता उस स्तर पर है जहां स्वयं मोदी को शायद एक समानांतर विरोधी स्वर पैदा करने पड़ें। 

किस बात पर मोदी का विरोध करें? इस बात पर कि कोई अखलाक मार दिया जाता  है? या कुछ लम्पट हिन्दूवादी हिन्दू धर्म का नीम  ज्ञान लिए गौरक्षा के नाम पर किसी पहलू खान को मार देते हैं? पिछले 3 साल के शासन में ऐसा कब देखने में आया कि कभी मोदी ने इस तरह के भाव को प्रश्रय दिया है? हम विश्लेषक भूल जाते हैं कि मोदी तो पहले दिन से ही स्वच्छ भारत, नशे के खिलाफ अभियान, किसानों को मृदा परीक्षण, यूरिया पर नीम की परत, अद्भुत फसल बीमा योजना, गवर्नैंस को तेज और भ्रष्टाचार मुक्त बनाने हेतु टैक्नोलॉजी प्रयोग में लगे हुए हैं लेकिन शायद विश्लेषण के निरपेक्ष चश्मे के राडार पर यह नजर नहीं आता। 

अगर फसल बीमा योजना को पूर्णरूप से अमलीजामा पहनाने के लिए बटाईदार और जमींदार के बीच शंका की खाई खत्म करने के लिए (ताकि बटाईदार खेती में निवेश कर सकेऔर जमींदार उससे जमीन एक समय सीमा के भीतर न ले  सके) मोदी सरकार कानून बना रही है तो क्या यह विश्लेषण का विषय नहीं है? मध्य प्रदेश में पिछले 10 साल से 9 प्रतिशत कृषि विकास दर रही है पर यह निरपेक्ष विश्लेषण का बिंदू नहीं बन पाता। 

इसी दौरान कृषि क्षेत्र में राष्ट्रीय विकास दर 3.7 प्रतिशत रही, जबकि तत्कालीन सपा शासित उत्तर प्रदेश में मात्र 3.2 प्रतिशत। लेकिन अगर हम निरपेक्ष विश्लेषक यू.पी. की उपलब्धि की आलोचना करें तो हमें अपना ही वर्ग ‘भाजपाई’ मानने लगेगा। उज्ज्वला योजना ने भारतीय ग्रामीण गरीब महिलाओं का जीवन बदल दिया (वाम और अंग्रेजीदां विश्लेषक शायद उस अभाव जनित, यातना ग्रस्त जीवन से वाबस्ता नहीं रहे हैं) लेकिन क्या वह किसी निरपेक्ष विश्लेषक की बौद्धिक जुगाली का सबब बन सका? अगर हम यह समझ लेंगे तो यह भी जान जाएंगे कि क्यों मोदी की जनस्वीकार्यता  लगातार बढ़ती जा रही है। 

यह अजीब कुतर्क है कि कब्रिस्तान के लिए जमीन दी जाए तो वह अखिलेश सरकार की धर्मनिरपेक्ष राजनीति होती है लेकिन वहीं अगर चुनाव सभा में मोदी उसका जिक्र भर भी कर दें तो उससे साम्प्रदायिकता की बू आने लगती है। मोदी को शायद यह चर्चा नहीं करनी पड़ती अगर हम निरपेक्ष विश्लेषक इस बात को लेकर पिछले 70 साल में किसी दिग्विजय, किसी ओवैसी, किसी आजम खान या किसी मायावती, मुलायम या लालू की आलोचना कर रहे होते। चुनाव के ठीक पहले कोई कांग्रेसी मुख्यमंत्री राजशेखर रैड्डी जब मुसलमानों को आरक्षण दे देता है (यह पूरी तरह से जानते हुए कि अदालत में यह आदेश नहीं ठहरेगा) तो क्या हमेंंधर्मनिरपेक्षता का चोला पहनते हुए चुप रहना चाहिए था? 3 तलाक की इस्लामी व्यवस्था सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग है लेकिन क्या किसी वाम चिन्तक को इसके खिलाफ तलवार ताने देखा गया? 

अगर वर्तमान सरकार इसके खिलाफ कानून लाए तो उसे साम्प्रदायिकता की राजनीति कह कर हम विश्लेषकों को मोदी की आलोचना करनी चाहिए? तत्कालीन राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार सन 1986 में मुसलमान पुरुषों को खुश करने के लिए मुस्लिम महिला विरोधी कानून बनाती है ताकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला निष्प्रभावी हो सके। सर्वोच्च अदालत ने तलाकशुदा शाहबानो के गुजारा भत्ता के लिए अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत आदेश किया था जो मौलवियों को नागवार लगा। मुसलमानों के वोट के लिए इस आदेश को निष्प्रभावी करते हुए तथा मुस्लिम पर्सनल लॉ को बहाल रखते हुए तत्कालीन राजीव सरकार एक नया कानून बनाती है जिसका नाम मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार अभिरक्षण) कानून है-जो महिलाओं  के खिलाफ है लेकिन जिसका नाम मुस्लिम महिला अभिरक्षण रखा गया तो वह धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक हो जाता है। 

मोदी या गांधी की जन स्वीकार्यता और धर्म गुरुओं या बाबाओं की स्वीकार्यता में अंतर को भी समझना होगा। निरपेक्ष विश्लेषण की एक मूल शर्त होती है कि विश्लेषणकत्र्ता संबंधित व्यक्ति के वर्तमान मुकाम से यानी उसकी सम्प्रति उपलब्धियों से रंचमात्र भी प्रभावित न  हो। वह यह नहीं कह सकता  कि जब समाज का एक बड़ा वर्ग उस व्यक्ति को मान्यता दे रहा  है तो वह सही ही होगा। इस लिहाज से न तो गांधी की आलोचना हो सकती थी न ही कार्ल माक्र्स की और न ही धर्म गुरुओं या ‘बाबाओं’ की क्योंकि समाज तात्कालिक कारकों से, भावनात्मक अतिरेक के कारण और कई बार अर्ध-सत्य के आधार पर ही अपने विचार बना लेता है।

लेकिन मोदी की जन स्वीकार्यता उस भरोसे की वजह से है जो जनता को काफी अरसे बाद हुआ है और वह भरोसा इस बात का नहीं है कि वह राम  मंदिर बनवाएंगे बल्कि इसका कि इस व्यक्ति में भारत को बदलने की क्षमता है , इसका व्यक्तित्व भ्रष्टाचार या सत्ता जनित दोषों से परे है। यही वजह है कि अरविन्द केजरीवाल को विकास छोड़कर मोदी के खिलाफ अभियान छेडऩा महंगा पड़ा।
 


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