गीदड़ भभकियों की बजाय सुरक्षा तंत्र की कमियों पर ध्यान देने की जरूरत

punjabkesari.in Sunday, Sep 25, 2016 - 01:52 AM (IST)

(वीरेन्द्र कपूर): टी.वी. कैमरों की चकाचौंध से दूर सुरक्षा व विदेश नीति के विशेषज्ञ आपको बताएंगे कि पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने की सोचना बेवकूफी के सिवा और कुछ नहीं। सच्चाई यह है कि यदि हम जवाबी कार्रवाई करने की क्षमता रखते होते तो हमने वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में संसद पर हुए हमले के बाद ही यह कार्रवाई कर दी होती। 11 महीने  से सीमा पर बैठे हमारे सैनिकों को जब अमरीकी दबाव में पीछे बुलाया गया तो भारत को कम से कम इतनी सांत्वना तो थी कि इसकी इज्जत बच गई है, जबकि पाकिस्तान को सार्वजनिक रूप में यह प्रतिबद्धता व्यक्त करनी पड़ी थी कि आगे से वह भारत विरोधी जेहादियों को अपनी जमीन प्रयुक्त नहीं करने देगा। 

लेकिन पाकिस्तान को अपनी पुरानी करतूतों पर आते देर नहीं लगी। 26/11 का मुम्बई आतंकी हमला उसकी सबसे खतरनाक शरारत था। इस शैतानी कुकृत्य में 160 से भी अधिक निर्दोष लोगों को जिन्दगी से हाथ धोने पड़े थे। फिर भी पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए कुछ नहीं किया गया था। उस समय मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री व एम.के. नारायणन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे। उड़ी हमले के बाद उन्होंने एक चर्चा दौरान विवरण सहित बताया कि जब आतंकी अभी मुम्बई के ताज होटल में मोर्चा संभाले हुए थे, तो राजनीतिक हलकों में कितनी भागमभाग मची हुई थी। 

सकते में आया हुआ राजनीतिक नेतृत्व जबरदस्त जनाक्रोश को शांत करने को उतावला था। फिर भी मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई उच्च स्तरीय मीटिंगें इस दुखद नतीजे पर पहुंचती रहीं कि सैन्य कार्रवाई बिल्कुल गैर-उपजाऊ सिद्ध होगी। यह महसूस किया गया कि सशस्त्र प्रतिक्रिया की लागत अंततोगत्वा पाकिस्तान की तुलना में भारत के लिए घाटे का अधिक बड़ा सौदा सिद्ध होगी। यथार्थवादियों ने सवाल उठाया था कि एक पाशविकता का बदला लेने की भ्रामक खुशी के लिए आॢथक प्रगति को बाधित क्यों किया जाए। 

वास्तव में ‘जैसे को तैसा’ की प्रतिक्रिया के लिए दबाव बनाने वाले लोग नारायणन के इस सुझाव पर तो खास तौर पर लाल-पीले होंगे कि उड़ी प्रकरण की सबसे बड़ी प्रतिक्रिया होगी पाकिस्तान के विरुद्ध साइबर युद्ध छेडऩा क्योंकि सूचना टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत की क्षमताएं पाकिस्तान की तुलना में कई गुणा बेहतर हैं। 

दूसरे शब्दों में बदला ले सकने के हमारे विकल्प चिन्ताजनक हद तक सीमित हैं। जहां तक अन्तर्राष्ट्रीय परिषदों में भारत द्वारा पाकिस्तान का नाम लेकर दोषारोपण करने तथा इसे शर्मिन्दा करने की बात है, तो पाकिस्तान इसकी लेशमात्र भी परवाह नहीं करता। चीन के अभ्युदय तथा पुतिन के अन्तर्गत रूस के पुन: शक्तिशाली होने के बावजूद अमरीका अभी भी सबसे बड़ी शक्ति है। लेकिन इस सबसे बड़ी शक्ति के साथ भी पाकिस्तान हर रोज विश्वासघात करता है। जिस ओसामा बिन लादेन के सिर पर अमरीकियों ने 2.5 करोड़ डालर का ईनाम घोषित कर रखा था, वही ओसामा पाकिस्तानी मिलिट्री छावनी में ही आई.एस.आई. द्वारा उपलब्ध करवाए गए एक सुरक्षित घर में छिपा हुआ था। 

इस बात पर शक्तिशाली अमरीकियों को गुस्सा आना ही चाहिए था। इसके बावजूद अमरीका अभी भी पाकिस्तान के साथ इस प्रकार कारोबार जारी रखे हुए है, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो। 

