लोकसभा में 3 सरकार विरोधी सांसदों का प्रवेश चिंताजनक

punjabkesari.in Friday, Jun 14, 2024 - 05:48 AM (IST)

मोदी -शाह की पिछली भाजपा सरकार ने उन लोगों के खिलाफ सख्त रुख अपनाया था, जो उनके अनुसार सुरक्षा के लिए खतरा थे। मोदी के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. सरकार को हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों के मद्देनजर इस नीति पर फिर से विचार करना पड़ सकता है, जिसमें कुछ अलगाववादी संसद में वापस आए हैं। खडूर साहिब निर्वाचन क्षेत्र से जेल में बंद  खालिस्तानी समर्थक अमृतपाल सिंह और पंजाब के फरीदकोट से इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह के बेटे सरबजीत सिंह खालसा के चुनाव ने सरकार को चौंका दिया है।

सुरजीत सिंह बरनाला की अकाली सरकार जो केंद्र में कांग्रेस सरकार के साथ मिलकर काम करती थी, ने सिख जनता को खालिस्तान को अस्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया था। 90 के दशक की शुरूआत में सिख जाट किसानों ने आतंकवाद पर लगाम लगाने में सरकार की मदद की थी। उनकी सक्रिय मदद के बिना आतंकवाद का सफाया नहीं हो सकता था। खालिस्तानी अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में कनाडा सरकार द्वारा लगाए गए हालिया आरोप, तथा उसके बाद अमरीकी सरकार द्वारा गुरपतवंत सिंह पन्नू को खत्म करने की भारत सरकार द्वारा प्रायोजित योजना के बारे में लगाए गए आरोप, जो अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन और जर्मनी में खालिस्तान की मांग का नेतृत्व करने वाला एक अमरीकी नागरिक था, ने मतदाताओं को प्रभावित किया होगा जिन्होंने अमृतपाल और सरबजीत खालसा के पक्ष में ई.वी.एम. बटन दबाया।

इसलिए एक तरह से कहा जाए तो इन राष्ट्रद्रोहियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मोदी/शाह की नीति पंजाब में 80 के दशक में हुई परेशानियों की पुनरावृत्ति को बढ़ावा दे सकती है। नीति-निर्माताओं को कठोर निर्णय लेने से पहले ऐसे कारकों को अपने दिमाग में रखना चाहिए। कश्मीर में उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे उदारवादी नेताओं की इंजीनियर राशिद जैसे कट्टरपंथी नेताओं द्वारा हार एक और संकेत है, जिस पर मोदी/शाह की जोड़ी को विचार करने की जरूरत है।

जम्मू-कश्मीर में संविधान की धारा 370 को हटाने के लिए उन्होंने जो त्वरित और निर्णायक कदम उठाया उससे भाजपा के मूल समर्थकों और हिंदी पट्टी और उससे भी आगे के कई अन्य भारतीयों को खुशी हुई, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद इसका नतीजा चिंताजनक रूप से स्पष्ट होता जा रहा है। कश्मीर के मुस्लिम मतदाता अपनी मुख्यधारा की राजनीतिक पाॢटयों से दूर हो रहे हैं और मोदी शासन के अधिक विद्रोही विरोधियों को चुन रहे हैं। यह चिंता का एक और कारण है।

2 खालिस्तानी सिखों और एक कट्टरपंथी कश्मीरी मुसलमान का लोकसभा में चुना जाना इस बात को परिभाषित करता है कि पंजाब में गुरबचन सिंह जगत और अमरजीत सिंह दुलत जैसे बुद्धिमान और उदारवादी लोगों से सलाह लेने की जरूरत है। क्या निर्वाचित सांसदों को संसद में बोलने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए, बजाय इसके कि वे चुपचाप अपने सह-धर्मियों को देश के खिलाफ भड़काएं? सरकार ने इन विद्रोही लोगों के खिलाफ जो भी कदम उठाए या योजना बनाई वे कारगर नहीं हुए। उनके संबंधित समुदायों को अपने पक्ष में करना होगा।

