‘देशद्रोह कानून का आधुनिक लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं’

punjabkesari.in Saturday, Mar 06, 2021 - 03:01 AM (IST)

यद्यपि कुछ समय पूर्व 1200 से अधिक पुरातन कानूनों को रद्द कर दिया गया था फिर भी ब्रिटिश उपनिवेशक काल के कई अप्रचलित कानूनों का पालन किया जा रहा है। भारत की आजादी के 72 सालों के बाद भी इनका पालन करना इससे ज्यादा अफसोसजनक बात कुछ नहीं हो सकती। 

उपनिवेशक कानूनों को रखने का कोई औचित्य नहीं है जिन्हें इंगलैंड द्वारा भी त्याग दिया गया है। शासकों द्वारा एक ऐसा कानून जिसका गलत इस्तेमाल होता आया है यहां पर इसे देशद्रोह कहते हैं। ब्रिटिश उपनिवेशक शासकों द्वारा इसे भारत में 1835 में जारी किया गया। राष्ट्रीय नेता बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसैंट, मौलाना आजाद, द अली ब्रदर्ज और अनेकों स्वतंत्रता संग्रामियों को अंग्रेजी शासकों का आक्रोश बर्दाश्त करना पड़ा। यहां तक कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी इस कानून के प्रावधानों का सामना करना पड़ा जब 1922 में ‘यंग इंडिया’ मैगजीन में छपे उनके लेख को अदालत में लाया गया। 

हमारे स्वतंत्रता संग्रामियों के खिलाफ ब्रिटिश शासकों द्वारा उठाए गए अनेकों कदमों को याद करने में मैं खो जाना नहीं चाहता। हालांकि देशद्रोह शब्द संवैधानिक रूप से गायब हो गए। इसे भारतीय दंड संहिता के तहत धारा 124ए के रूप में बरकरार रखा गया। 1970 में इसे कानूनी रूप से एक अपराध करार दे दिया गया। आपराधिक प्रक्रिया संहिता शांतमय ढंग से एकत्रित होने के अधिकार पर पाबंदियों का प्रावधान देती है जिसके तहत इसे जनता के लिए खतरा माना जाता है। इसी तरह किसी व्यक्ति या संगठनों द्वारा दिए गए स्वतंत्र भाषण को देश की सम्प्रभुता, सुरक्षा तथा अखंडता के नाम पर दबाया जाता है। यह सभी हमारे संवैधानिक मूल्यों और नागरिकों द्वारा बुनियादी अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ जाते हैं। 

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री तथा नैकां नेता फारूक अब्दुल्ला के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि सरकार के खिलाफ असंतोष की आवाज लगाना राष्ट्रद्रोह नहीं है। 2014 में विधि आयोग की अपनी 248वीं रिपोर्ट में अधिनियम को निरस्त करने की सिफारिश की थी। यह कहा गया था कि इसे उपनिवेशक काल के दौरान अधिनियमित किया गया था और इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर नाटकीय प्रदर्शनों द्वारा प्रकट राष्ट्रवादी भावनाओं को रोकने के लिए किया गया। 

आधुनिक लोकतंत्र समाज में इसका कोई स्थान नहीं। वास्तव में यह अनुच्छेद-14 और 19 का उल्लंघन है। यहां तक कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक बार इस कानून के खिलाफ बात की थी लेकिन अधिकारियों ने कभी भी इसके बारे में चिंता नहीं की क्योंकि इसके प्रावधान सत्ताधारी शासकों के लिए लाभप्रद थे जिससे वे अपने आलोचकों को चुप करवाने, उन पर अभियोग चलाने तथा राजनीतिक विपक्षियों को दबाने के लिए या फिर उन्हें लक्षित करने हेतु इसका इस्तेमाल कर सकते थे। इसके साथ-साथ स्वतंत्र विचारों वाले लेखकों, शिक्षकों तथा मीडिया के लोगों को लक्ष्य बना सकते थे। 

इस प्रकाश में देखा जाए तो मुझे दिल्ली के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेन्द्र राणा की प्रशंसा करनी चाहिए जिन्होंने बेंगलूर कार्यकत्र्ता दिशा रवि को जमानत देने के दौरान टिप्पणियां कीं जिसे दिल्ली पुलिस द्वारा टूलकिट मामले के लिए गिरफ्तार किया गया था। माननीय न्यायाधीश ने ठीक ही कहा था कि किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में नागरिक सरकार पर विवेक रखने वाले होते हैं। इसलिए उन्हें सलाखों के पीछे बंद नहीं किया जा सकता क्योंकि वे राज्यों की नीतियों से असहमत हैं।राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2019 में देशद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए। 2016 में 35 मामलों के साथ इसने 165 प्रतिशत की लम्बी छलांग लगाई है। 

बिना किसी कारण के संवैधानिक रूप से मिले मूल अधिकारों को दबाने के लिए देशद्रोह कानून का भेदभावपूर्ण ढंग से इस्तेमाल हो रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत इकोनॉमिक इंटैलीजैंस यूनिट के डैमोक्रेसी इंडैक्स ग्लोबल रैंकिंग में 2020 में 53वें स्थान पर आ गया। 2014 में यह 27वें स्थान पर था। प्रैस की स्वतंत्रता के मामले में भी भारत वल्र्ड प्रैस फ्रीडम इंडैक्स 2020 में 180 देशों में 142वें स्थान पर आ गया। 

हमें उपनिवेशक युग के इन कानूनों पर गंभीरता से गौर करना चाहिए और हमें डरना नहीं चाहिए। लोकतंत्र में बौद्धिक कायरता द्वारा कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। संयोग से वाशिंगटन स्थित विख्यात ङ्क्षथक टैंक फ्रीडम हाऊस ने भारत के स्वतंत्रता स्कोर को ‘मुक्त’ से ‘आंशिक रूप से मुक्त’ में डाल दिया है। फ्रीडम हाऊस का कहना है कि 2014 में जब से नरेन्द्र मोदी ने देश की बागडोर संभाली है अधिकारों तथा लोगों की स्वतंत्रता के हालात बिगड़े हैं। यह एक संवेदनशील मुद्दा है। मैं आशा करता हूं कि मोदी सरकार अपनी वैश्विक छवि को सुधारने के लिए साहसिक कदम उठाएगी।-हरि जयसिंह 
 


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