पाकिस्तान को सैंकड़ों अरब डालर खैरात में देने तथा शस्त्रागारों की आपूर्ति करने के बावजूद अमरीका आज तक पाकिस्तानी सैन्य मुख्यालय से आज्ञाकारिता हासिल नहीं कर सका। यह तथ्य इस सच्चाई को निहित रूप में रेखांकित करता है कि आतंकवाद के विरुद्ध अधकचरी सफलता हासिल करना भी कितना कठिनाई भरा काम है। 15 वर्ष तक अफगानिस्तान में आतंक के विरुद्ध लड़ाई लडऩे के बाद भी अमरीका की विफलता इस बात का प्रमाण है कि यदि वैर-भाव रखने वाला कोई पड़ोसी आपके उद्देश्य को हमेशा पलीता लगाने पर आमादा हो तो पैसा तथा जबरदस्त सैन्य शक्ति, दोनों मिलकर भी जीत हासिल नहीं कर सकते। यदि आई.एस.आई. अफगान तालिबान की पीठ पर न होता तो बहुत लंबा समय पहले ही यह धराशायी हो चुका होता। इसके बावजूद अमरीका वाले आई.एस.आई. को नुकेल नहीं डाल पाए।
 
जहां तक छद्म सैन्य आप्रेशन लांच करने की बात है, सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में यह काम करने के लिए हमारे पास मानवीय संसाधन ही उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन पाकिस्तान वालों को हमारे देश के अंदर और बाहर गद्दारों की बहुत बड़ी संख्या का विश्वास हासिल है। जमीनी स्तर पर भारत को  जो थोड़े-बहुत लाभ हासिल थे, वे भी संयोगवश प्रधानमंत्री बने इंद्र कुमार गुजराल के आदेश पर छोड़ दिए गए थे। गुजराल साहब तो शायद सपने में भी ‘साडा लाहौर’ के सपने देखा करते थे। उन्होंने ‘रॉ’ को पाकिस्तान में एजैंटों का पोषण रोकने का आदेश दिया था। 

इसलिए राम माधव और अन्य जैसे सत्तारूढ़ पार्टी के दिलेरी भरे बयान देने वाले नेताओं के बावजूद  हमें ऐसी कोई संभावना दिखाई नहीं देती कि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध अपने जेहादी मिशन से तौबा करेगा। रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर पर जो उम्मीदें थीं, वह उन पर खरे नहीं उतर पाए हैं। उन्हें गीदड़ भभकियां जारी करने की बजाय सुरक्षा तंत्र में मौजूद विकराल खामियों के बारे में अधिक चिन्ता करनी चाहिए क्योंकि इन्हीं खामियों के चलते उनकी आंखों के ऐन सामने सैन्य अवस्थापनाओं पर बार-बार हमले हो रहे हैं। 

हमारे देश पर विदेशी हमलों का लंबा इतिहास रहा है और इनके समक्ष पीछे हटने या फिर आत्मसमर्पण करने की भावना एक तरह से एक राष्ट्र के रूप में हमारे अंदर रच-बस चुकी है। यह कड़वी सच्चाई बताने में मुझे कोई झिझक नहीं कि हमारे अंदर वैसा माद्दा ही नहीं है कि हम उन लोगों को पीछे धकेल सकें, जो हमारे घरों पर धावा बोलते हैं और यहां तक कि हमारी आंखों के सामने इन्हें जला देते हैं। बंगलादेश का मामला बिल्कुल अलग था, वहां पूरी की पूरी आबादी पंजाबी मुस्लिमों के वर्चस्व वाले पाश्विक पाकिस्तानी सैन्य और सिविलियन तंत्र के विरुद्ध उठ खड़ी हुई थी। 

संक्षेप में कहा जाए तो हमें उड़ी, पठानकोट एवं गुरदासपुर की घटनाओं का ‘उपयुक्त जवाब’ दिए जाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दो महीने से भी अधिक समय से पाकिस्तान की शह पर घाटी में उत्पात मचा हुआ है। हमारे साथ जो हो रहा है, शायद हम इसी के हकदार हैं। हमारा इतिहास इस बात का गवाह है कि हम कितनी जल्दी अपने आक्रांताओं और अपने देश पर कब्जा करने वालों के साथ मधुर संबंध बना लेते हैं। उड़ी हमले की यादें भी तब धुंधली पड़ जाएंगी जब खबरों में किसी नए संकट की चर्चा शुरू हो जाएगी। वैसे भी जबरदस्त आक्रोश दीर्घकाल तक जिन्दा नहीं रहता।
 
फिर भी यदि हम किसी बात पर कुछ इतरा सकते हैं तो यह संज्ञान अवश्य लिया जाना चाहिए कि समस्त सामाजिक-आर्थिक सूचकांकों की दृष्टि से हम पाकिस्तान से कई गुणा बेहतर हैं। जेहादियों द्वारा फैलाई गई अज्ञानता में फंसे हुए जो लोग बहुत आसानी से पोलियो के टीके लगाने वालों की हत्या कर सकते हैं और जिन्होंने कभी सच्चे लोकतंत्र के बारे में देखा-सुना ही नहीं, जिन्हें कोई मूलभूत अधिकार उपलब्ध नहीं है-ऐसे साधारण पाकिस्तानी वास्तव में हमारी हमदर्दी के हकदार हैं। वे पाकिस्तानी सेना के उन कमांडरों के बेजुबान कैदी हैं, जिन्होंने गरीब लोगों की कीमत पर खुद को हट्टा-कट्टा बना लिया है।         
 


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