इस बार चुनावों में काम नहीं आएंगे ‘नेताओं के लारे’

punjabkesari.in Sunday, Feb 17, 2019 - 04:09 AM (IST)

धर्मनिरपेक्ष शब्द का अप्रासंगिक हो जाना तथा ‘मॉब लिंचिंग’ की बात चलना, आर.बी.आई., सी.बी.आई., ‘कैग’, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रश्र खड़े होना भारतीय लोकतंत्र के लिए डरावने भविष्य के संकेत हैं। इस बार होने वाले संसदीय चुनावों में इन प्रश्रों ने भी उठना है और जिस तरह यू.पी.ए. महागठबंधन एक के बाद एक अग्निबाण छोड़ रहा है, भाजपा तथा उसकी सांझीदार ताकतों के लिए यह एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। 

सरकार जैसे राफेल विमान खरीद के नागपाश में फंस गई है, कैग की रिपोर्ट जारी होने के बाद यह और कस गया है। चाहे रिपोर्ट ऐेसे पेश की गई कि लोग दुविधा में फंस जाएं लेकिन यह किसी से छुपा नहीं कि भ्रष्टाचार का जो भी मामला उठेगा इस बार उसका प्रभाव लोगों के मन पर गहरा ही देखने को मिल रहा है। यह भी सच्चाई है कि लोगों ने इस बार लारों या वायदों से नहीं खुश होना बल्कि कड़ी हकीकतों ने कुछ निर्णायक फैसले लेने हैं। इन फैसलों को जिन मसलों ने प्रभावित करना है, उन नुक्तों को विचारा जाना आज समय की जरूरत है। 

स्थानीय मतभेदों के बीच राजनीतिक गठजोड़
सबसे पहले तो जिस तरह से इस बार लोकसभा चुनावों में तीन शक्तिशाली महिलाओं ने अपना प्रभाव छोडऩा है, उनके सामने क्या चुनौतियां हैं, राजनीति किस करवट बैठती है, बहुत महत्वपूर्ण प्रश्र हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती, तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी तथा कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी में से ममता बनर्जी ने गत दिनों जिस तरह से केन्द्र सरकार को करारे जवाब दिए, सी.बी.आई. के मामले में भी और उसके बाद जिस तरह उन्होंने दिल्ली में महागठबंधन के दूसरे बड़े प्रदर्शन के अवसर पर बातें कीं, वे भविष्य की राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकती हैं लेकिन उनके मामले में तथा पंजाब या अन्य कई राज्यों के मामले में भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वहां कई तरह के स्थानीय मुद्दे भारी हैं तथा इन सांझीदार पार्टियों में आपसी तीखे मतभेद भी हैं। 

इसकी ताजा मिसाल तो दिल्ली वाले धरने में ही नजर आ गई थी, जब ममता बनर्जी के स्टेज पर आने के समय कुछ वामपंथी नेताओं ने पीठ फेर ली थी। इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह द्वारा भी तीन बार विभाजित हो चुकी आम आदमी पार्टी से किसी तरह के समझौते से इंकार किए जाने के बाद वाली बात भी छुपी नहीं है। बसपा तथा सपा के गठजोड़ ने मायावती का वजन बढ़ाया हुआ है। ऐसे ही प्रियंका गांधी के कांग्रेस महासचिव बनने से पार्टी को काफी उत्साह तथा मनोबल मिला है और यदि वह यू.पी. पर लगातार ध्यान केन्द्रित कर लेती हैं तो कांग्रेस को काफी समर्थन मिलने की आशा है लेकिन समय कम है और चुनौतियां कहीं अधिक। 

तू मुझे रोक, मैं तुझे रोकूं
इस बार जो विशेष तरह की बंदिशों की राजनीति खेली जा रही है या खेली जानी है, वह भी अपने आप में बड़ा मुद्दा बनेगी और लोगों के मन को बदलेगी। इसकी ताजा तस्वीर तब सामने आई जब यू.पी.के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विद्यार्थी कार्यक्रम में जाने से रोका गया। हालांकि जिला प्रशासन के हवाले से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा यह कहा गया कि क्योंकि अखिलेश ने कुंंभ के एक कार्यक्रम में भी जाना था इसलिए वहां अमन-कानून के खतरे को भांपते हुए यह निर्णय लिया गया लेकिन लोग जानते हैं कि यह केवल बहाना था, अखिलेश की यह रोक राजनीतिक बंधन था। हमें इस बात की ओर नहीं जाना कि योगी पर अखिलेश सरकार के समय कितने आपराधिक मामले दर्ज थे और उनको क्यों रोका गया मगर इतना जरूर है कि लोकतंत्र में यह रोक-टोक खतरे की घंटी तथा लोकतंत्र की समाप्ति का संकेत ही देती है। 

बेरोजगारी का मामला 
इन राजनीतिक मुद्दों के साथ-साथ जो सामाजिक-आर्थिक मुद्दे हैं उनमें से बेरोजगारी ने शीर्ष पर रहना है। लोग त्रस्त हैं। मौजूदा सरकार की ओर उंगलियां उठी हैं तथा आंकड़े भी यही कह रहे हैं कि रोजगार पैदा होने की बजाय नौकरियां गई हैं। चाहे यह नोटबंदी के कारण हुआ या बैंकों में हुए अरबों के घोटालों के कारण, एक बार तो देश की जनता से त्राहिमाम करवा दिया। सरकारी सर्वेक्षण ही यह कह रहे हैं कि 2017-18 के दौरान भारत में बेरोजगारी की दर 45 सालों के शीर्ष स्तर पर पहुंच गई है। नैशनल सैम्पल सर्वे आफिस के आंकड़ों के अनुसार जुलाई 2017 से जून 2018 तक देश में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रही, जो 1972-73 के बाद सर्वोच्च है। 

हमारा औद्योगिक क्षेत्र भी निरंतर गिरावट की ओर गया है, कृषि क्षेत्र संकट में है, किसान आत्महत्याओं के मार्ग पर हैं, युवा विदेशों की ओर भाग रहे हैं। ऐसे अवसर पर लोगों की ओर से प्रश्र दागे जाना स्वाभाविक है और इस बार इन सवालों के सुर भी ऊंचे होने के आसार हैं। सामाजिक क्षेत्र में ध्रुवीकरण के प्रयास भी जारी हैं और लोगों को आरक्षण के नाम पर बुरी तरह से बांटा जा रहा है। हमने लेख की शुरूआत जिस शब्द से की थी, उसी पर समाप्त किए जाने का भाव स्पष्ट है कि हमने कहीं न कहीं देश में से सांस्कृतिक कड़वाहट समाप्त करने की बजाय विभाजन बढ़ा दिया है तथा समानता व भाईचारे की सम्भावना को भी खतरे में डाल लिया है।-देसराज काली (हरफ-हकीकी)     


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