भरोसे की बहाली से होगा श्रीलंका संकट का समाधान

punjabkesari.in Thursday, Jul 21, 2022 - 04:16 AM (IST)

कोरोना के वैश्विक संकट का असर कम हुआ नहीं कि रूस-यूक्रेन युद्ध से आर्थिक मंदी की आहट सुनाई देने लगी। तुर्की की मध्यस्थता के बीच युद्ध मैदान से कोई अच्छी खबर सुनने को बेताब दुनिया को श्रीलंका की राजनीतिक अस्थिरता ने ङ्क्षचता में डाल दिया है। श्रीलंका के संकट को सिर्फ द्वीपीय देश तक सीमित नहीं माना जा सकता, इससे एशिया से लेकर यूरोपीय देशों के आर्थिक समीकरण बदलेंगे। यह ठीक वैसा ही है जैसे 2008 में ग्रीस संकट का असर पूरी दुनिया पर हुआ या फिर रूस-यूक्रेन युद्ध से पैदा ऊर्जा संकट से कोई भी देश अछूता कहां है? 

श्रीलंका में पैट्रोल-डीजल, दवाइयों समेत रोजमर्रा की वस्तुओं की कमी को लेकर विरोध प्रदर्शन में जनता सड़कों पर उतर आई। आक्रोश इस कदर बढ़ा कि राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे देश छोड़कर भाग गए, प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति नियुक्त किया गया, जो अब 20 जुलाई को हुए मतदान, जिसमें जनता ने हिस्सा नहीं लिया, के बाद राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं। गोटबाया राजपक्षे श्रीलंका के पहले राष्ट्रपति हैं, जिन्हें अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ही पद छोडऩा पड़ा। 1953 में विरोध-प्रदर्शनों के बाद प्रधानमंत्री डुडले सेनानायके को पद छोडऩा पड़ा था। 

1948 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता के बाद श्रीलंका सबसे गंभीर राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है। इस संकट की वजह आॢथक बदहाली और अर्थव्यवस्था का दिवालियापन रहा है। विदेशी मुद्रा कोष के गंभीर संकट से उबरने के लिए उसे कम से कम 4 अरब डॉलर की तत्काल जरूरत है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) ने साफ कह दिया है कि किसी तरह की मदद तभी संभव है, जब श्रीलंका राजनीतिक रूप से स्थिरता हासिल कर लेगा। 

श्रीलंका सरकार की गलतियों में उसके और दुनिया के किसी भी देश के लिए सबक छिपा है। अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए हर देश को आय के विभिन्न स्रोत विकसित करने पड़ते हैं। श्रीलंका के लिए सालों तक आय का सबसे बड़ा स्रोत मात्र पर्यटन रहा है। वर्तमान में श्रीलंका के सकल घरेलू उत्पाद में पर्यटन का योगदान 12 प्रतिशत है। कोरोना संकट के दौरान पर्यटन गतिविधियां ठप्प पडऩे के बाद श्रीलंका की अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिर गई। यह बात सिर्फ श्रीलंका पर लागू होती है, ऐसा नहीं है। 

आर्थिक मोर्चे पर कुछ इसी तरह की गलती रूस ने पिछले कुछ सालों में की। रूस की 40 फीसदी आय सिर्फ तेल और गैस पर निर्भर है। यही वजह है कि यूरोपीय देशों द्वारा रूस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का असर उसकी तेल व गैस परियोजनाओं पर पड़ा है। जरा सोचिए, सैन्य साजो-समान के निर्यात के मोर्चे पर रूस को मदद न मिलती तो यूक्रेन के साथ युद्ध की वजह से पश्चिमी देशों व ई.यू. द्वारा लगाए आॢथक प्रतिबंधों से उसकी क्या दशा होती। 

यानी श्रीलंका में नई सरकार के गठन के फौरन बाद उसे लोगों में विश्वास बहाली के कदम उठाने होंगे। भरोसे के बिना न तो आॢथक गतिविधियों में तेजी लाई जा सकती है और न ही राजनीतिक स्थिरता के लक्ष्य हासिल किए जा सकेंगे। नई सरकार को विदेशों में बसे श्रीलंकाई मूल के लोगों को पैसा देश भेजने के लिए प्रेरित करना होगा। इसके लिए सैंट्रल बैंक द्वारा तय डॉलर की दरों को ताॢकक बनाना होगा। पर्यटन गतिविधियों को दोबारा नई ऊंचाई देने के लिए इंडोनेशिया और थाइलैंड में उपलब्ध पर्यटन गतिविधियों की तुलना में आकर्षक पैकेज व दरें पेश की जा सकती हैं। ये सब उपाय दीर्घकालिक आर्थिक सुधारों को गति देते हुए समानांतर रूप से करने होंगे। 

