देश की आस्थावान परम्पराओं को समाप्त करने की सुनियोजित साजिश

punjabkesari.in Friday, Dec 29, 2017 - 03:56 AM (IST)

अगले कुछ घंटों में हम सभी 2018 में प्रवेश करने वाले हैं। सभी पाठकों को नववर्ष की असीम शुभकामनाएं। स्वाभाविक है कि वर्ष 2017 में राजनीति, सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण के क्षेत्र में जो घटनाएं हुईं वे निश्चित रूप से नए वर्ष पर प्रभाव डालेंगी। अभी हाल के समय में कुछ ऐसे घटनाक्रम भी सामने आए हैं जिनसे संदेह होता है कि देश की मूल संस्कृति और अनादिकाल से चली आ रही आस्थावान परम्पराओं को एक योजनाबद्ध प्रपंच के माध्यम से बाधित करने की साजिश रची जा रहा है। 

इसी पृष्ठभूमि में तमिलनाडु में उसके 2,500 वर्ष पुराने पारम्परिक खेल जल्लीकट्टू का आयोजन आगामी 15-16 जनवरी को होने वाला है किंतु उससे पहले ही 12 दिसम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने जल्लीकट्टू और बैलगाड़ी दौड़ को अनुमति देने वाले महाराष्ट्र और तमिलनाडु सरकार के कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाएं 5 सदस्यीय संवैधानिक पीठ के पास सुनवाई के लिए भेज दीं। अब शीर्ष अदालत की वृहद पीठ को निर्णय करना है कि क्या जल्लीकट्टू और बैलगाड़ी की दौड़ जैसे मामलों में राज्यों को कानून बनाने की विधायी पात्रता है, जो संविधान के अनुच्छेद 29 (1) के अंतर्गत सांस्कृतिक अधिकारों की सीमा में आते हैं? और क्या इन्हें संवैधानिक रूप से संरक्षण दिया जा सकता है? इस पारम्परिक खेल पर प्रतिबंध लगाने के लिए पेटा सहित कई गैर-सरकारी संस्थाओं ने पशुओं से होने वाली कथित क्रूरता का तर्क देकर अदालत का रुख किया है। 

क्या भारत जैसे विशाल देश में पशु क्रूरता सहित पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर केवल देश के मूल त्यौहार, प्राचीन रीति-रिवाज और पारम्परिक खेल ही प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं? क्या अन्य मजहबों के पर्वों और परम्पराओं को इन्हीं कसौटियों पर नहीं कसा जाना चाहिए? गत 25 दिसम्बर को भारत सहित विश्व में क्रिसमस का पर्व बड़े ही धूमधाम से मनाया गया। प्राय: इसी दिन से ग्रेगोरी कालदर्शक अर्थात् जूलियन कालदर्शक के अनुसार नववर्ष के आगमन की तैयारी भी प्रारम्भ हो जाती है। जिस प्रकार हिन्दुओं में दीवाली, होली, महाशिवरात्रि, नवरात्र, करवाचौथ, दही-हांडी, जल्लीकट्टू आदि के पीछे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हजारों वर्षों की आस्था और पौराणिक मान्यताएं निहित हैं, उसी प्रकार अन्य पंथों के त्यौहारों और परम्पराओं की भी एक पृष्ठभूमि होती है जिसमें लोगों की आस्था भी जुड़ी होती है। 

ईसाई मान्यता के अनुसार हजारों वर्ष पहले मैरी नामक एक युवती के पास गैब्रियल नामक देवदूत ईश्वर का संदेश लेकर पहुंचे थे। उन्होंने मैरी को जानकारी दी कि वह प्रभु के पुत्र को जन्म देगी और उस शिशु का नाम जीसस रखा जाएगा। देवदूत गैब्रियल, जोसफ  के पास भी गए और उन्हें सलाह दी कि वह मैरी की देखभाल करें और उसका साथ न छोड़ें। ईसा को मैरी ने आधी रात को एक अस्तबल में जन्म दिया। तभी से ईसाई समुदाय उनके जन्म को क्रिसमस के रूप में मनाता है। 

अधिकतर ईसाइयों का मानना है कि क्रिसमस का पर्व टर्की पक्षी के सेवन के बिना अधूरा है। इस परम्परा का इतिहास लगभग 500 वर्ष पुराना है। ब्रिटेन में ईसाइयों का मत है कि वर्ष 1526 में अमरीका यात्रा के समय विलियम स्ट्रिक्टलैंड को व्यापार के दौरान 6 टर्की पक्षी मिले थे, जिन्हें उन्होंने ब्रिस्टल के बाजार में आकर बेच दिया। माना जाता है कि 16वीं शताब्दी में किंग हैनरी-अष्टम ही पहले ऐसे ब्रिटिश सम्राट थे, जिन्होंने क्रिसमस पर टर्की के सेवन की परम्परा शुरू की थी, जिसे बाद में किंग एडवर्ड-सप्तम ने लोकप्रिय बनाया। उससे पहले तक इस पर्व पर ब्रिटेनवासी गौमांस, शूकर के सिर और चिकन का सेवन करते थे। आज भी कई स्थानों पर क्रिसमस के दौरान इन्हीं पशु-पक्षियों के मांस का उपभोग किया जाता है। 

