उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता, क्या अब शेष भारत की बारी

punjabkesari.in Wednesday, Feb 07, 2024 - 05:35 AM (IST)

यह सप्ताह राजनीति में उतार-चढ़ाव और दरवाजे बदलने का रहा है। एक मुख्यमंत्री ने पाला बदला तो दूसरे को गिरफ्तार किया गया और तीसरे को उसका स्थान दिखाया गया तथा इस बीच विपक्ष ने भाजपा पर आरोप लगाया कि वह विधायकों को रिश्वत देकर लुभा रही है और इस सबके बीच सुरम्य पर्वतीय राज्य उत्तराखंड ने एक इतिहास बनाया, जब वह देश का पहला राज्य बना, जिसने एक समान नागरिक संहिता लागू की। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के बाद यह भाजपा का तीसरा मुख्य एजैंडा रहा है। 

उत्तराखंड में एक समान नागरिक संहिता सरकार द्वारा नियुक्त समिति की सिफारिशों के बाद लागू की गई। एक समान नागरिक संहिता पर मूलत: लंबे समय से चर्चा चल रही है और यह एक बहुप्रतीक्षित कानूनी सुधार है, जिसका उद्देश्य विवाह पंजीकरण, बाल अधिरक्षा, तलाक, दत्तक ग्रहण, संपत्ति अधिकार, अंतर राज्य संपत्ति अधिकार जैसे पर्सनल कानूनों में धर्म को ध्यान में न रखते हुए एकरूपता लाना है। इसमें महिलाओं, बच्चों, विकलांगों के हितों की सुरक्षा करने और पैतृक संपत्ति के मामले में लड़कियों को समान अधिकार देने तथा लिंग समानता सुनिश्चित करने को भी महत्व दिया गया है। 

उत्तराखंड में बहु विवाह प्रथा, बाल विवाह और लिव इन रिलेशनशिप के पंजीकरण पर भी प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव किया गया है। इससे कानून में धर्म को सामाजिक संबंधों और विवाह, उत्तराधिकार परिवार, भूमि आदि के मामले में पर्सनल कानून से अलग रखा गया है तथा हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिन्दू कोड बिल, शरिया लॉ, मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट 1937 आदि धर्म के आधार पर व्यक्तिगत कानूनों में सुधार के विवादास्पद मुद्दों का निराकरण किया गया है। इसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि सभी भारतीयों के साथ समान रूप से व्यवहार किया जाएगा, लिंग समानता स्थापित की जाएगी, महिलाओं की दशा में सुधार में सहायता की जाएगी। हालांकि जन जातीय लोगों को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। 

एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता विद्यमान भेदभावपूर्ण प्रथाओं के कारण उत्पन्न हुई और यह सामाजिक सुधार के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है, जिससे असमानताएं और विषमताएं समाप्त हों और मौलिक अधिकारों का पालन हो। भाजपा के अनुसार स्पष्ट है कि किसी भी देश में धर्म आधारित कानून नहीं होने चाहिएं और सभी नागरिकों के लिए एक कानून होना चाहिए। इसके अलावा एक समान नागरिक संहिता में कमजोर वर्गों, धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षा दी गई है तथा एकता के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को बढ़ावा दिया गया है। 

स्वाभाविक रूप से विपक्ष ने इसका इस झूठे आधार पर विरोध किया है कि यह धार्मिक समूहों के व्यक्तिगत कानूनों और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में हस्तक्षेप करेगा और उनका कहना है कि इसे तब तक लागू नहीं किया जाना चाहिए, जब तक धार्मिक समूह इस बदलाव के लिए तैयार न हों। यह अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का मुद्दा है और हिन्दुत्व ब्रिगेड की भारत में रह रहे मुसलमानों के लिए नीति है। यह भारत को विखंडित करेगा और इसकी विविधतापूर्ण संस्कृति को नुकसान पहुंचाएगा। वर्ष 2014 के बाद से भारत की राजनीतिक वास्तविकता में बहुत बदलाव आया है और आधुनिक समाज धीरे-धीरे एकजुट बन रहा है, जहां पर धर्म, समुदाय और जाति की परंपरागत सीमाएं धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं तथा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ कर रही हैं और इस भावना को उच्चतम न्यायालय ने भी अपने विभिन्न निर्णयों में व्यक्त किया है। 

इस कानून का विरोध करने वालों का कहना है कि यह अपनी पसंद के धर्म को मानने की संवैधानिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है, जिसमें विभिन्न धर्मों को अपने वैयक्तिक कानूनों को मानने की अनुमति दी गई है। उदाहरण के लिए, संविधान का अनुच्छेद 25 प्रत्येक धार्मिक समूह को अपने धर्म के मामलों का प्रबंधन करने का और अनुच्छेद 29 उनकी विशिष्ट संस्कृति के संरक्षण का अधिकार देता है। संविधान सभा की मौलिक अधिकार उपसमिति ने एक समान नागरिक संहिता को  जानबूझकर मौलिक अधिकार नहीं बनाया था। 