श्रीलंका में पिछले राष्ट्रपति चुनाव के ठीक बाद राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने अपने करीबी उद्योगपतियों को 600 अरब रुपए की छूट प्रदान की। भ्रष्टाचार के इन मामलों की यदि जांच होती है तो जनता में एक अच्छा संदेश जाएगा। विदेश नीति के मोर्चे पर भी श्रीलंका लगातार गलतियां दोहराता रहा है। अपने दोस्त पहचाने में श्रीलंकाई सरकारों ने किस कदर गलतियां की हैं, इसका अंदाजा सड़कों पर उतरी जनता के हाथों में लहरा रही तख्तियों को देखकर लगता है। 

चीन के छिपे हुए एजैंडे को श्रीलंका की सरकार भले न समझ सकी हो, लेकिन वहां की जनता खुलकर भारत को भरोसेमंद दोस्त बता रही है। बल्कि वह खुद चीन के दखल को बढ़ावा देने वाली नीतियों के खिलाफ खड़ा हो गया है। दरअसल, चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों को अंजाम तक पहुंचाने के एजैंडे पर चलते हुए लगातार गैर-जरूरी आधारभूत परियोजनाओं के लिए श्रीलंका को कर्ज देता रहा। बिना जरूरत के मिले इस कर्ज को श्रीलंकाई सरकार अपनी विलासिता पर खर्च करती रही। इसका परिणाम चीन की मंशा के अनुरूप निकला। आज हंबनटोटा और कोलंबो पोर्ट पर चीन का कब्जा हो चुका है। 

श्रीलंका की इस दुर्दशा के पीछे वहां के निवर्तमान सरकार की उदासीनता, भ्रष्टाचार के साथ ही ड्रैगन का एजैंडा भी कम जिम्मेदार नहीं। श्रीलंका पर अकेले चीन का 5 अरब डॉलर का कर्ज है, जिसकी कुल सीमा 50 अरब डॉलर के स्तर को पार कर चुकी है। इसी साल उसे 7 अरब डॉलर का कर्ज चुकाना होगा। एक तरफ चीन उसे लगातार कर्जदार बना रहा था, वहीं दूसरी ओर भारत लगातार बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए उसकी मदद करता रहा।

भारत इस देश को आॢथक संकट से उबारने के लिए 3.5 अरब डॉलर की मदद कुछ समय पहले ही कर चुका है। वैक्सीन से लेकर ईंधन की जरूरत के समय भारत ही श्रीलंका के साथ खड़ा नजर आया। दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध सांझा सांस्कृतिक, भाषायी और भौगोलिक विरासत से विकसित हुए हैं। यह बात और है कि इस तथ्य को नजरअंदाज करते हुए वहां के शासकों ने भारत विरोधी चीन की मंशा को शह देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 

श्रीलंका की भावी सरकारों को यह समझना होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को परिवारवाद खोखला कर देता है। इस देश में लंबे समय तक सेनानायके, जयवद्र्धने और भंडारनायके जैसे राजनीतिक परिवारों का दबदबा रहा। इस बीच राजपक्षे परिवार ने परिवारवाद को नई ऊंचाइयां देकर समस्या को और गंभीर बनाया। पिछली सरकार में राजपक्षे परिवार के कई सदस्य मंत्री और बड़े ओहदों से नवाजे गए। देश में यह विमर्श स्थापित हो चुका था कि एक राजनीतिक परिवार सरकार ही नहीं, पूरी व्यवस्था को नियंत्रित करने में लगा है। यानी श्रीलंका को अब यदि राजनीतिक स्थिरता की ओर बढऩा है तो उन लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाना होगा, जो उसकी विरासत का हिस्सा रहे हैं, जिन्हें परिवारवाद की राजनीति ने अपने हितों के लिए तिलांजलि दे दी।(हिमाचल लोक सेवा आयोग की वरिष्ठतम सदस्य) -डॉ. रचना गुप्ता


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