अब राजनीति किसी शराबखाने की लड़ाई जैसी दिखती है

punjabkesari.in Friday, Mar 07, 2025 - 05:26 AM (IST)

ऐसा लगता है कि सभ्यता की वह सारी मेहनत से गढ़ी गई अच्छाइयां नष्ट होती जा रही हैं! प्रिय पाठको  एक समय था जब विश्व के नेता सज्जनों की तरह हाथ मिलाते थे, गर्मजोशी से मुस्कुराते थे और शिष्टाचार से बातें करते थे। बेशक, वे एक-दूसरे के पतन की साजिश रच रहे होते थे  लेकिन कितने सभ्य तरीके से यह सब करते थे! कूटनीति कभी एक कला थी आज वह कला कुछ अधिक आदिम रूप में बदल गई है। विनम्रता गायब हो गई है और उसकी जगह कुत्तों की लड़ाई के बौद्धिक समकक्ष ने ले ली है। अब कोई नपा-तुला बयान नहीं देता। नेता सीधे प्रतिद्वंद्वी पर वार करते हैं, ऐसे अपशब्द उछालते हैं जैसे बच्चे बिस्कुट फैंकते हैं। ग्रैंडमास्टर रणनीतिकारों का दौर खत्म हो गया  अब राजनीति किसी शराबखाने की लड़ाई जैसी दिखती है बस कुर्सियां कुछ कम टूटती हैं।

आज की राजनीतिक बहस को ही देख लीजिए कभी यह विचारों का गरिमामयी आदान-प्रदान हुआ करती थी लेकिन अब यह प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने और मजाक उड़ाने का जरिया बन गया है। संसद में सदस्य एक-दूसरे को बीच में रोकते हैं, मेजें पीटते हैं, हंगामा करते हैं। बहसें, जो कभी प्रभावी और संजीदा होती थीं, अब केवल फेफड़ों की ताकत पर निर्भर हैं। जो सबसे जोर से चिल्लाए, वही जीतता है हालांकि सच कहें तो कुछ नेताओं की आवाज इतनी कर्कश होती है कि आश्चर्य होता है कि वे जीतते कैसे हैं! लेकिन इससे पहले कि हम शिष्टाचार की मृत्यु पर शोक मनाएं, जरा सोचें कि कहीं हमने भी इसे मारने में मदद तो नहीं की? आखिरकार, पुरानी दुनिया की कूटनीति भी पूरी तरह ईमानदार नहीं थी। वही नेता जो कैमरे के सामने मुस्कुराते थे, अक्सर चाय के समय चम्मच की जगह खंजर चला रहे होते थे। उनके ‘शांति और सहयोग’ के भाषण बिल्ली के उस वादे जितने सच्चे थे जो कहती है कि वह मछली के कटोरे को नहीं छुएगी। अंतत: जनता समझदार हो गई। जब सच्चाई सामने आ ही जानी है तो फिर चालाक छल-प्रपंच क्यों? कम से कम आज जब कोई नेता बेतुकी बात करता है तो वह इसे खुलेआम करता है।

फिर भी, हर शिष्टाचार दिखावा नहीं था। इतिहास में ऐसे नेता भी हुए जिन्होंने समझा कि मर्यादा केवल एक प्रदर्शन नहीं है। गांधी ने बिना किसी को अपशब्द कहे एक साम्राज्य को चुनौती दी। चॢचल, हालांकि तीखी जुबान वाले थे लेकिन उन्हें यह भी पता था कि कब चतुराई से तंज कसना है और कब सम्मान देना है। रुजवेल्ट ने राष्ट्र को शांत गरिमा के साथ आश्वस्त किया  न कि शोर-शराबे के साथ और लिंकन गृहयुद्ध के बीच भी अपने सबसे बड़े आलोचकों को धैर्यपूर्वक सुनते थे। कल्पना कीजिए! एक नेता जो सुनता था  चिल्लाने की बजाय,जैसे कोई बच्चा जिसे एक अतिरिक्त कुकी देने से इंकार कर दिया गया हो। तो अब हम नकली शिष्टाचार और खुली बर्बरता के बीच झूलते हुए यहां हैं लेकिन क्या हमें सच में इन दोनों में से किसी एक को चुनना है?

क्या सचमुच हमें सांप जैसी चिकनी-चुपड़ी बातों और गोरिल्ला जैसी आक्रामक गर्जना में से कोई एक अपनाना होगा? शायद, बस शायद, हम अच्छे आचरण को वापस ला सकते हैं मगर इस बार सच्चाई के साथ। कल्पना कीजिए, एक ऐसी दुनिया जहां बहसें तीखी लेकिन सम्मानजनक हों, जहां बुद्धिमत्ता की जीत हो, शोर-शराबे की नहीं।  जहां नेता प्रतियोगियों की तरह नहीं बल्कि असली मार्गदर्शकों की तरह व्यवहार करें  और जहां शब्द केवल शब्द न होकर सच्चाई के वाहक हों! हमारी सभ्यता को बनाने में सदियां लगीं और अगर यह हाल रहा  तो कुछ और प्रैस कांफ्रैंस या राजनीतिक भाषण इसे तहस-नहस कर देंगे!-दूर की कौड़ीराबर्ट क्लीमैंट्स
 


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