एक समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं और इसका निराकरण मध्यमार्गीय है, किंतु इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि एक समान नागरिक संहिता से भाजपा को चुनावी लाभ होगा। इसके अलावा राम मंदिर के निर्माण का उपयोग भी विपक्ष को हाशिए पर लाने के लिए किया जाएगा। भाजपा का कहना है कि विपक्ष मुस्लिम समर्थक है। अधिकतर हिन्दू इन निर्णयों को भाजपा को अपने मूल एजैंडा को लागू करने के रूप में देखेंगे। 

तथापि कुछ लोग एक समान नागरिक संहिता को लेकर इस बात से चिंतित हैं कि इसके माध्यम से सभी समुदायों पर हिन्दू कृत्य कोड संहिता को लागू किया जाएगा और इसमें विवाह जैसे व्यक्तिगत मुद्दों के बारे में प्रावधान होंगे, जो हिन्दू परंपराओं के अनुरूप होंगे और इसके माध्यम से अन्य समुदायों को भी कानूनी रूप से उन्हें मानने के लिए बाध्य किया जाएगा। कानूनी विशेषज्ञ में इस बारे में मतभेद है कि क्या किसी राज्य के पास एक समान नागरिक संहिता लागू करने की शक्ति है। कुछ का मानना है कि विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और संपत्ति अधिकार जैसे मुद्दे संविधान की समवर्ती सूची की प्रविष्टि 52 में आते हैं और इस पर केन्द्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं। इसलिए राज्य सरकारों को इस कानून को बनाने और लागू करने की शक्ति प्राप्त है। 

तथापि कुछ लोग इससे सहमत नहीं हैं क्योंकि राज्यों को एक समान नागरिक संहिता बनाने का अधिकार देने से अन्य व्यावहारिक समस्याएं पैदा होंगी। जरा सोचिए यदि गुजरात में एक समान नागरिक संहिता हो और वहां पर दो लोग विवाह करते हैं और फिर वे राजस्थान जाते हैं तो उन पर कौन सा कानून लागू होगा? एक समान नागरिक संहिता राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है और यह बाध्यकारी नहीं है। अनुच्छेद 47 में प्रावधान है कि राज्य मादक द्रव्यों और औषधियों के सेवन का प्रतिषेध करेगा, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकर हैं, किंतु अधिकतर राज्यों में शराब की बिक्री हो रही है और अलग-अलग राज्यों में शराब पीने की अलग-अलग कानूनी आयु निर्धारित की गई है। 

प्रश्न उठता है कि एक समान नागरिक संहिता में ऐसा क्या है कि हिन्दुत्व ब्रिगेड के नेताओं को छोड़कर अन्य सारे राजनेता इसका विरोध करते हैं? इसको अल्पसंख्यक विरोधी क्यों माना जाता है? यदि हिन्दू पर्सनल लॉ का आधुनिकीकरण और परंपरागत ईसाई प्रथाओं को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है तो फिर मुस्लिम पर्सनल लॉ को पवित्र क्यों माना जाना चाहिए? क्या राज्य धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव करता है? गत वर्षों में धर्म की विकृत व्याख्याएं की गई हैं और इसका इस्तेमाल संकीर्ण व्यक्तिगत राजनीतिक एजैंडा और वोट बैंक के लिए किया गया है और इससे देश का वातावरण खराब हुआ है तथा इस महत्वपूर्ण तथ्य की उपेक्षा की गई है कि अंबेडकर ने वैकल्पिक एक समान नागरिक संहिता का पक्ष लिया था। उन्होंने दो टिप्पणियां की थीं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किया जा सकता है और यह सारे भारत में एक जैसा नहीं है। 

अनेक धार्मिक प्रथाएं और विश्वास पर्सनल लॉ द्वारा शासित होते हैं और जब तक एक समाज के रूप में हम इन चीजों को छोडऩे के लिए तैयार नहीं हों, जिनके हम आदी बन चुके हैं, क्या तब तक एक समान नागरिक संहिता हो सकती है। विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि ऐसे विषय हैं जिन्हें पूर्णत: एक समान कानूनों द्वारा विनियमित नहीं किया जा सकता। नि:संदेह एक समान नागरिक संहिता का मार्ग संवेदनशील और कठिन है किंतु इस मार्ग पर आगे बढ़ा जाना चाहिए। यदि संविधान को सार्थक बनाना है तो इस संबंध में एक शुरूआत की जानी चाहिए। परंपराओं और प्रथाओं के आधार पर भेदभाव को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। देश की जनसंख्या को विनियमित करने के लिए कानून के समक्ष समानता स्थापित की जानी चाहिए। कुल मिलाकर समय आ गया है कि अलग-अलग समुदायों के लिए अलग-अलग कानून को रद्द किया जाए और अनुच्छेद 44 लागू कर भारत में सुधार लाया जाए। अतीत में फंसे रहकर प्रगति नहीं की जा सकती।-पूनम आई. कौशिश 
 


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