आंकड़ों के अनुसार इंगलैंड में क्रिसमस के समय अपने तथाकथित ‘‘पारम्परिक भोजन’’ के लिए प्रतिवर्ष 1 करोड़ से अधिक टर्कियों को बूचडख़ानों में क्रूरता के साथ मार दिया जाता है। इस वर्ष तो ब्रिटेन को बढ़ती मांग के कारण टर्की आपूर्ति का संकट भी खड़ा हो गया था। बात यदि अमरीका की करें तो यहां प्रतिवर्ष 30 करोड़ टर्की क्रिसमस और थैंक्सगिविंग डे के लिए मार दी जाती है। इंगलैंड और अमरीका के अतिरिक्त, विश्व के अधिकतर ईसाई बहुल देशों में क्रिसमस पर मुख्यत: टर्की पक्षी और गौमांस का सेवन करते है। मजहब के आधार पर विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या ईसाइयों की है, जो 2.3 खरब से अधिक है। वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 2.8 करोड़ ईसाई बसते हैं। क्रिसमस के समय भारत में भी विशेषकर दक्षिण और पूर्वोत्तर भाग में गौमांस, चिकन और कभी-कभी टर्की का सेवन परम्परा के नाम पर किया जाता है। क्या भारत के बूचडख़ानों में हिंदुओं के लिए पूजनीय और आस्था के केन्द्र-गौवंशों की निर्मम हत्या पशु क्रूरता को परिभाषित नहीं करती? 

यह किसी विडंबना से कम नहीं कि सैकुलरिस्टों, वामपंथी-चिंतकों, बुद्धिजीवियों और कई गैर-सरकारी संगठनों के लिए गौवंश की हत्या पर प्रतिबंध एक समुदाय विशेष के पसंदीदा खाने के अधिकार और कथित मजहबी परम्परा पर आघात है। साथ ही उनके लिए ईद पर गौवंश, बकरे, ऊंट आदि पशुओं की कुर्बानी या क्रिसमस पर टर्की पक्षी का सेवन मजहबी रिवाज का विषय बनकर न्यायसंगत और प्रगतिशील हो जाता है। किंतु उसी जमात के लिए तमिलवासियों का पारम्परिक खेल जल्लीकट्टू-पशु क्रूरता और प्रतिगामी मानसिकता का प्रतीक बन जाता है। क्या यह दोहरा मापदंड नहीं? 

क्रिसमस का पर्व उपहारों का आदान-प्रदान, बाजारों में सजावट का सामान और सार्वजनिक छुट्टी के कारण विश्वभर में एक बड़ी आर्थिक गतिविधि के रूप में विकसित हो चुका है। प्राय: क्रिसमस पर घरों और बाजारों को सजाने हेतु प्लास्टिक व थर्मोकोल का उपयोग अत्यधिक मात्रा में होता है। सजावट में उपयोग आने वाले क्रिसमस वृक्ष अधिकतर कृत्रिम होते हैं, जिन्हें प्लास्टिक से बनाया जाता है, जो इस पर्व के बीत जाने के बाद लाखों टन कचरे के ढेर में परिवर्तित हो जाता है। पर्यावरण व मनुष्य-जीवन के लिए थर्मोकोल और प्लास्टिक जैसे तत्व कितने हानिकारक हैं, उसे लेकर कई विश्वसनीय रिपोर्ट इंटरनैट पर उपलब्ध हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारत सहित विश्व में क्रिसमस पर लगभग 224 करोड़ बधाई पत्र भेजे जाते हैं, जिन्हें बनाने में कई लाख पेड़ काट दिए जाते हैं।

नि:संदेह दीवाली पर पटाखों के निकलने वाले धुएं से पर्यावरण दूषित होता है और ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता है। उच्चतम न्यायालय ने इसी वर्ष प्रदूषण रोकने संबंधी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली-एन.सी.आर. में दीपावली पर पटाखों की ब्रिकी पर प्रतिबंध लगा दिया था। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट के अनुसार बीफ (गौमांस) पर्यावरणीय रूप से सबसे हानिकारक मांस है। औसतन एक साधारण बीफ बर्गर से पर्यावरण में 3 किलो विषैली गैस कार्बन का उत्सर्जन होता है। यक्ष प्रश्न है कि पर्यावरण के स्वयंभू संरक्षक देश में क्रिसमस और नववर्ष पर होने वाली आतिशबाजी, प्लास्टिक-थर्मोकोल के उपयोग और गौमांस के सेवन के खिलाफ मुहिम क्यों नहीं चलाते? आखिर क्यों दीपावली और होली की भांति भारत में ‘‘ईको-फ्रैंडली’’ क्रिसमस और नववर्ष के स्वागत पर जोर नहीं दिया जाता?

भारत की सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता के खिलाफ  कई वर्षों से षड्यंत्र रचा जा रहा है। देश में ऐसे कई संगठन विद्यमान हैं जो विदेशी धन और विदेशी एजैंडे के बल पर पशु अधिकार, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय, महिला सशक्तिकरण, मजहबी सहिष्णुता और पर्यावरण की रक्षा के नाम पर भारत की कालजयी सनातन संस्कृति और बहुलतावाद को चोट पहुंचा रहे हैं, जिसमें उन्हें राष्ट्रविरोधी तथाकथित सैकुलरिस्टों और वामपंथी चिंतकों का आशीर्वाद प्राप्त है। दीपावली, होली, दही-हांडी, मूर्ति-विसर्जन, जल्लीकट्टू इत्यादि के खिलाफ  मिथ्या प्रचार इसी कुत्सित गठजोड़ का परिणाम है। इसी आशा के साथ सभी पाठकों को नववर्ष की पुन: शुभकामनाएं कि साल 2018 में अदालतें अपनी न्यायिक सक्रियता देश के मूल त्यौहारों, परम्पराओं को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित करने के विपरीत उसे और अधिक नियंत्रित करने व उसमें सुधार लाने की दिशा में दिखाएंगी।-बलबीर पुंज


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