परकला प्रभाकर एक विचारक हैं जो मामलों को सही शब्दों में बयां करते हैं। उन्हें संदेह है कि क्या मोदी को नरम नीतियां अपनाने के लिए राजी किया जा सकता है। परकला हमें याद दिलाते हैं कि भेड़ की खाल पहनकर भेडिय़ा भेड़ नहीं बन सकता। वह भेडिय़ा ही रहेगा। अपने मंत्रिमंडल के गठन और विभागों के वितरण में मोदी ने पहले ही दिखा दिया है कि वह अकेले निर्णय लेने वाले हैं। वह पहले की तरह ही शासन करना जारी रखेंगे।

मोदी को बताया जाना चाहिए कि इसराईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हमास के आतंकवादियों को मारकर और गाजा में अस्पतालों और नागरिक बस्तियों पर बमबारी करके और अधिक आतंकवादियों को पैदा कर रहे हैं। 80 के दशक में खालिस्तानी आतंकवादियों के साथ संघर्ष के दौरान पंजाब में हमें ऐसा अनुभव हुआ था। अपराधियों को सूचीबद्ध करने और फिर उन्हें खत्म करने का नतीजा यह हुआ कि कभी-कभी एक की जगह 2 लोग आ जाते थे। आतंकवाद को खत्म करने का एकमात्र तरीका आतंकवादियों को वह ऑक्सीजन नहीं देना है जो उनके अपने सह-धर्मियों द्वारा रसद सहायता या यहां तक कि उनके पागलपन को मौन स्वीकृति के रूप में प्रदान की जाती है।

जब समुदाय को जीत लिया जाता है, तभी आप समापन की उम्मीद कर सकते हैं। उत्तरी आयरलैंड में पुलिस का अनुभव बिल्कुल वैसा ही था जैसा कि पंजाब में हमारा था। बेशक, आतंकवादियों के खिलाफ युद्ध में मारे गए आम लोगों और सुरक्षाकर्मियों का आंकड़ा पंजाब में 5 गुना अधिक था। जब मैंने उत्तरी आयरलैंड के चीफ कांस्टेबल को यह बात बताई, तो उन्होंने मुझे यह बताने की कृपा की कि पंजाब की आबादी उत्तरी आयरलैंड की आबादी से 5 गुना अधिक है।

अगर 19वीं  लोकसभा में 3 सरकार विरोधी सांसदों का प्रवेश चिंता का विषय है, तो पश्चिम बंगाल से महुआ मोइत्रा का फिर से चुनाव जीतना संसद की कार्रवाई को जीवंत बनाएगा। स्मृति ईरानी इसे और अधिक गति देने के लिए मौजूद नहीं होंगी, लेकिन कंगना रनौत स्मृति की जगह ले सकती हैं। अगर संसद में महुआ और कंगना के बीच जुबानी जंग होती है, तो मैं इस मौके को मिस नहीं करना चाहूंगा। शशि थरूर का फिर से चुनाव जीतना बहुत स्वागत योग्य है। उन्होंने संसद में खुद को एक अनुभवी वाद-विवादकत्र्ता के रूप में स्थापित किया है। और अब जबकि राहुल गांधी ‘अनिच्छुक राजनीतिज्ञ’ मोड से बाहर आ चुके हैं, राहुल और शशि को भारत के विपक्ष में कांग्रेस के लिए एक अच्छी जोड़ी बनानी चाहिए। 

पिछले साल किसी समय प्रधानमंत्री और स्पीकर ने नए संसद भवन के उद्घाटन की अध्यक्षता की थी। इसका उद्घाटन वास्तव में एक ऐसे स्थान के रूप में किया जाना चाहिए जहां शासन के निर्णयों पर बहस की जाती है और उन्हें पारित किया जाता है और कभी-कभी (शायद ही कभी) उन्हें खारिज कर दिया जाता है।  भारत के लोग बेहद नाखुश और निराश होंगे यदि उन्हें नई लोकसभा में लोकतंत्र की भूमिका को सुनने और देखने का मौका न मिले। - जूलियो रिबैरो (पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)


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